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Friday, December 27, 2024
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Riste Chahe Kitne Bhi Bure Ho

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NICE SAYING IMAGES

रिश्ते चाहे कितने भी बुरे क्यू न हो 

लेकिन कभी भी उन्हें तोडना मत 

क्यूंकि पानी चाहे कितना भी गन्दा क्यों न हो 

प्यास नहीं तो आग तो बुझा ही देता है 

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THERESA MAY BIOGRAPHY IN HINDI

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थेरेसा मे (THERESA MAY )

ब्रिटेन की प्रधानमंत्री 

मेरे पापा चर्च में पादरी थे। उन्होंने मुझे  हमेशा लोगों की सेवा करना सिखाया। मैं एक साधारण परिवार से हूं, इसलिए आम लोगों की दिक्कतें समझती हूं। मैं महिला हूं या मुझे गंभीर डायबिटीज है, इससे मेरे काम पर कोई असर नहीं होगा।
ब्रिटेन के इस्टबार्न इलाके में जन्मी थेरेसा के पिता चर्च में पादरी थे। मां घर संभालती थीं। घर में पूजा-पाठ का माहौल था। वह कैथोलिक स्कूल में पढ़ीं। दिन की शुरुआत प्रार्थना से होती थी। पापा से खूब बनती थी उनकी। अक्सर उनके संग चर्च जातीं और छुट्टी के दिन नृत्य-नाटिकाओं में अभिनय करतीं। गांव वाले नन्ही थेरेसा की भाव-भंगिमा पर मोहित हो जाते। थेरेसा को बचपन से सजना-संवरना पसंद था। पापा की सीमित कमाई थी। परिवार का खर्च आसानी से चल जाता था, पर फिजूलखर्ची के लिए कोई जगह नहीं थी।
बेटी अब दसवीं में पढ़ने लगी थी। उसे जेब खर्च की जरूरत थी। इसलिए पढ़ाई के साथ बेकरी में पार्टटाइम काम करने लगीं। पापा का सपना था, बेटी किसी बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़े। थेरेसा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी पहुंचीं। यहां उनकी पहचान एक बेबाक और निडर छात्र की बनी। यूनिवर्सिटी में उनका तीसरा साल था। वह भूगोल से स्नातककर रही थीं। 1976 की बात है। एक डिस्को पार्टी में उनकी मुलाकात फिलिप से हुई। कहते हैं कि इस युवक से उनका परिचय बेनजीर भुट्टो ने करवाया था। वही बेनजीर, जो बाद में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं।
थेरेसा और फिलिप में गहरी दोस्ती हो गई। घरवालों को भी फिलिप पसंद आ गए। 1980 में दोनों की शादी हो गई। कॉलेज की पढ़ाई के बाद पहली नौकरी बैंक ऑफ इंग्लैंड में मिली। यहां छह साल काम किया। सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक हादसा हुआ। यह 1991 की बात है। पापा कार दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गए। कुछ दिन अस्पताल में भर्ती रहे, फिर उनकी मौत हो गई। थेरेसा के लिए यह एक बड़ा सदमा था। पापा के जाने के गम से वह उबर पातीं कि इसके पहले ही मां भी चल बसीं। वह बहुत निराश रहने लगीं।
लेकिन इस गंभीर दौर में पति फिलिप ने उनका हौसला टूटने नहीं दिया। बैंक में नौकरी के साथ ही राजनीतिक गतिविधियों में भी हिस्सा लेती रहीं। पति ने उनका उत्साह बढ़ाया। साल 1997 में मेडेनहेड से कंजरवेटिव पार्टी की सांसद बनीं। वर्ष 2002-03 के दौरान कंजरवेटिव पार्टी की चेयरमैन रहीं। थेरेसा कहती हैं, महिला होने की वजह से कभी सरकार या पार्टी के काम करने में दिक्कत नहीं आती। मुङो योग्यता की बदौलत मौके मिले, और मैंने ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारियों को निभाया। सबसे अहम जिम्मेदारी मिली 2010 में, डेविड कैमरन के नेतृत्व में गठबंधन सरकार के बनने के बाद उन्हें गृह सचिव बनाया गया।
2015 के चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी के लगातार दूसरी बार सत्ता में आने के बाद उन्हें फिर गृह सचिव बनाया गया। बतौर गृह सचिव अपराध घटाने को लेकर वह चर्चा में रहीं। थेरेसा कहती हैं- जब गृह सचिव बनी, तो लोगों ने कहा कि तुम अपराध कम नहीं कर पाओगी। फिर कहा गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना बंद करो। मगर मैंने किसी की नहीं सुनी। मेरे कार्यकाल में अपराध कम हुए। इस बीच थेरेसा की सेहत खराब रहने लगी। पता चला कि डायबिटीज है। साल 2012 में तबियत बिगड़ी। डॉक्टर ने कहा, डायबिटीज टाइप 1बी है। दिन में दो बार इंसुलिन इंजेक्शन लगवाने पड़ेंगे। थेरेसा और उनके पति फिलिप ने यह बात किसी से नहीं छिपाई। हालांकि कुछ विरोधियों ने इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की।
कहा गया कि उनकी सेहत ठीक नहीं है। इंसुलिन की बदौलत जीने वाली महिला प्रधानमंत्री जैसा अहम पद कैसे संभालेगी?
पर थेरेसा ने कभी इन चर्चाओं को तवज्जो नहीं दी। दिलचस्प बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान दमदार भाषणों के अलावा उनके पहनावे को लेकर काफी चर्चा रही। खासकर उनकी स्टाइलिश जूतियों की फोटो अखबारों में व टीवी पर खूब दिखाई गईं। स्टाइलिश कपड़े पहनने के अलावा उन्हें पहाड़ों पर घूमने व नए-नए व्यंजन पकाने का भी खूब शौक है। जब भी मौका मिलता है, वह घर पर नए पकवान बनाती हैं। मौजूदा साल ब्रिटेन के राजनीतिक इतिहास के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा। ब्रिटेन के आवाम ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला किया। देश की जनता दो धड़ों में बंट गई।
एक वह, जो यूरोपीय संघ के साथ रहना चाहता था, और दूसरी तरफ वे लोग थे, जो संघ से बाहर होने को बेताब थे। इस सियासी परिस्थिति में थेरेसा कद्दावर नेता बनकर उभरीं। उन्होंने यूरोपीय संघसे अलग होने (ब्रेग्जिट) वाले लोगों का समर्थन किया। जनमत संग्रह हुआ। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला किया। कैमरन को इस्तीफा देना पड़ा। नए प्रधानमंत्री को चुनने की बारी आई, तो सबको एक ही नाम सूझा, थेरेसा मे। इस दौरान थेरेसा ने तीन मुद्दों पर फोकस किया। ब्रेग्जिट के बाद अर्थव्यवस्था को मजबूत करना, देश की एकता-अखंडता बनाए रखना और आम लोगों के हितों को सबसे ऊपर रखना। इस साल 13 जुलाई को उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। शपथ के बाद थेरेसा ने कहा, मेरे पिता ने मुङो सिखाया है कि लोगों की सेवा करना ही सबसे बड़ा धर्म है। वादा है, मैं समाज के हर तबके के लोगों का ख्याल रखूंगी।

साभार -हिंदुस्तान अख़बार

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SAKSHI MALIK BIOGRAPHY IN HINDI

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साक्षी मलिक
 
(महिला पहलवान)
 
जब मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई, तो इलाके में कोई महिला पहलवान नहीं थी। 
कई लोगों ने सवाल उठाए कि लड़की पहलवान बनकर क्या करेगी? 
पर मैं ठहरी जिद्दी लड़की। ठान लिया, पहलवान ही बनूंगी।
 इस सफर में मां ने मेरा बहुत साथ दिया। 
उनकी बदौलत ही यह सपना पूरा कर पाई।
हरियाणा के रोहतक जिले में एक गांव है, मोखरा खास। इसकी आबादी करीब 11 हजार है। यहां बेटियों के जन्म पर जश्न नहीं होते। इलाके में सरकारी स्कूल हैं, जहां लड़कियों के मुकाबले लड़के ज्यादा संख्या में पढ़ते हैं। खेती-किसानी पर निर्भर इस गांव में हर परिवार की एक ही ख्वाहिश होती है कि घर में बेटा पैदा हो। शायद इसलिए यहां प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 822 है। ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली पहलवान साक्षी इसी गांव की बेटी हैं।

साक्षी के जन्म के कुछ दिनों बाद उनके पापा सुखवीर को दिल्ली में बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई और मां सुदेश आंगनवाड़ी में काम करने लगीं। अब सवाल था, साक्षी की देखभाल कौन करेगा? घर चलाने के लिए नौकरी जरूरी थी, इसलिए मम्मी-पापा ने उन्हें दादी के पास छोड़ दिया। दादा बदलूराम पहलवान थे। इलाके में उनका बड़ा रुतबा था। जब भी घर पर कोई उनसे मिलना आता, तो अदब से उनसे कहता, पहलवान जी, नमस्ते! नन्ही साक्षी को यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता।
 उनके दिमाग में बड़ा विचार आया, अगर मैं दादाजी की तरह पहलवान बन जाऊं, तो लोग मेरा भी इसी तरह सम्मान करेंगे। सात साल तक साक्षी दादा-दादी के पास रहीं। इसके बाद मम्मी उन्हें अपने संग घर ले आईं।साक्षी का पढ़ाई में खूब मन लगता था। कक्षा में हमेशा अच्छे नंबर आते थे। मगर बड़े होकर टीचर या डॉक्टर बनने का ख्याल मन में कभी नहीं आया। वह कुछ ऐसा करना चाहती थीं, जिससे उन्हें दादाजी की तरह रुतबा हासिल हो।
 एक दिन उन्होंने मां से कहा, मैं पहलवान बनना चाहती हूं। सुनकर मां चौंक गईं। उन्होंने समझाया, लड़कियां पहलवानी नहीं करतीं। तुङो खेलना पसंद है, तो कोई और खेल सीख ले। एक दिन वह साक्षी को लेकर रोहतक के छोटूराम स्टेडियम गईं।साक्षी ने वहां पर बच्चों को जिमनास्टिक, बास्केटबॉल, वॉलीबॉल और बैडमिंटन खेलते हुए देखा। मगर उन्हें मजा नहीं आया।
 इसके बाद मां उसी स्टेडियम में कुश्ती अखाड़े की तरफ ले गईं। उस समय वहां दो पहलवान एक-दूसरे को पटखनी देने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें देखते ही साक्षी चीख उठीं, मुङो यही गेम सीखना है। सुदेश कहती हैं, मैंने समझाया कि यह बड़ा कठिन खेल है। इसमें तेरे हाथ-पैर भी टूट सकते हैं। पर वह जिद पर अड़ गई। हमें उसकी जिद पूरी करनी पड़ी। जब बात उनके दादा और पापा को पता चली, तो वे ज्यादा खुश नहीं हुए। उन्हें चिंता थी कि कुश्ती में बेटी को कोई चोट न लग जाए। हालांकि बाद में दोनों राजी हो गए।
 साक्षी के ताऊ सतबीर कहते हैं, हमारे पिताजी पहलवान थे। गांव के सरपंच और तमाम बड़े-बड़े लोग उनका सम्मान करते थे। शायद यहीं से साक्षी के मन में पहलवान बनने की इच्छा पैदा हुई।बारह साल की उम्र से साक्षी कुश्ती सीखने लगीं। ईश्वर सिंह दहिया उनके पहले कोच थे। दहिया बताते हैं, साक्षी जब मेरे पास आई, तो ऐसा नहीं लगा कि उसे किसी ने भेजा है। यह उसका अपना फैसला था। ऐसे बच्चों को तैयार करना आसान होता है।

उन दिनों गांव में एक भी लड़की पहलवान नहीं थी। अखाड़े में कोच ने लड़कों से उनका मुकाबला कराया। यह देखकर सबको अजीब लगा। सबने कहा, लड़की है, तो इसका मुकाबला लड़की से ही होना चाहिए। यह सुनकर साक्षी भड़क गईं। उन्होंने कहा, मुङो फर्क नहीं पड़ता। लड़का हो या लड़की, जो सामने आएगा, उसे पटक दूंगी। इस तरह उन्होंने लड़कों के साथ अभ्यास करके कुश्ती के दांव-पेच सीखे।उनका सफर आसान नहीं रहा।

जिन दिनों वह कुश्ती के अखाड़े में उतरीं, उस समय हरियाणा के सामाजिक ताने-बाने में लड़कियों को लड़कों के मुकाबले कमजोर माना जाता था। मगर वह डटी रहीं। धीरे-धीरे पूरे गांव में मशहूर हो गईं। जब भी रास्ते से गुजरतीं, तो लोग कमेंट करते, देखो, पहलवान जा रही है। कुश्ती के अखाड़े की तरह ही वह स्कूल में भी अव्वल रहीं।

मां सुदेश कहती हैं, साक्षी पढ़ाई में अच्छी थी। उसने अपनी इच्छा से पहलवान बनने का फैसला किया। मुङो खुशी है कि मैंने उसका साथ दिया।दिलचस्प बात यह है कि उनका भाई सचिन क्रिकेट का बड़ा फैन है। वह साक्षी को चिढ़ाता कि खेलना ही है, तो क्रिकेट खेलो। पहलवान बनकर क्या करोगी? मगर साक्षी ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।

 देश में कई टूर्नामेंट जीतने के बाद उन्होंने 2014 में ग्लास्गो कॉमनवेल्थ खेलों में रजत पदक जीता और 2015 में एशियन चैंपियनशिप में कांस्य जीता। पापा सुखवीर कहते हैं, साक्षी की कामयाबी में उसकी मां का बड़ा हाथ है। मैं तो दिल्ली में नौकरी कर रहा था। उसकी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी मां पर ही थी।पिछले एक साल से साक्षी ओलंपिक की तैयारी में जुटी थीं। रोजाना आठ घंटे के अभ्यास के साथ खान-पान व फिटनेस को लेकर उन्होंने सख्त नियमों का पालन किया। इस दौरान साक्षी ने सब कुछ छोड़ दिया था- टीवी देखना, फोन पर बात करना और रिश्तेदारों से मिलना। उनका पूरा फोकस ओलंपिक पर था। साक्षी कहती हैं, यह सपना था कि ओलंपिक में तिरंगा लहराऊं। मैं ऐसा कर सकी, इसके लिए उन सभी का शुक्रिया, जिन्होंने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया।
Rio de Janeiro: India’s Sakshi Malik poses with her bronze medal for the women’s wrestling freestyle 58-kg competition during the medals ceremony at the 2016 Summer Olympics in Rio de Janeiro, Brazil, Wednesday. PTI Photo by Atul Yadav(PTI8_18_2016_000011B)
Wining Moment at Rio Olympics

पर कहते है ना, मेहनत कभी बेकार नहीं जाता। इसी साल के अप्रैल में मंगोलियाँ में हुए ओलिम्पिक क्वालिफ़ाइंग टूर्नामेंट में ब्रोंज के लिए हुए बाऊट में देश की पहली महिला पहलवान गीता फ़ौगट नहीं उतरी। जिसके कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया।

चूंकि Sakshi Malik भी उसी 58 किलोग्राम के केटेगरी में खेलती है, इसलिए उन्हें रियो ओलिम्पिक में खेलने का मौका मिला।

18 अगस्त 2016 को हुए 58 किलोग्राम के फ्रीस्टाइल रेस्लिंग में साक्षी 4 मैच जीतने में कामयाब रही, पर उन्हें क्वार्टर फाइनल में हार का सामना करना पड़ा।

पर उनके पास ब्रोंज जीतने का एक मौका बचा हुआ था, वो रेपेचेज़ राउंड में किर्गिस्तान के रेसलर के खिलाफ मुक़ाबले में उतरी।

पर सबके उम्मीदों के विपरीत साक्षी 0-5 से पिछड़ गई, अब उनपर प्रेशर आ गया, लेकिन हौसला नहीं खोई। बस मन में एक ही बात चल रहा थी,

रेस्लिंग की बाज़ियाँ तो 2 सेकंड में बदल जाती है, मेरे पास तो 10 सेकंड है।

ठीक इसके कुछ सेकंड बाद वो 4 अंक अर्जित की और 4-5 पर आ गई और अगले पल में लगातार 4 पॉइंट हासिल कर Rio Olympic में भारत के मेडल-सूखे को खत्म कर दी।

इस शानदार जीत के बाद वो काफी खुश हुई, जो उनके आंसूओं के रूप में निकला। कोच उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर कर रियो के अखाड़े में घुमाने लगे और कहने लगे,

इस बच्ची ने मुझे जिंदगी का सबसे बेहतरीन तौहफा दे दिया है। मैं जिंदगी भर इसका कर्जदार रहूँगा।

और इस जीत के बाद लेडी सुल्तान कहती है,

आज पूरे दिन नेगेटिविटी नहीं आई। आखिरी पड़ाव पर मेरे पास 10 सेकंड ही थे। मैंने 2-2 सेकंड में कुश्ती बदलते देखी है, तो सोचा 10 सेकंड में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? लड़ना है, मेडल लाना है। यहीं दिमाग में था कि मेडल तो तेरा है।

साभार – हिंदुस्तान

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PRAKASH NANJAPPA BIOGRAPHY IN HINDI

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प्रकाश नांजप्पा (PRAKASH NANJAPPA )

भारतीय निशानेबाज 

 

मेरे चेहरे को लकवा मार गया।

डॉक्टर ने कहा कि निशानेबाजी बंद करनी पड़ेगी।

मैं सहम गया। अब क्या होगा?

फिर तय किया कि खुद को हारने नहीं दूंगा।

अगले साल ही मेडल जीतकर साबित किया

कि हौसला साथ हो, तो रास्ते बन ही जाते हैं।

 


प्रकाश कर्नाटक के आईटी शहर बेंगलुरु में पले-बढ़े। पापा निशानेबाज थे, पर बेटे को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें शुरू से गणित और विज्ञान पसंद थे। परिवार की तरफ से उन्हें अपना मनपसंद करियर चुनने की पूरी आजादी मिली। शौक के तौर पर उन्हें मोटरबाइक रेसिंग पसंद थी। मगर पढ़ाई के दबाव के चलते इस शौक को वह खास समय नहीं दे पाए।बात वर्ष 1999 की है। एक दिन पापा घर पर निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे थे। उन्हें अगले तीन दिन बाद एक राज्य स्तरीय चैंपियनशिप में भाग लेना था। अभ्यास के दौरान पापा के कई निशाने चूक गए। इस पर प्रकाश को हंसी आ गई। उन्होंने कहा, लगता है कि आप सोते हुए निशाने लगा रहे हैं। पापा को बहुत बुरा लगा।

उन्होंने कहा, अगर तुम्हें लगता है कि निशाना लगाना इतना आसान है, तो तुम क्यों नहीं हाथ आजमाते। पहले निशाना लगाओ, तब समझ में आएगा कि कितना मुश्किल है। यह सुनकर प्रकाश चुप हो गए। मगर बात मन में घर कर गई। उन दिनों वह कॉलेज में पढ़ रहे थे। पापा की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया।उन्होंने निशानेबाजी सीखनी शुरू की। मजा आने लगा। अब निशाना लगाना उनका शौक बन गया।

लेकिन असल फोकस पढ़ाई पर रहा। इस बीच उन्हें चार साल मिले निशानेबाजी सीखने के लिए। इंजीनियरिंग की डिग्री मिलने के बाद 2003 में कनाडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई। अच्छी नौकरी थी, बढ़िया वेतन था और भविष्य के लिए अच्छी संभावनाएं भी थीं। पर कुछ बात थी, जो उन्हें खल रही थी।फिर सोचा, क्यों न निशानेबाजी की ट्रेनिंग दोबारा शुरू की जाए? जब भी ऑफिस से फुरसत मिलती, टोरंटो के शूटिंग क्लब में निशाना लगाने पहुंच जाते। इस बीच जब भी घर से पापा को फोन आता, निशानेबाजी पर ही चर्चा होती।

प्रकाश बताते हैं, वह एक ही बात पूछते कि ऑफिस के बाद शूटिंग के लिए वक्त मिलता है? अगर मैं कहता नहीं, तो वह गुस्सा होकर फोन काट देते। अगले दो-तीन दिन बाद फिर उनका फोन आता और वह वही सवाल पूछते। पापा के लिए निशानेबाजी जुनून था, और वह चाहते थे कि प्रकाश इस क्षेत्र में उनका सपना पूरा करें। यह वह दौर था, जब अभिनव बिंद्रा जैसे निशानेबाज पूरी दुनिया में भारत का नाम रोशन कर रहे थे। इस बीच 2008 में कनाडा में राष्ट्रीय निशानेबाजी चैंपियनशिप हुई। प्रकाश ने उसमें हिस्सा लिया। नतीजा अप्रत्याशित था। उन्होंने गोल्ड जीता। पहली बार उन्हें लगा कि वह एक अच्छे निशानेबाज हैं। पापा ने उनसे कहा, तुम नौकरी करने के लिए नहीं, निशानेबाजी के लिए बने हो। यही तुम्हारी मंजिल है। घर लौट आओ।इंजीनियर की नौकरी छोड़कर वह स्वदेश लौट आए। कई घरेलू टूर्नामेंट जीते।

प्रकाश कहते हैं, जब कनाडा से लौटा, तब नहीं सोचा था कि एक दिन ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाऊंगा। यह सफर बहुत शानदार रहा है।वर्ष 2013 में वर्ल्ड कप मेडल जीतने वाले प्रकाश पहले भारतीय निशानेबाज बने। इस कामयाबी को मुश्किल से एक महीने ही बीते थे कि एक हादसा हो गया। वह एक निशानेबाजी प्रतियोगिता के लिए स्पेन जा रहे थे। विमान में अचानक उन्हें महसूस हुआ कि चेहरे पर कुछ हुआ है, पर समझ नहीं पाए क्या हुआ। होटल पहुंचे, शीशे में खुद को देखा, तो घबरा गए। ब्रश करने की कोशिश की, तो मुंह नहीं खुला। एक आंख अचानक बंद हो गई। दौड़कर रिसेप्शन की तरफ भागे। वहां मौजूद लोग उन्हें देखकर चौंक गए।

प्रकाश बताते हैं, उस समय मेरा चेहरा बहुत डरावना लग रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं? मैं चिल्लाने लगा, मेरी मदद करो।इसके बाद उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया। अगले दिन से अभ्यास शुरू होना था, मगर वह अस्तपाल के बेड पर थे। डॉक्टरों ने कहा, आपके चेहरे पर लकवा मार गया है। कब तक ठीक होंगे, कुछ पता नहीं। खबर फैली, तो सब कहने लगे कि प्रकाश का करियर खत्म हो गया। जब तक आंख ठीक नहीं होगी, वह निशानेबाजी कैसे कर पाएंगे?

मगर धुन के पक्के इस निशानेबाज ने डॉक्टरों को गलत साबित कर दिया। प्रकाश कहते हैं, जब डॉक्टरों ने कहा कि निशानेबाजी मुङो बंद करनी पड़ेगी, तो मैं अंदर से टूट गया। मैंने उनसे कहा, मैं निशानेबाजी के बिना कैसे जिऊंगा? प्लीज कुछ कीजिए। प्रकाश की हालत सुधरने में कम से कम दो महीने लगे। मगर एक-एक पल बड़ी मुश्किल से बीता। पूरी तरह फिट होने में एक साल लगा, पर वह हारे नहीं। डॉक्टर भी उनका हौसला देखकर दंग थे।

सबको लगा था कि इस हादसे के बाद उनका प्रदर्शन पहले जैसा नहीं रहेगा। मगर उन्होंने 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ में रजत पदक जीतकर सारे कयासों को गलत साबित कर दिया।इस साल प्रकाश ने ओलंपिक के लिए क्वालिफाई किया। यह बहुत बड़ी कामयाबी थी। हालांकि वह इस बार ओलंपिक में कोई मेडल नहीं जीत सके, पर उनका हौसला सबके लिए प्रेरणास्रोत बना रहा। उन्होंने हारकर भी उन लोगों को जीत का संदेश दिया है, जो छोटी-छोटी मुश्किलों के सामने हिम्मत हार जाते हैं।

USANE KAHA THA- CHARDHAR SHARMA GULERI

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उसने कहा था (USANE KAHA THA )

चंद्रधर शर्मा गुलेरी 

 
बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जवान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी। “हटो भाईजी।”ठहरना भाई जी।”आने दो लाला जी।”हटो बाछा।’ – कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं – ‘हट जा जीणे जोगिए’; ‘हट जा करमा वालिए’; ‘हट जा पुतां प्यारिए’; ‘बच जा लम्बी वालिए।’ समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले।

उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडि़यां। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।

“तेरे घर कहाँ है?”

“मगरे में; और तेरे?”

“माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?”
“अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।”

“मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ , उनका घर गुरूबाजार में हैं।”

इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्करा कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?”

इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द बोली, “हाँ, हो गई।”

“कब?”

“कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”

लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

(दो)

“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।

इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहाँ दिन में पचीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।”

“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।”

“चार दिन तक पलक नहीं झपपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो… “

“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?” सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा – “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?”

“सूबेदारजी, सच है,” लहनसिंह बोला – “पर करें क्या? हड्डियों में तो जाड्डा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाए।”

“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।” – यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला – “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा – “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।”

“हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।”

“लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलाने वाली फरंगी मेम…”

“चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।”

“देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।”

“अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?”

“अच्छा है।”

“जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मंदे पड़ जाना। जाडा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।”

“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा – “क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ, भाइयों, कैसे?”

दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए —
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियां वाले, घर-बारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों!


(तीन)

रात हो गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।

“क्यों बोधा भाई¸ क्या है?”

” पानी पिला दो।”

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा — ” कहो कैसे हो?” पानी पी कर बोधा बोला – ” कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”

” अच्छा¸ मेरी जरसी पहन लो !”

” और तुम?”

” मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”

” ना¸ मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए…”

” हाँ¸ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें¸ गुरू उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।

” सच कहते हो?”

“और नहीं झूठ?” यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा भर थी।

आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई – ” सूबेदार हजारासिंह।”

” कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर !” – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

” देखो¸ इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं¸ जब तक दूसरा हुक्म न मिले डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”

” जो हुक्म।”

चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें¸ इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा- ” लो तुम भी पियो।”

आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला – ” लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?”

शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैं! लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।

” क्यों साहब¸ हमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”

” लड़ाई खत्म होने पर। क्यों¸ क्या यह देश पसंद नहीं?”

” नहीं साहब¸ शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है¸ पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे!

हाँ- हाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था!

‘बेशक पाजी कहीं का!’

सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्‌ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब¸ शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे।

‘हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’

” ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?”

” हाँ¸ लहनासिंह¸ दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?”

” पीता हूँ। साहब¸ दियासलाई ले आता हूँ।” कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।

” कौन? वजीरसिंह?”

” हां¸ क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?”


(चार)

” होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।”

” क्या?”

” लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है¸ पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।”

” तो अब!”

” अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा¸ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो¸ एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।

सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ¸ खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”

“हुकुम तो यह है कि यहीं– “

” ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम — जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है¸ उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।”

” पर यहाँ तो सिर्फ तुम आठ हो।”

” आठ नहीं¸ दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी¸ जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था कि बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आँख मीन गौट्‌ट’कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।

साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला – ” क्यों लपटन साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो¸ ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिन ‘डेम’के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।”

लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए¸ दोनों हाथ जेबों में डाले।

लहनासिंह कहता गया – ” चालाक तो बड़े हो पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो…”

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आये।

बोधा चिल्लाया- ” क्या है?”

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि ‘एक हड़का हुआ कुत्ता आया था¸ मार दिया’और¸ औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था और¸ और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे।

अचानक आवाज आई ‘वाह गुरूजी का खालसा, वाह गुरूजी की फतह!!’और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।

एक किलकारी और – ‘अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरूजी दी फतह! वाह गुरूजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरूख!!!’और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव -भारी घाव लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था¸ ऐसा चाँद¸ जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्‌ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे¸ इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा – ” तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।”

” और तुम?”

” मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ, वजीरासिंह मेरे पास है ही।”

“अच्छा, पर..”

“बोधा गाड़ी पर लेट गया, भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।”

गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा- ” तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा, साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?”

“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।”

गाड़ी के जाते लहना लेट गया। – ” वजीरा पानी पिला दे¸ और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।”

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।

लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब ‘धत्‌’ कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा – ” हाँ, कल हो गई¸ देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू!’सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?”

” वजीरासिंह¸ पानी पिला दे।”

पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी¸ या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है¸ फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।

जब चलने लगे¸ तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला-” लहना¸ सूबेदारनी तुमको जानती हैं¸ बुलाती हैं। जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर ‘मत्था टेकना’कहा। आसीस सुनी। लहनासिंह चुप।

मुझे पहचाना?”

“नहीं।”

‘तेरी कुड़माई हो गई -धत्‌ -कल हो गई – देखते नहीं¸ रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में.. ‘

भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।

‘वजीरा¸ पानी पिला’- ‘उसने कहा था।’

स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है – ” मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है¸ लायलपुर में जमीन दी है¸ आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों न बना दी¸ जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए¸ पर एक भी नहीं जीया।’ सूबेदारनी रोने लगी। ‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे¸ आप घोड़े की लातों में चले गए थे¸ और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।’

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।

‘वजीरासिंह¸ पानी पिला दे’ – ‘उसने कहा था।’

लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है¸ तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा¸ फिर बोला – “कौन ! कीरतसिंह?”

वजीरा ने कुछ समझकर कहा- ” हाँ।”

” भइया¸ मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसे ही किया।

“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस¸ अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था¸ उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”

वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।

कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा – फ्रान्स और बेलजियम — 68 वीं सूची — मैदान में घावों से मरा – नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

– चंद्रधर शर्मा गुलेरी

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CLARESSA SHIELDS BIOGRAPHY IN HINDI

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   क्लेरिसा शील्ड  

(अमेरिकी महिला बॉक्सर)

 

तब मैं महज पांच साल की थी। 

मां के दोस्त ने मेरे साथ बलात्कार किया।

 मैंने मां से शिकायत की, पर उन्होंने मेरा यकीन नहीं किया।

मेरे अंदर बहुत गुस्सा था, और दुख भी।

 लेकिन बॉक्सिंग के रिंग में जाकर मेरा सारा दर्द और गुस्सा खत्म हो गया।

 
बचपन में कभी उन्हें अपने परिवार का प्यार नहीं मिला। दो साल की थीं, जब पापा को एक अपराध के मामले में सात साल की सजा हो गई। मां के जीवन में अचानक कड़वाहट आ गई। वह शराब की आदी हो गईं। अगले तीन साल मुश्किल से बीते। घर में तंगी थी। परिवार में उनके अलावा तीन और भाई-बहन थे। किसी को भरपेट खाना नहीं मिल पाता था। कई बार क्लेरिसा बिना कुछ खाए ही सो जाती थीं।क्लेरिसा अब पांच साल की हो चुकी थीं। इस बीच मां की एक युवक से दोस्ती हो गई। वह अक्सर उनके घर आया करता था। क्लेरिसा को उस युवक से बहुत डर लगता था।

एक दिन मां काम से बाहर गई हुई थीं। क्लेरिसा घर पर अकेली थीं। मां का दोस्त अचानक घर पर आ गया। उसे देखकर क्लेरिसा सहम गईं। घर से बाहर भागने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुईं। फिर एक दिन दिल दहलाने वाली घटना हुई। युवक ने उनके साथ बलात्कार किया। वह चीखती रहीं, पर कोई नहीं आया मदद को। वह खूब रोईं।

सोचा, मां लौटकर आएंगी, तो उनसे शिकायत करूंगी। वह इस आदमी को जरूर सबक सिखाएंगी।शाम को मां घर लौटीं, तो नन्ही क्लेरिसा दौड़कर उनके गले से लिपट गईं। खूब रोईं और उन्हें उनके दोस्त की हरकत के बारे में बताया। पर यह क्या? मां ने उन्हें ङिाड़क दिया। उन्हें अपनी बेटी की बात पर यकीन नहीं हुआ। मां ने कहा, तुम झूठ बोल रही हो। वह ऐसा नहीं कर सकता। यह सुनकर उनका दर्द और बढ़ गया। फिर उन्होंने मां से जिद की कि मुङो दादी के पास छोड़ दो। दादी उनसे बहुत प्यार करती थीं। वह दादी के घर चली गईं।

पास के स्कूल में पढ़ने लगीं। पर यहां भी मुश्किलों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अश्वेत होने की वजह से स्कूल में उनका मजाक उड़ाया जाता। क्लेरिसा कहती हैं, मैं काली थी और पतली भी। श्वेत बच्चों को मेरी शक्ल पसंद नहीं थी। वे मुङो चिढ़ाते थे। खूब रोना आता था मुङो।क्लेरिसा बहुत दुखी थीं। मन में गुस्सा था। कई बार सोचतीं, यह सब मेरे साथ क्यों हो रहा है? मां के प्रति भी उनके अंदर नाराजगी थी। अब स्कूल के बच्चों से भी चिढ़ होने लगी थी।

फिर उन्होंने इस दुख से निपटने का तरीका खोज लिया। अब जब भी उन्हें किसी पर गुस्सा आता, वह अपनी डायरी में दिल की बातें लिख देतीं। क्लेरिसा बताती हैं, मैंने डायरी से दोस्ती कर ली थी। अगर मैं किसी को कोसना चाहती या किसी पर गुस्सा करना चाहती, तो वह सब अपनी डायरी में बयां कर देती। ऐसा करने से मेरा मन हल्का हो जाता।

बात वर्ष 2004 की है। अब वह नौ साल की हो चुकी थीं। पापा सात साल की सजा पूरी करके घर लौट आए। पापा ने बताया कि उन्हें बॉक्सिंग का शौक था, पर हालात कुछ ऐसे थे कि वह कभी प्रोफेशनल बॉक्सर नहीं बन पाए। पापा उन्हें अपने संग बॉक्सिंग क्लब ले गए। वहां उन्होंने बॉक्सरों को मुक्केबाजी करते देखा। उन्हें अच्छा लगा। पापा ने उन्हें महान बॉक्सर मोहम्मद अली के बारे में बताया।यह सब सुनकर क्लेरिसा के मन में आया कि क्यों न मैं भी बॉक्सर बन जाऊं। पापा से कहा कि मैं बॉक्सिंग की ट्रेनिंग लेना चाहती हूं। वह भड़क गए। उन्होंने कहा कि यह लड़कियों का खेल नहीं है।

क्लेरिसा बताती हैं, पापा ने कहा कि मैं तुम्हारे चेहरे पर चोट के निशान नहीं देखना चाहता। बॉक्सिंग में बड़े खतरे हैं, तुम इससे दूर रहो। बात टल गई। इस मामले में दादी ने उनका साथ दिया। आखिरकार एक साल बाद बात बन गई। बॉक्सिंग एकेडमी में उनका दाखिला हो गया। इस दौरान उन्होंने खान-पान के अलावा फिटनेस पर खूब मेहनत की। ट्रेनिंग के दौरान उनके सामने सबसे बड़ी दिक्कत थी रहने की। कभी चाची के घर रहने गईं, तो कभी किसी सहेली के घर पर ठिकाना खोजा। पर हिम्मत नहीं हारी। इस बीच उन्होंने कई खिताब अपने नाम किए।

पूरे अमेरिका में उनकी चर्चा होने लगी। बॉक्सिंग रिंग मे मुक्केबाजी करते समय उन्हें बड़ा मजा आता। क्लेरिसा कहती हैं, बॉक्सिंग करते समय मेरे अंदर का सारा गुस्सा और पुराना दर्द बाहर आ जाता था। मेरे गुस्से ने ही मुङो सफल बॉक्सर बनाया। उन्हें सबसे बड़ी कामयाबी मिली वर्ष 2012 में। तब वह 17 साल की थीं। लंदन ओलंपिक में उन्होंने गोल्ड मेडल जीता।

इतनी कम उम्र में बॉक्सिंग में ओलंपिक का गोल्ड मेडल जीतने वाली वह पहली अमेरिकी महिला बॉक्सर बनीं। मेडल जीतकर जब क्लेरिसा घर पहुंचीं, तो उनका शानदार स्वागत हुआ। उनके शहर फ्लिंट में बाकायदा परेड निकाली गई। पूरे अमेरिका में उनकी चर्चा होने लगी।समय के साथ उनके अंदर की कड़वाहट कम हो गई। बॉक्सिंग से होने वाली कमाई से वह परिवार की मदद करने लगीं। मां और छोटे भाई-बहनों को उन्होंने सहारा दिया। क्लेरिसा कहती हैं, मैंने बचपन में बहुत दुख देखे। मैंने टूटे परिवार का दर्द सहा है। अब मैं चाहती हूं कि मेरा परिवार खुश रहे। वर्तमान में क्लेरिसा रियो ओलंपिक में शिरकत कर रही हैं। उन्हें पूरा यकीन है कि इस बार भी वह अपने देश के लिए मेडल जरूर जीतेंगी।

साभार- हिंदुस्तान  अख़बार
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PRARTHNA THOMBARE BIOGRAPHY IN HINDI

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 प्रार्थना थोम्बरे (PRATHNA THOMBARE )
 
(टेनिस खिलाडी )

महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में एक छोटा सा कस्बा है बार्शी। प्रार्थना अपने मम्मी-पापा और दादाजी के संग यहीं रहती थीं। उन दिनों मोहल्ले के किसी घर में टीवी नहीं था। कुछ ही घरों में बिजली थी। कस्बे में एक पुराना टेनिस कोर्ट था। कुछ लोग रोजाना शाम को शौकिया खेलने आया करते थे।दादा जी को टेनिस का बड़ा शौक था। वह अक्सर शाम को वहां जाते थे। नन्ही प्रार्थना को जब भी मौका मिलता, दादा जी का हाथ पकड़कर चल पड़ती थीं उनके संग।

उन दिनों आस-पास के इलाके में कोई बड़ा टेनिस खिलाड़ी नहीं था। न ही इस खेल के बारे में परिवार में कोई खास चर्चा होती थी। मगर प्रार्थना को टेनिस में मजा आने लगा था। वह टेनिस कोर्ट में खेलना चाहती थीं, पर वहां अक्सर बड़े बच्चों का कब्जा रहता था, इसलिए उन्हें मौका नहीं मिलता था। पर दादा जी ने पोती को मायूस नहीं होने दिया। उन्होंने प्रार्थना को घर में ही टेनिस सिखाया।इस बीच जब स्कूल में पाठ्यक्रम से इतर गतिविधि चुनने का मौका आया, तो प्रार्थना ने टेनिस को चुना। जबकि उनके साथ की ज्यादातर लड़कियों ने डांस या पेंटिंग सीखना पसंद किया।

जल्द ही वह स्कूल की टेनिस टीम में शामिल हो गईं। प्रार्थना कहती हैं, शुरुआत में टेनिस मेरे लिए बस एक शौक था। बचपन में मैंने किसी टेनिस खिलाड़ी का नाम तक नहीं सुना था। घर में टीवी नहीं था, इसलिए कभी टेनिस मैच भी नहीं देखा था। टेनिस टीम में शामिल होने के बाद पहली बार मुङो किसी ने सानिया मिर्जा के बारे में बताया।शुरुआत में परिवार को लगा कि बच्ची शौकिया टेनिस खेल रही है। आगे चलकर तो इसे करियर के लिहाज से गणित और विज्ञान पर ही जोर देना होगा। मां ने हमेशा पढ़ाई पर जोर दिया। मगर प्रार्थना के लिए अब टेनिस जुनून बन चुका था।

दस साल की उम्र में उन्होंने स्कूल की तरफ से अंडर 14 टीम में खेलते हुए नेशनल टूर्नामेंट में गोल्ड मेडल हासिल किया। परिवार के लिए उनकी यह कामयाबी चौंकाने वाली थी। टेनिस कोच ने कहा कि यह लड़की बेहतरीन टेनिस खिलाड़ी बनेगी। इसे टेनिस में ही करियर बनाना चाहिए। तब पापा गुलाब राय को महसूस हुआ कि बेटी को प्रोफेशनल ट्रेनिंग दिलवानी होगी।बार्शी कस्बे में टेनिस ट्रेनिंग के लिए कोई एकेडमी नहीं थी। पापा सोलापुर में सिविल इंजीनियर थे। उन्हें पता चला कि सोलापुर में टेनिस एकेडमी है। एकेडमी उनके घर से करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर थी। दो घंटे लगते थे वहां पहुंचने में। मां प्रार्थना को सुबह पांच बजे जगा देती थीं। पापा उनसे पहले ही जग जाते थे। बेटी को स्कूटर पर पीछे बिठाते और चल पड़ते एकेडमी की तरफ। एकेडमी पहुंचने के बाद प्रार्थना ट्रेनिंग में व्यस्त हो जातीं और पापा अपने ऑफिस के काम निपटाते। शाम को ऑफिस से निकलने के बाद बेटी को एकेडमी से लेते और वापस बार्शी की ओर चल पड़ते।

अक्सर प्रार्थना को पापा का इंतजार करना पड़ता था।इस फालतू समय में वह अतिरिक्त अभ्यास करती थीं। यह सिलसिला करीब दो साल तक चला। प्रार्थना कहती हैं, पापा ने मेरे लिए बहुत मेहनत की। वह रोजाना मुङो लेकर 70 किलोमीटर का सफर तय करते। मैं थक जाती थी, पर पापा ने मुङो कभी हताश नहीं होने दिया।दो साल बाद पापा को लगा कि एकेडमी और घर के बीच दूरी की वजह से बेटी का काफी समय बर्बाद होता है। इसलिए उन्होंने परिवार के संग सोलापुर में रहने का फैसला किया। प्रार्थना कहती हैं, छह घंटे की ट्रेनिंग और कम से कम चार घंटे आने-जाने में खर्च होते थे। काफी थकावट हो जाती थी। तब हमारे पास इतने पैसे नहीं होते थे कि मैं सोलापुर में हॉस्टल लेकर रह पाती। सोलापुर में आने के बाद जीत का सिलसिला चल पड़ा। एक के बाद एक टूर्नामेंट जीते।

अब वह अंतरराष्ट्रीय मुकाबले के लिए तैयार थीं।पिछले साल मिर्जा टेनिस एकेडमी में ट्रेनिंग के लिए वह हैदराबाद चली गईं। एक साल खूब मेहनत की। कई अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भारत का परचम लहराया। उन्होंने अब तक तीन आईटीएफ और 17 डबल्स टाइटल जीते हैं। 2014 के एशियाड में उन्हें कांस्य पदक मिला। साउथ एशियन गेम्स में उन्होंने गोल्ड मेडल अपने नाम किया। डबल्स मुकाबले में उन्हें दुनिया की नंबर वन खिलाड़ी सानिया मिर्जा के साथ खेलने का मौका मिला। प्रार्थना कहती हैं, सानिया नंबर वन हैं। उनके साथ खेलना बहुत बड़ी बात है। उनसे मुङो काफी मदद मिली है।

मिर्जा एकेडमी में जाने के बाद उनके खेलने का अंदाज बदल गया। समय के साथ आत्मविश्वास बढ़ता गया। प्रार्थना बताती हैं, छोटे कस्बे में ट्रेनिंग का स्तर उतना बढ़िया नहीं था। सानिया के पिता इमरान मिर्जा मेरे कोच हैं। उन्होंने मेरे खेल को एकदम से बदल दिया। पहले मैं बचाव मुद्रा में खेलती थी, उन्होंने मुङो आक्रामक शॉट खेलना सिखाया।पिछले महीने रियो ओलंपिक टीम का एलान हुआ। खिलाड़ियों में उनका नाम भी शामिल है। 22 साल की प्रार्थना अब सानिया मिर्जा के संग ओलंपिक के डबल्स मुकाबले में हिस्सा लेंगी। प्रार्थना कहती हैं, सानिया मेरी रोल मॉडल रही हैं। ओलंपिक में उनके साथ मैं खेलूंगी, यह यकीन नहीं होता। कहीं यह सपना तो नहीं है।

साभार – हिंदुस्तान अख़बार

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RENUKA YADAV BIOGRAPHY IN HINDI

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रेणुका यादव (RENUKA YADAV )

(हॉकी  खिलाडी)

मेरी राह कभी आसान नहीं रही।

 मैं गरीब परिवार से आती हूं, 

जहां दो वक्त के खाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है।

 खुशनसीब हूं कि माता-पिता ने कभी मुङो खेलने या पढ़ाई से नहीं रोका।

छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में पली-बढ़ी रेणुका का परिवार बहुत गरीब था। रेणुका की मां दूसरों के घरों में झाड़-पोंछा लगाने का काम करती थीं। पिता मजदूरी करके रोजी-रोटी कमाते थे। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता था। माता-पिता खुद कभी स्कूल नहीं गए, मगर मन में बेटी को बेहतर जिंदगी देने की ख्वाहिश थी। पापा मोतीलाल बिल्कुल नहीं चाहते थे कि बेटी बड़ी होकर मां की तरह दूसरों के घरों में काम करे। इसलिए उन्हें स्कूल भेजा।

राजनांदगांव में बेटियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं था। परिवार के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि बेटी को कस्बे के प्राइवेट स्कूल में भेज सकें। लिहाजा पास के प्राइमरी स्कूल में रेणुका का दाखिला हो गया। कक्षा एक से पांच तक रेणुका ने उसी स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद महारानी हाई स्कूल में पढ़ने लगीं। वह पढ़-लिखकर नौकरी करना चाहती थीं। रेणुका शहर के बड़े कॉलेज में पढ़ने के सपने देखने लगी थीं। मगर घर की माली हालत अच्छी न होने की वजह से कई बार लगा कि पढ़ाई बीच में ही छूट जाएगी। इस बीच पिता ने दूध बेचने का काम शुरू कर दिया। पापा की मदद के लिए रेणुका भी घर-घर जाकर दूध बेचने लगीं।
स्कूल जाने से पहले वह सुबह-सुबह पापा की साइकिल पर सवार होकर दूध बेचने जातीं और लौटकर फटाफट स्कूल के लिए निकल पड़तीं। उन दिनों वह कक्षा सात में पढ़ रही थीं। स्कूल के खेल टीचर ने उनसे पूछा, क्या तुम हॉकी खेलना चाहोगी? रेणुका के लिए यह खेल नया था, मगर उन्होंने बिना सोचे ‘हां’ कह दिया। शुरुआत में दिक्कत आई, लेकिन कुछ दिनों के अभ्यास के बाद मजा आने लगा। उनके खेल टीचर भूषण राव कहते हैं- रेणुका के अंदर शुरू से लगन थी। जब उसने हॉकी खेलनी शुरू की, तो वह खेल के प्रति भी गंभीर हो गई। जल्द ही स्कूल की हॉकी टीम में उनका चयन हो गया। जिले के स्कूल टूर्नामेंट में उनका प्रदर्शन शानदार रहा। खुश होकर खेल टीचर ने उन्हें हॉकी स्टिक खरीदकर दी। रेणुका बताती हैं- पहली बार नई हॉकी स्टिक पाकर मैं बहुत खुश हुई। दौड़ते हुए घर गई और पापा को स्टिक से खेलकर दिखाया।

दसवीं पास करने के बाद ग्वालियर की गल्र्स हॉकी एकेडमी में उनका चयन हो गया। शुरू में पापा बेटी को बाहर भेजने के नाम पर घबराए। सवाल था, बेटी घर से दूर अकेली कैसे रहेगी? पर जब उन्हें पता चला कि रेणुका की तरह दूसरी लड़कियां भी बाहर रहकर ट्रेनिंग लेती हैं, तो फिर वह राजी हो गए। उनकी ट्रेनिंग का सारा खर्च खेल एकेडमी ने उठाया। रेणुका कहती हैं- मैं शुक्रगुजार हूं अपने गुरु भूषण राव का, जिन्होंने मुङो हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया। अगर वह नहीं होते, तो मैं यह मुकाम कभी नहीं हासिल कर पाती। ग्वालियर पहुंचने के बाद रेणुका एक नई दुनिया से रूबरू हुईं।
यहां ट्रेनिंग की बेहतरीन सुविधाएं थीं। काफी अनुभवी कोच मिले। पहली बार उन्हें पता चला कि खेल में अच्छे प्रदर्शन के लिए फिटनेस पर ध्यान देना कितना जरूरी है। अब उनकी दिनचर्या बदल चुकी थी। खान-पान और ट्रेनिंग को लेकर सख्त नियम थे। रेणुका कहती हैं- ग्वालियर पहुंचने के बाद मैंने महसूस किया कि मैं हॉकी के लिए ही बनी हूं। मेरे लिए इससे बेहतर कोई और खेल नहीं हो सकता। एकेडमी में राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आए खिलाड़ियों के संग खेलने का मौका मिला। अपनी कमियों और दूसरे की खूबियों को समझते हुए रेणुका आगे बढ़ने लगीं।
समय के साथ उनका प्रदर्शन बेहतर होता गया।अब हॉकी ही उनका जीवन था। तड़के सुबह उठना, लंबी दौड़ लगाना, व्यायाम करना व फिर अभ्यास करना। यही उनकी दिनचर्या थी। घर पर बात करने के लिए फोन नहीं था। पापा दो-तीन महीने में एक बार मिलने आ जाते थे। हर बार यही कहते- बेटा, तुम घर की चिंता मत करना। बस, अपने खेल पर ध्यान दो।
आमतौर पर खिलाड़ी दिन में दो बार अभ्यास करते थे, पर रेणुका के अंदर अजीब सी धुन थी। तय समय के अलावा जब भी मौका मिलता, वह अभ्यास करने लगतीं। सफलता का सफर शुरू हो चुका था। पहले राष्ट्रीय और फिर अंतरराष्ट्रीय मैचों में लगातार जीत हासिल की। समय-समय पर मेडल जीतने की खबरें राजनांदगांव तक पहुंचती रहतीं। अब वह इलाके की सेलिब्रिटी बिटिया बन चुकी थीं। रेणुका कहती हैं- मेरी राह कभी आसान नहीं रही। मैं गरीब परिवार से आती हूं, जहां दो वक्त के खाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है।
खुशनसीब हूं कि माता-पिता ने कभी मुङो खेलने या पढ़ाई से नहीं रोका। घर से दूर रहकर भी मन में हर पल मां-पापा की चिंता बनी रहती थी। जब खेल कोटे से रेणुका को मुंबई सेंट्रल रेलवे में टिकट कलेक्टर की नौकरी मिली, तो वह परिवार की आर्थिक मदद करने लगीं। हाल में उन्हें ओलंपिक के लिए भारतीय महिला हॉकी टीम में शामिल किया गया है। वह ओलंपिक में हिस्सा लेने वाली छत्तीसगढ़ की पहली महिला खिलाड़ी हैं। रेणुका कहती हैं- ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करना गर्व की बात है। मैं अपने देश के लिए मेडल जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ंगी।

साभार -हिंदुस्तान अख़बार

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LAKSHMI RANI MANJHI BIOGRAPHY IN HINDI

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 लक्ष्मी रानी मांझी (LAKSHAMI RANI MANJHI )

(तीरंदाजी)



झारखंड के जमशेदपुर जिले में एक गांव है, नारवा। रानी इसी गांव में पली-बढ़ीं। चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं वह। परिवार के पास खेती नहीं थी, लिहाजा पापा कोयले की खदान में मजदूरी करने लगे। मुश्किल से परिवार का गुजारा हो पाता था। मां पद्मिनी मैट्रिक पास थीं। उन्होंने रानी को पढ़ाने का फैसला किया। पास के सरकारी स्कूल में उनका दाखिला हो गया। रानी का स्कूल जाना बड़ी बात थी, क्योंकि उन दिनों गांव की एक भी लड़की स्कूल नहीं जाती थी। रानी स्कूल जाने लगीं। कुछ दिनों के बाद छोटी बहन ज्योति का भी उसी स्कूल में दाखिला हो गया।

मां ने तय कर लिया था कि चाहे जितनी मुश्किलें आएं, वह अपने चारों बच्चों को पढ़ाएंगी। गांव की बाकी महिलाओं को पद्मिनी की यह जिद समझ में नहीं आती थी। वे अक्सर पूछती थीं, आखिर बेटियों की पढ़ाई पर पैसा खर्च करने की क्या जरूरत है? गांव वाले चाहते थे कि बाकी लड़कियों की तरह मांझी परिवार की बेटियां भी खेती-किसानी में लगें। पर मां ने ऐसा नहीं होने दिया। रानी अब आठ साल की हो चुकी थीं। बच्चों की पढ़ाई के लिए पापा दिन-रात मेहनत कर रहे थे। अक्सर ओवरटाइम करना पड़ता था। रानी जानती थीं कि पापा को खदान के अंदर जाकर काम करना पड़ता है। इस काम में बहुत जोखिम है। आए दिन खदान में हादसे के किस्से सुनने को मिलते थे। उन्हें पापा की बड़ी फिक्र रहती थी। हमेशा डर लगा रहता था, कहीं उन्हें कुछ हो न जाए। रानी ने मन में तय कर लिया था कि बड़ी होकर नौकरी करूंगी और पापा को खदान में काम करने से रोक दूंगी। 

         पद्मिनी बताती हैं, रानी शुरू से ही बहुत समझदार है। वह पापा की लाड़ली है। वह चाहती थी कि पापा खदान में काम करने की बजाय कोई और काम करें, जहां उनकी जान को खतरा न हो। रानी अब कक्षा नौ में पहुंच चुकी थीं। पढ़ाई के अलावा फुटबॉल में भी उनकी दिलचस्पी थी। वह और उनकी छोटी बहन ज्योति अक्सर स्कूल के मैदान में फुटबॉल खेला करती थीं। एक दिन कुछ खेल अधिकारियों की टीम उनके स्कूल पहुंची। टीम के लोग रानी की कक्षा में भी गए। उनके साथ तीरंदाजी के राष्ट्रीय कोच धर्मेद्र तिवारी भी थे। उन्होंने बच्चों से पूछा, आप में से कौन तीरंदाजी सीखना चाहेगा? हम आपको तीर चलाना सिखाएंगे। बच्चों को कुछ समझ में नहीं आया। भला स्कूल में तीरंदाजी क्यों सिखाई जा रही है? इससे क्या फायदा होगा? क्लास में सन्नाटा छा गया। किसी बच्चे ने जवाब नहीं दिया।
तभी रानी ने हाथ उठाकर कहा, सर, मैं सीखूंगी तीर चलाना। यह सुनकर कोच बहुत खुश हुए। रानी बताती हैं, तब मैं तीरंदाजी के बारे में कुछ नहीं जानती थी। पता नहीं क्यों, मेरे मन में आया कि शायद इसे सीखने से मुङो कुछ काम मिल जाएगा और मैं पैसे कमाने लगूंगी। और फिर पापा को खतरनाक नौकरी करने से रोक पाऊंगी।घर आकर बताया, मां, मैं तीरंदाजी सीखूंगी। मां ने सोचा कि स्कूल वाले सिखा रहे हैं, तो इसमें कुछ अच्छा ही होगा। ट्रेनिंग शुरू हुई। ट्रेनिंग का सारा खर्च खेल एकेडमी ने उठाया। अब उनका ज्यादातर वक्त घर के बाहर बीतता था। सुबह-शाम ट्रेनिंग और बाकी समय में पढ़ाई।
जल्द ही पूरे गांव में खबर फैल गई कि दिकू मांझी की बेटी तीर-कमान चलाना सीख रही है। पहले जो लोग बेटियों की पढ़ाई को लेकर आपत्ति करते थे, अब वे कहने लगे कि बेटी को पढ़ाना तो ठीक है, पर खेल-कूद में समय बर्बाद करने से क्या फायदा? पद्मिनी कहती हैं, गांव की महिलाओं को लगता था कि खेल-कूद से लड़कियां बिगड़ सकती हैं। उन्हें रानी का तीरंदाजी सीखना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, पर मैंने कभी किसी की परवाह नहीं की। मैं हमेशा चाहती थी कि मेरे बच्चे कुछ बड़ा काम करें। रानी ने मेरा सपना पूरा किया है। ट्रेनिंग के दौरान रानी ने खूब मेहनत की। शोहरत बढ़ने लगी। उन्होंने कभी अपने ऊपर हार-जीत का दबाव हावी नहीं होने दिया। वह बिंदास खेलीं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में ढेर सारे मेडल जीते। 

      2015 में डेनमार्क में आयोजित विश्व तीरंदाजी चैंपियनशिप में रजत पदक जीता। फिर उन्हें खेल कोटे से रेलवे में नौकरी मिल गई। पापा की तरक्की हो गई। खदान में मजदूरी का काम छोड़कर वह एक यूरेनियम फैक्टरी में काम करने लगे। छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई का खर्च रानी उठाने लगीं। पद्मिनी कहती हैं, रानी मेरी बेटी नहीं, बेटा है। सच कहूं, तो वह बेटे से बढ़कर है। उसे हम सबकी फिक्र रहती है। वह अपने छोटे भाई-बहनों को पढ़ाना चाहती है। मुङो गर्व है कि मैं रानी की मां हूं। खेल में व्यस्त होने के बावजूद रानी ने पढ़ाई नहीं छोड़ी। इस समय वह इग्नू से बीए की पढ़ाई कर रही हैं। छोटी बहन ज्योति बताती है, दीदी बहुत मेहनती हैं। वह सुबह से शाम तक प्रैक्टिस करती थीं बिना थके, बिना रुके। मैंने उन्हें कभी किसी चीज के लिए शिकायत करते नहीं देखा। उनके अंदर गजब का जुनून और धैर्य है। हाल में उन्हें रियो ओलंपिक के लिए चुना गया। उनके करियर की यह सबसे बड़ी कामयाबी है। पद्मिनी कहती हैं, ओलंपिक के लिए चुना जाना बहुत बड़ी बात है। रानी ने बहुत मेहनत की है। वह ओलंपिक में मेडल जरूर जीतेगी।

साभार -हिंदुस्तान अख़बार 
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NICE SAYING (PAGE- 3)

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             अच्छी बातें  (NICE THOUGHT)

                                                        

                                     PAGE ————–3

“हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते …..
वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते”
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सबब तलाश करो…..अपने हार जाने का,
किसी की जीत पर रोने से कुछ नहीं होगा..
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लेकर के मेरा नाम मुझे कोसता तो है,
नफरत ही सही, पर वह मुझे सोचता तो है…
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खुद को खुद की खबर न लगे 
कोई अच्छा भी इस कदर न लगे….
आपको देखा है उस नजर से
जिस नजर से आपको नजर न लगे ..
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यूँ तो सिखाने को ज़िन्दगी बहुत कुछ सिखाती है…!!
मगर ,,
झूठी हंसी हँसने का हुनर तो बस मोहब्बत ही सिखाती है…!!
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मैँ कैसा हूँ’ ये कोई नहीँ जानता
मै कैसा नहीँ हूँ’
ये तो शहर का हर शख्स बता सकता है…
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जेबका वजन बढाते हुए
अगर दिलपे वजन बढे….
तो समझ लेना
कि सौदा घाटेका ही है..!
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दुनियाँ की हर चीज ठोकर लगने से टूट जाया करती है दोस्तो…
एक ” कामयाबी ही है जो ठोकर खा के ही मिलती है …!!”
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फटी जेब सी ज़िन्दगी, सिक्को से दिन…
लो आज फिर ..इक गिर कर गुम हो गया..!!
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निग़ाहों में अभी तक दूसरा कोई चेहरा ही नहीं आया.. !!
भरोसा ही कुछ ऐसा था,तेरे लौट आने का…!!
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ख़ुशी तकदीरो में होनी चाहिए,
तस्वीरो में तो हर कोई खुश नज़र आता है…
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नाम छोटा है मगर दील बडा रखता हुँ….¡¡¡
पैसो से इतना अमीर नही….¡¡¡
मगर अपने यारो के गम खरीदने की औकात रखता हु…
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“जो तालाबों पर चौकीदारी करते हैँ.
वो समन्दरों पर राज नहीं कर सकते”..
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जब हो थोड़ी फुरसत, तो अपने मन की बात हमसे कह लेना…….
बहुत खामोश रिश्ते…. 
कभी जिंदा नहीं रहते…….
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दुनिया में रहने के लिये दो ही जगह अच्छी हे,
किसीके ‘दिल’ में या किसीके ‘दुआ’ में.
दिल तो हमारे नसिब नही, 
बस दुवा में याद रखना….
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जुबाँ न भी बोले तो,
मुश्किल नहीं…
फिक्र तब होती है जब…
खामोशी भी बोलना छोड़ दें…।।
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क्यों गरीब समझते हैं हमें ये जहां वाले,
हजारों दर्द की दौलत से मालामाल हैं हम…
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हम रखते है ताल्लुक तो निभाते है जिंदगी भर,
हम से बदले नहीं जाते रिश्ते, लिबासो की तरह.
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अभी मुठ्ठी नहीं खोली है मैंने आसमां सुन ले..
तेरा बस वक़्त आया है मेरा तो दौर आएगा…!!
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मुफ्त मे अहसान न लेना यारों ,,,
दिल अभी ओर भी सस्ते होंगे बाज़ार में …..
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अब समझ लेते हैं, मीठे लफ़्ज़ की कड़वाहटें ,
हो गया है ज़िन्दगी का तजुर्बा थोड़ा बहुत…
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कितने झूठे हो गये है हम,
बच्चपन में अपनों से भी रोज रुठते थे, 
आज दुश्मनों से भी मुस्करा के मिलते है!!
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जो फ़किरी मिजाज रखते हे वो ठोकरो मे भी ताज रखते हे ,
जीनको कल की फ़िकर नही वो मुठ्ठी मे भी आज रखते है ॥
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*छोटे थे तो सब नाम से बुलाते थे
बड़े हुए तो बस काम से बुलाते है!
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ये खामोश मिजाजी तुम्हें जीने नहीं देगी ,,,
इस दुनिया में जीना है तो कोहराम मचा दो।।
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मुझे इतना नीचे भी मत गिराना हे ईश्वर!
कि मैं पुकारूँ और तू सुन ना पाये;
और इतना ऊँचा भी मत उठाना 
कि तू पुकारे और मैं सुन ना पाऊं।
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वो अच्छा है तो अच्छा है,वो बुरा है तो भी अच्छा है,,
दोस्ती के मिजाज़ में, यारों के ऐब नहीं देखे जाते!!
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मुझे लिख कर कही महफूज़ कर लो दोस्तो ..
आपकी यादाश्त से निकलता जा रहा हूँ में !!
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आसमा में मत ढूढ अपने सपनों को,
सपनों के लिए तो जमी जरूरी है.
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सब कुछ मिल जाये तो जीने का क्या मजा,
जीने के लिए एक कमी भी जरूरी है…
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मैं सब जगह हूँ…||
पसंद करने वालों के “दिल” में,
और नापसंद करने वालों के “दिमाग” में…
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जंगल मे जब शेर चैन की निन्द सोता है,
तो कुतो को गलतफहमी हो जाती है
के इस जंगल मे अपना राज है
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ऐ खुदा काश तेरा भी एक खुदा होता तो
तुझे भी ये अहसास होता कि,
दुआ कुबुल ना होने पे कितनी तकलीफ होती है…
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वो दोस्त मेरी नजर में
बहुत माएने रखते है,
वक़्त आने पर सामने
जो मेरे आइने रखते है…
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समंदर के बीच पहुँच कर फ़रेब किया तुमने,
तुम कहते तो सही किनारे पर ही डूब जाते हम…
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दर्द तो अकेले ही सहते हैं सभी.
भीड़ तो बस फ़र्ज़ अदा करती है….
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साला किस्मत भी ऐसी है की जिस दिन मेरा सिक्का चलेगा न,
ठीक उसी दिन सरकार सिक्कों पे रोक लगा देगी।
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‘सब्र’ एक ऐसी ‘सवारी’ है जो अपने ‘सवार’ को कभी गिरने नहीं देती;
ना किसी के ‘क़दमों’ में और ना किसी के नज़रों ‘में’।
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बचपना अब भी वही है हममें ….
बस ज़रूरतें बड़ी हो गयीं हैं ….
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झुक के जो आप से मिलता होगा,
उस का क़द आप से ऊँचा होगा…
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नही हो सकता कद
तेरा ऊँचा किसी भी माँ से….
ए खुदा…..!! 
तू जिसे आदमी बनाता है,
वो उसे इन्सान बनाती है….!!
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“उम्र भर चलते रहे …मगर कंधो पे आये कब्र तक,
बस कुछ कदम के वास्ते गैरों का अहसान हो गया……!!
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इंसान बिकता है …
कितना महँगा या सस्ता ये
उसकी मजबूरी तय करती है…!
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चलो आज फिर थोड़ा मुस्कुराया जाएँ,
बिना माचिस के कुछ लोगो को जलाया जाएँ…
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अजब दस्तूर है ज़माने का,
, लोग यहाँ पूरी इमानदारी से अपना ईमान बेचते हैं,,
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कितना भी चमके,
पीठ पीछे हर आईना काला ही होता है..!!
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कर सको तो किसी को खुश करो
दुःख देते तो हजारों को देखा है….
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नहीं चाहिए वो जो मेरी किस्मत में नहीं ,
भीख मांग कर जीना मेरी फितरत में नहीं..!!
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खेल ताश का हो या ज़िन्दगी का
अपना इक्का तभी दिखाना चाहिए
जब सामने वाला बादशाह निकाले..
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जिंदगी बस इतना अगर दे दे तो काफी है… के सर
से चादर न हटे , और पांव भी चादर में रहे…!!!
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जीतने वाला ही नहीं,
बल्कि ‘कहाँ हारना है’
ये जानने वाला भी सिकंदर होता है..
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चीजों की कीमत मिलने से पहले होती है,
और इंसानों की कीमत खोने के बाद…!
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लोग रोज नसें काटते हैं ….
प्यार साबित करने के लिये,
पर कोई, सूई भी नही चुभने देता….
“रक्तदान” करने के लिये…..
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सिखा दिया दुनिया ने मुझे ,
अपनो पर भी शक करना ।
मेरी फितरत में तो गैरों पर भी भरोसा करना था ! …
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खरीदने निकला था थोड़ी ख़ुशी,
ज्यादा खुश तो वो मिले जिनकी जैबें खाली थी !!
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बेशक पलट के देख वो बीता कल है…
पर बढ़ना तो उधर ही है जहाँ आने वाला कल है..
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आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है,
भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है.
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आंखे कितनी भी छोटी क्यु ना हो,
ताकत तो उसमे सारे आसमान देखने
कि होती हॆ..!
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गुजर जायेगा ये दौर भी,जरा सा इत्मिनान तो रख ।
जब खुशिया ही नहीं ठहरी, तो गम की क्या बिसात ।।
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खामोशी भी बहुत कुछ कहती है…
पर कान नही दिल लगाकर सुनना पड़ता है…!
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