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रिश्ते चाहे कितने भी बुरे क्यू न हो
लेकिन कभी भी उन्हें तोडना मत
क्यूंकि पानी चाहे कितना भी गन्दा क्यों न हो
प्यास नहीं तो आग तो बुझा ही देता है
उन दिनों गांव में एक भी लड़की पहलवान नहीं थी। अखाड़े में कोच ने लड़कों से उनका मुकाबला कराया। यह देखकर सबको अजीब लगा। सबने कहा, लड़की है, तो इसका मुकाबला लड़की से ही होना चाहिए। यह सुनकर साक्षी भड़क गईं। उन्होंने कहा, मुङो फर्क नहीं पड़ता। लड़का हो या लड़की, जो सामने आएगा, उसे पटक दूंगी। इस तरह उन्होंने लड़कों के साथ अभ्यास करके कुश्ती के दांव-पेच सीखे।उनका सफर आसान नहीं रहा।
मां सुदेश कहती हैं, साक्षी पढ़ाई में अच्छी थी। उसने अपनी इच्छा से पहलवान बनने का फैसला किया। मुङो खुशी है कि मैंने उसका साथ दिया।दिलचस्प बात यह है कि उनका भाई सचिन क्रिकेट का बड़ा फैन है। वह साक्षी को चिढ़ाता कि खेलना ही है, तो क्रिकेट खेलो। पहलवान बनकर क्या करोगी? मगर साक्षी ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।
पर कहते है ना, मेहनत कभी बेकार नहीं जाता। इसी साल के अप्रैल में मंगोलियाँ में हुए ओलिम्पिक क्वालिफ़ाइंग टूर्नामेंट में ब्रोंज के लिए हुए बाऊट में देश की पहली महिला पहलवान गीता फ़ौगट नहीं उतरी। जिसके कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया।
चूंकि Sakshi Malik भी उसी 58 किलोग्राम के केटेगरी में खेलती है, इसलिए उन्हें रियो ओलिम्पिक में खेलने का मौका मिला।
18 अगस्त 2016 को हुए 58 किलोग्राम के फ्रीस्टाइल रेस्लिंग में साक्षी 4 मैच जीतने में कामयाब रही, पर उन्हें क्वार्टर फाइनल में हार का सामना करना पड़ा।
पर उनके पास ब्रोंज जीतने का एक मौका बचा हुआ था, वो रेपेचेज़ राउंड में किर्गिस्तान के रेसलर के खिलाफ मुक़ाबले में उतरी।
पर सबके उम्मीदों के विपरीत साक्षी 0-5 से पिछड़ गई, अब उनपर प्रेशर आ गया, लेकिन हौसला नहीं खोई। बस मन में एक ही बात चल रहा थी,
रेस्लिंग की बाज़ियाँ तो 2 सेकंड में बदल जाती है, मेरे पास तो 10 सेकंड है।
ठीक इसके कुछ सेकंड बाद वो 4 अंक अर्जित की और 4-5 पर आ गई और अगले पल में लगातार 4 पॉइंट हासिल कर Rio Olympic में भारत के मेडल-सूखे को खत्म कर दी।
इस शानदार जीत के बाद वो काफी खुश हुई, जो उनके आंसूओं के रूप में निकला। कोच उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर कर रियो के अखाड़े में घुमाने लगे और कहने लगे,
इस बच्ची ने मुझे जिंदगी का सबसे बेहतरीन तौहफा दे दिया है। मैं जिंदगी भर इसका कर्जदार रहूँगा।
और इस जीत के बाद लेडी सुल्तान कहती है,
आज पूरे दिन नेगेटिविटी नहीं आई। आखिरी पड़ाव पर मेरे पास 10 सेकंड ही थे। मैंने 2-2 सेकंड में कुश्ती बदलते देखी है, तो सोचा 10 सेकंड में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? लड़ना है, मेडल लाना है। यहीं दिमाग में था कि मेडल तो तेरा है।
साभार – हिंदुस्तान
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उन्होंने कहा, अगर तुम्हें लगता है कि निशाना लगाना इतना आसान है, तो तुम क्यों नहीं हाथ आजमाते। पहले निशाना लगाओ, तब समझ में आएगा कि कितना मुश्किल है। यह सुनकर प्रकाश चुप हो गए। मगर बात मन में घर कर गई। उन दिनों वह कॉलेज में पढ़ रहे थे। पापा की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया।उन्होंने निशानेबाजी सीखनी शुरू की। मजा आने लगा। अब निशाना लगाना उनका शौक बन गया।
लेकिन असल फोकस पढ़ाई पर रहा। इस बीच उन्हें चार साल मिले निशानेबाजी सीखने के लिए। इंजीनियरिंग की डिग्री मिलने के बाद 2003 में कनाडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई। अच्छी नौकरी थी, बढ़िया वेतन था और भविष्य के लिए अच्छी संभावनाएं भी थीं। पर कुछ बात थी, जो उन्हें खल रही थी।फिर सोचा, क्यों न निशानेबाजी की ट्रेनिंग दोबारा शुरू की जाए? जब भी ऑफिस से फुरसत मिलती, टोरंटो के शूटिंग क्लब में निशाना लगाने पहुंच जाते। इस बीच जब भी घर से पापा को फोन आता, निशानेबाजी पर ही चर्चा होती।
प्रकाश बताते हैं, वह एक ही बात पूछते कि ऑफिस के बाद शूटिंग के लिए वक्त मिलता है? अगर मैं कहता नहीं, तो वह गुस्सा होकर फोन काट देते। अगले दो-तीन दिन बाद फिर उनका फोन आता और वह वही सवाल पूछते। पापा के लिए निशानेबाजी जुनून था, और वह चाहते थे कि प्रकाश इस क्षेत्र में उनका सपना पूरा करें। यह वह दौर था, जब अभिनव बिंद्रा जैसे निशानेबाज पूरी दुनिया में भारत का नाम रोशन कर रहे थे। इस बीच 2008 में कनाडा में राष्ट्रीय निशानेबाजी चैंपियनशिप हुई। प्रकाश ने उसमें हिस्सा लिया। नतीजा अप्रत्याशित था। उन्होंने गोल्ड जीता। पहली बार उन्हें लगा कि वह एक अच्छे निशानेबाज हैं। पापा ने उनसे कहा, तुम नौकरी करने के लिए नहीं, निशानेबाजी के लिए बने हो। यही तुम्हारी मंजिल है। घर लौट आओ।इंजीनियर की नौकरी छोड़कर वह स्वदेश लौट आए। कई घरेलू टूर्नामेंट जीते।
प्रकाश कहते हैं, जब कनाडा से लौटा, तब नहीं सोचा था कि एक दिन ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाऊंगा। यह सफर बहुत शानदार रहा है।वर्ष 2013 में वर्ल्ड कप मेडल जीतने वाले प्रकाश पहले भारतीय निशानेबाज बने। इस कामयाबी को मुश्किल से एक महीने ही बीते थे कि एक हादसा हो गया। वह एक निशानेबाजी प्रतियोगिता के लिए स्पेन जा रहे थे। विमान में अचानक उन्हें महसूस हुआ कि चेहरे पर कुछ हुआ है, पर समझ नहीं पाए क्या हुआ। होटल पहुंचे, शीशे में खुद को देखा, तो घबरा गए। ब्रश करने की कोशिश की, तो मुंह नहीं खुला। एक आंख अचानक बंद हो गई। दौड़कर रिसेप्शन की तरफ भागे। वहां मौजूद लोग उन्हें देखकर चौंक गए।
प्रकाश बताते हैं, उस समय मेरा चेहरा बहुत डरावना लग रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं? मैं चिल्लाने लगा, मेरी मदद करो।इसके बाद उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया। अगले दिन से अभ्यास शुरू होना था, मगर वह अस्तपाल के बेड पर थे। डॉक्टरों ने कहा, आपके चेहरे पर लकवा मार गया है। कब तक ठीक होंगे, कुछ पता नहीं। खबर फैली, तो सब कहने लगे कि प्रकाश का करियर खत्म हो गया। जब तक आंख ठीक नहीं होगी, वह निशानेबाजी कैसे कर पाएंगे?
मगर धुन के पक्के इस निशानेबाज ने डॉक्टरों को गलत साबित कर दिया। प्रकाश कहते हैं, जब डॉक्टरों ने कहा कि निशानेबाजी मुङो बंद करनी पड़ेगी, तो मैं अंदर से टूट गया। मैंने उनसे कहा, मैं निशानेबाजी के बिना कैसे जिऊंगा? प्लीज कुछ कीजिए। प्रकाश की हालत सुधरने में कम से कम दो महीने लगे। मगर एक-एक पल बड़ी मुश्किल से बीता। पूरी तरह फिट होने में एक साल लगा, पर वह हारे नहीं। डॉक्टर भी उनका हौसला देखकर दंग थे।
सबको लगा था कि इस हादसे के बाद उनका प्रदर्शन पहले जैसा नहीं रहेगा। मगर उन्होंने 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ में रजत पदक जीतकर सारे कयासों को गलत साबित कर दिया।इस साल प्रकाश ने ओलंपिक के लिए क्वालिफाई किया। यह बहुत बड़ी कामयाबी थी। हालांकि वह इस बार ओलंपिक में कोई मेडल नहीं जीत सके, पर उनका हौसला सबके लिए प्रेरणास्रोत बना रहा। उन्होंने हारकर भी उन लोगों को जीत का संदेश दिया है, जो छोटी-छोटी मुश्किलों के सामने हिम्मत हार जाते हैं।
उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
“तेरे घर कहाँ है?”
“मगरे में; और तेरे?”
“माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?”
“अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।”
“मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।”
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?”
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द बोली, “हाँ, हो गई।”
“कब?”
“कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
(दो)
“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।
इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहाँ दिन में पचीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”
“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”
“चार दिन तक पलक नहीं झपपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो… “
“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा – “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”
“सूबेदारजी, सच है,” लहनसिंह बोला – “पर करें क्या? हड्डियों में तो जाड्डा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाए।”
“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।” – यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला – “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा – “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”
“हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।”
“लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम…”
“चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।”
“देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।”
“अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?”
“अच्छा है।”
“जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाडा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।”
“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा – “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए —
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
कौन जानता था कि दाढ़ियां वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!
(तीन)
रात हो गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”
” पानी पिला दो।”
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा — ” कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला – ” कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”
” अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो !”
” और तुम?”
” मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”
” ना¸ मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए…”
” हाँ¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरू उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
” सच कहते हो?”
“और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा भर थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई – ” सूबेदार हजारासिंह।”
” कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !” – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
” देखो¸ इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”
” जो हुक्म।”
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा- ” लो तुम भी पियो।”
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला – ” लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?”
शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैं! लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
” क्यों साहब¸ हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”
” लड़ाई खत्म होने पर। क्यों¸ क्या यह देश पसंद नहीं?”
” नहीं साहब¸ शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है¸ पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे!
हाँ- हाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!
‘बेशक पाजी कहीं का!’
सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे।
‘हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’
” ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”
” हाँ¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”
” पीता हूँ। साहब¸ दियासलाई ले आता हूँ।” कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
” कौन? वजीरसिंह?”
” हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?”
(चार)
” होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”
” क्या?”
” लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”
” तो अब!”
” अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा¸ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो¸ एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ¸ खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”
“हुकुम तो यह है कि यहीं– “
” ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम — जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।”
” पर यहाँ तो सिर्फ तुम आठ हो।”
” आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”
लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आँख मीन गौट्ट’कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला – ” क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो¸ ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन ‘डेम’के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहनासिंह कहता गया – ” चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो…”
साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया- ” क्या है?”
लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था¸ मार दिया’और¸ औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे।
अचानक आवाज आई ‘वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतह!!’और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और – ‘अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरूजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरूख!!!’और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव -भारी घाव लगा है।
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था¸ ऐसा चाँद¸ जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा – ” तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”
” और तुम?”
” मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ, वजीरासिंह मेरे पास है ही।”
“अच्छा, पर..”
“बोधा गाड़ी पर लेट गया, भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।”
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा- ” तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”
“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।”
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। – ” वजीरा पानी पिला दे¸ और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।”
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब ‘धत्’ कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा – ” हाँ, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू!’सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?”
” वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”
पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी¸ या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है¸ फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला-” लहना¸ सूबेदारनी तुमको जानती हैं¸ बुलाती हैं। जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर ‘मत्था टेकना’कहा। आसीस सुनी। लहनासिंह चुप।
मुझे पहचाना?”
“नहीं।”
‘तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई – देखते नहीं¸ रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में.. ‘
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
‘वजीरा¸ पानी पिला’- ‘उसने कहा था।’
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है – ” मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है¸ लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों न बना दी¸ जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जीया।’ सूबेदारनी रोने लगी। ‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे¸ आप घोड़े की लातों में चले गए थे¸ और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।’
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
‘वजीरासिंह¸ पानी पिला दे’ – ‘उसने कहा था।’
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा¸ फिर बोला – “कौन ! कीरतसिंह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा- ” हाँ।”
” भइया¸ मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसे ही किया।
“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस¸ अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा – फ्रान्स और बेलजियम — 68 वीं सूची — मैदान में घावों से मरा – नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।
– चंद्रधर शर्मा गुलेरी
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