गुनाहों  के  देवता (उपन्यास) – भाग 6

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1948

गुनाहों  के  देवता – धर्मवीर भारती

 भाग 6

 

”अच्छा, अच्छा, भइया बइठो, तू तो एक दिन अउर आये रह्यो, बी. ए. में पढ़त हौ सुधा के संगे।”

”नहीं बुआजी, मैं रिसर्च कर रहा हूँ।”

”वाह, बहुत खुशी भई तोको देख के-हाँ तो सुकुल!” वे अपने भाई से बोलीं, ”फिर यही ठीक होई। बिनती का बियाह टाल देव और अगर ई लड़का ठीक हुई जाय तो सुधा का बियाह अषाढ़-भर में निपटाय देव। अब अच्छा नाहीं लागत। ठूँठ ऐसी बिटिया, सूनी माँग लिये छररावा करत है एहर-ओहर!” बुआ बोलीं।

”हाँ, ये तो ठीक है।” डॉ. शुक्ला बोले, ”मैं खुद सुधा का ब्याह अब टालना नहीं चाहता। बी.ए. तक की शिक्षा काफी है वरना फिर हमारी जाति में तो लड़के नहीं मिलते। लेकिन ये जो लड़कातुम बता रही हो तो घर वाले कुछ एतराज तो नहीं करेंगे! और फिर, लड़का तो हमें अच्छा लगा लेकिन घरवाले पता नहीं कैसे हों?”

”अरे तो घरवालन से का करै का है तोको। लड़कातो अलग है, अपने-आप पढ़ रहा है और लड़की अलग रहिए, न सास का डर, न ननद की धौंस। हम पत्री मँगवाये देइत ही, मिलवाय लेव।”

डॉ. शुक्ला ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

”तो फिर बिनती के बारे में का कहत हौ? अगहन तक टाल दिया जाय न?” बुआजी ने पूछा।

”हाँ हाँ,” डॉ. शुक्ला ने विचार में डूबे हुए कहा।

”तो फिर तुम ही इन जूतापिटऊ, बड़नक्कू से कह दियौ; आय के कल से हमरी छाती पर मूँग दलत हैं।” बुआजी ने चन्दर की ओर किसी को निर्देशित करते हुए कहा और चली गयीं।

चन्दर चुपचाप बैठा था। जाने क्या सोच रहा था। शायद कुछ भी नहीं सोच रहा था! मगर फिर भी अपनी विचार-शून्यता में ही खोया हुआ-सा था। जब डॉ. शुक्ला उसकी ओर मुड़े और कहा, ”चन्दर!” तो वह एकदम से चौंक गया और जाने किस दुनिया से लौट आया। डॉ. साहब ने कहा, ”अरे! तुम्हारी तबीयत खराब है क्या?”

”नहीं तो।” एक फीकी हँसी हँसकर चन्दर ने कहा।

”तो मेहनत बहुत कर रहे होगे। कितने अध्याय लिखे अपनी थीसिस के? अब मार्च खत्म हो रहा है और पूरा अप्रैल तुम्हें थीसिस टाइप कराने में लगेगा और मई में हर हालत में जमा हो जानी चाहिए।”

”जी, हाँ।” बड़े थके स्वर में चन्दर ने कहा, ”दस अध्याय हो ही गये हैं। तीन अध्याय और होने हैं और अनुक्रमणिका बनानी है। अप्रैल के पहले सप्ताह तक खत्म हो ही जायेगा। अब सिवा थीसिस के और करना ही क्या है?” एक बहुत गहरी साँस लेते हुए चन्दर ने कहा और माथा थामकर बैठ गया।

”कुछ तबीयत ठीक नहीं है तुम्हारी। चाय बनवा लो! लेकिन सुधा तो है नहीं, न महराजिन है।” डॉक्टर साहब बोले।

अरे सुधा, सुधा के नाम पर चन्दर चौंक गया। हाँ, अभी वह सुधा के ही बारे में सोच रहा था, जब बुआजी बात कर रही थीं। क्या सोच रहा था। देखो…उसने याद करने की कोशिश की पर कुछ याद ही नहीं आ रहा था, पता नहीं क्या सोच रहा था। पता नहीं था…कुछ सुधा के ब्याह की बात हो रही थी शायद। क्या बात हो रही थी…?

”कहाँ गयी है सुधा?” चन्दर ने पूछा।

”आज शायद साबिर साहब के यहाँ गयी है। उनकी लड़की उनके साथ पढ़ती है न, वहीं गयी है बिनती के साथ।”

”अब इम्तहान को कितने दिन रह गये हैं, अभी घूमना बन्द नहीं हुआ उनका?”

”नहीं, दिन-भर पढ़ने के बाद उठी थी, उसके भी सिर में दर्द था, चली गयी। घूम-फिर लेने दो बेचारी को, अब तो जा ही रही है।” डॉ. शुक्ला बोले, एक हँसी के साथ जिसमें आँसू छलके पड़ते थे।

”कहाँ तय हो रही है सुधा की शादी?”

”बरेली में। अब उसकी बुआ ने बताया है। जन्मपत्री दी है मिलवा लो, फिर तुम जरा सब बातें देख लेना। तुम तो थीसिस में व्यस्त रहोगे; मैं जाकर लड़का देख आऊँगा। फिर मई के बाद जुलाई तक सुधा का ब्याह कर देंगे। तुम्हें डॉक्टरेट मिल जाए और यूनिवर्सिटी में जगह मिल जाए। बस हम तो लड़का-लड़की दोनों से फारिग।” डॉ. शुक्ला बहुत अजब-से स्वरों में बोले।

चन्दर चुप रहा।

”बिनती को देखा तुमने?” थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने पूछा।

”हाँ, वही न जिनको डाँट रही थीं ये उस दिन?”

”हाँ, वही। उसके ससुर आये हुए हैं; उनसे कहना है कि अब शादी अगहन-पूस के लिए टाल दें। पहले सुधा की हो जाए, वह बड़ी है और हम चाहते हैं कि बिनती को तब तक विदुषी का दूसरा खंड भी दिला दें। आओ, उनसे बात कर लें अभी।” डॉ. शुक्ला उठे। चन्दर भी उठा।

और उसने अन्दर जाकर बिनती के ससुर के दिव्य दर्शन प्राप्त किये। वे एक पलँग पर बैठे थे, लेकिन वह अभागा पलँग उनके उदर के ही लिए नाकाफी था। वे चित पड़े थे और साँस लेते थे तो पुराणों की उस कथा का प्रदर्शन हो जाता था कि धीरे-धीरे पृथ्वी का गोला वाराह के मुँह पर कैसे ऊपर उठा होगा। सिर पर छोटे-छोटे बाल और कमर में एक अँगोछे के अलावा सारा शरीर दिगम्बर। सुबह शायद गंगा नहाकर आये थे क्योंकि पेट तक में चन्दन, रोली लगी हुई थी।

डॉ. शुक्ला जाकर बगल में कुर्सी पर बैठ गये; ”कहिए दुबेजी, कुछ जलपान किया आपने?”

पलँग चरमराया। उस विशाल मांस-पिंड में एक भूडोल आया और दुबेजी जलपान की याद करके गद्गद होकर हँसने लगे। एक थलथलाहट हुई और कमरे की दीवारें गिरते-गिरते बचीं। दुबेजी ने उठकर बैठने की कोशिश की लेकिन असफल होकर लेटे-ही-लेटे कहा, ”हो-हो! सब आपकी कृपा है। खूब छकके मिष्टान्न पाया। अब जरा सरबत-उरबत कुछ मिलै तो जो कुछ पेट में जलन है, सो शान्त होय!” उन्होंने पेट पर अपना हाथ फेरते हुए कहा।

”अच्छा, अरे भाई जरा शरबत बना देना।” डॉ. शुक्ला ने दरवाजे की ओट में खड़ी हुई बुआजी से कहा। बुआजी की आवाज सुनाई पड़ी, ”बाप रे! ई ढाई मन की लहास कम-से-कम मसक-भर के शरबत तो उलीचै लैईंहैं।” चन्दर को हँसी आ गयी, डॉ. शुक्ला मुसकराने लगे लेकिन दुबेजी के दिव्य मुखमंडल पर कहीं क्षोभ या उल्लास की रेखा तक न आयी। चन्दर मन-ही-मन सोचने लगा, प्राचीन काल के ब्रह्मानन्द सिद्ध महात्मा ऐसे ही होते होंगे।

बुआ एक गिलास में शरबत ले आयीं। दुबेजी काँख-काँखकर उठे और एक साँस में शरबत गले से नीचे उतारकर, गिलास नीचे रख दिया।

”दुबेजी, एक प्रार्थना है आपसे!” डॉ. शुक्ला ने हाथ जोडक़र बड़े विनीत स्वर में कहा।

”नहीं! नहीं!” बात काटकर दुबेजी बोले, ”बस अब हम कुछ न खावैं। आप बहुत सत्कार किये। हम एही से छक गये। आपको देखके तो हमें बड़ी प्रसन्नता भई। आप सचमुच दिव्य पुरुष हौ! और फिर आप तो लड़की के मामा हो, और बियाह-शादी में जो है सो मामा का पक्ष देखा जाता है। ई तो भगवान् ऐसा जोड़ मिलाइन हैं कि वरपक्ष अउर कन्यापक्ष दुइन के मामा बड़े ज्ञानी हैं। आप हैं तौन कालिज में पुरफेसर और ओहर हमार सार-लड़काकेर मामा जौन हैं तौन डाकघर में मुंशी हैं, आपकी किरपा से।” दुबेजी ने गर्व से कहा। चन्दर मुसकराने लगा।

”अरे सो तो आपकी नम्रता है लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि गरमियों में अगर ब्याह न रखकर जाड़े में रखा जाए तो ज्यादा अच्छा होगा। तब तक आपके सत्कार की हम कुछ तैयारी भी कर लेंगे।” डॉ. शुक्ला बोले।

दुबेजी इसके लिए तैयार नहीं थे। वे बड़े अचरज में भरकर उनकी ओर देखने लगे। लेकिन बहुत कहने-सुनने के बाद अन्त में वे इस शर्त पर राजी हुए कि अगहन तक हर तीज-त्यौहार पर लड़के के लिए कुरता-धोती का कपड़ा और ग्यारह-बारह रुपये नजराना जाएगा और अगहन में अगर ब्याह हो रहा है तो सास-ननद और जिठानी के लिए गरम साड़ी जाएगी और जब-जब दुबेजी गंगा नहाने प्रयागराज आएँगे तो उनका रोचना एक थाल, कपड़े और एक स्वर्णमण्डित जौ से होगा। जब डॉ. शुक्ला ने यह स्वीकार कर लिया तो दुबेजी ने उठकर अपना झालम-झोला कुरता गले में अटकाया और अपनी गठरी हाथ में उठाकर बोले-

”अच्छा तो अब आज्ञा देव, हम चली अब, और ई रुपिया लड़की को दै दियो, अब बात पक्की है।” और अपनी टेंट से उन्होंने एक मुड़ा-मुड़ाया तेल लगा हुआ पाँच रुपये का नोट निकाला और डॉ. साहब को दे दिया।

”चन्दर एक ताँगा कर दो, दुबेजी को। अच्छा, आओ हम भी चलें।”

जब ये लोग लौटे तो बुआजी एक थैली से कुछ धर-निकाल रही थीं। डॉ. शुक्ला ने नोट बुआजी को देते हुए कहा, ”लो, ये दे गये तुम्हारे समधी जी, लड़की को।”

पाँच का नोट देखा तो बुआजी सुलग उठीं-”न गहना न गुरिया, बियाह पक्का कर गये ई कागज के टुकड़े से। अपना-आप तो सोना और रुपिया और कपड़ा सब लीलै को तैयार और देत के दाँई पेट पिराता है जूता-पिटऊ का। अरे राम चाही तो जमदूत ई लहास की बोटी-बोटी करके रामजी के कुत्तन को खिलइहैं।”

चन्दर हँसी के मारे पागल हो गया।

बुआजी ने थैली का मुँह बाँधा और बोलीं, ”अबहिन तक बिनती का पता नै, और ऊ तुरकन-मलेच्छन के हियाँ कुछ खा-पी लिहिस तो फिर हमरे हियाँ गुजारा नाहि ना ओका। बड़ी आजाद हुई गयी है सुधा की सह पाय के। आवै देव, आज हम भद्रा उतारित ही।”

डॉ. शुक्ला अपने कमरे में चले गये। चन्दर को प्यास लगी थी। उसने बुआजी से एक गिलास पानी माँगा। बुआ ने एक गिलास में पानी दिया और बोलीं, ”बैठ के पियो बेटा; बैठ के। कुछ खाय का देई?”

”नहीं, बुआजी!” बुआ बैठकर हँसिया से कटहल छीलने लगीं और चन्दर पानी पीता हुआ सोचने लगा, बुआजी सभी से इतनी मीठी बात करती हैं तो आखिर बिनती से ही इतनी कटु क्यों हैं?

इतने में अन्दर चप्पलों की आहट सुनाई पड़ी। चन्दर ने देखा, सुधा और बिनती आ गयी थीं। सुधा अपनी चप्पल उतारकर अपने कमरे में चली गयी और बिनती आँगन में आयी। बुआजी के पास आकर बोली, ”लाओ, हम तरकारी काट दें।”

”चल हट ओहर। पहिले नहाव जाय के। कुछ खाय तो नै रहयो। एत्ती देर कहाँ घूमति रहयो ? हम खूब अच्छी तरह जानित ही तूँ हमार नाक कटाइन के रहबो। पतुरियन के ढँग सीखे हैं!”

बिनती चुप। एक तीखी वेदना का भाव उसके मुँह पर आया। उसने आँखें झुका लीं। रोयी नहीं और चुपचाप सिर झुकाये हुए सुधा के कमरे में चली गयी।

चन्दर क्षण-भर खड़ा रहा। फिर सुधा के पास गया। सुधा के कमरे में अकेले बिनती खाट पर पड़ी थी-औंधे मुँह, तकिया में मुँह छिपाये। चन्दर को जाने कैसा लगा। उसके मन में बेहद तरस आ रहा था इस बेचारी लड़की के लिए, जिसके पिता हैं ही नहीं और जिसे प्रताडऩा के सिवा कुछ नहीं मिला। चन्दर को बहुत ही ममता लग रही थी इस अभागिनी के लिए। वह सोचने लगा, कितना अन्तर है दोनों बहनों में। एक बचपन से ही कितने असीम दुलार, वैभव और स्नेह में पली है और दूसरी प्रताड़ना और कितने अपमान में पली और वह भी अपनी ही सगी माँ से जो दुनिया भर के प्रति स्नेहमयी है, अपनी लड़की को छोडक़र।

वह कुर्सी पर बैठकर चुपचाप यही सोचने लगा-अब आगे भी इस बेचारी को क्या सुख मिलेगा। ससुराल कैसी है, यह तो ससुर को देखकर ही मालूम देता है।

इतने में सुधा कपड़े बदलकर हाथ में किताब लिये, उसे पढ़ती हुई, उसी में डूबी हुई आयी और खाट पर बैठ गयी। ”अरे! बिनती! कैसे पड़ी हो? अच्छा तुम हो चन्दर! बिनती! उठो!” उसने बिनती की पीठ पर हाथ रखकर कहा।

बिनती, जो अभी तक निचेष्ट पड़ी थी, सुधा के ममता-भरे स्पर्श पर फूट-फूटकर रो पड़ी। तो सुधा ने चन्दर से कहा, ”क्या हुआ बिनती रानी को।” और बिनती भी जोरों से सिसकियाँ भरने लगी तो सुधा ने चन्दर से कहा, ”कुछ तुमने कहा होगा। चौदह दिन बाद आये और आते ही लगे रुलाने उसे। कुछ कहा होगा तुमने! समझ गये। घूमने के लिए उसे भी डाँटा होगा। हम साफ-साफ बताये देते हैं चन्दर, हम तुम्हारी डाँट सह लेते हैं इसके ये मतलब नहीं कि अब तुम इस बेचारी पर भी रोब झाडऩे लगो। इससे कभी कुछ कहा तो अच्छी बात नहीं होगी!”

”तुम्हारे दिमाग का कोई पुरजा ढीला हो गया है क्या? मैं क्यों कहूँगा बिनती को कुछ!”

”बस फिर यही बात तुम्हारी बुरी लगती है।” सुधा बिगड़कर बोली, ”क्यों नहीं कहोगे बिनती को कुछ? जब हमें कहते हो तो उसे क्यों नहीं कहोगे? हम तुम्हारे अपने हैं तो क्या वो तुम्हारी अपनी नहीं है?”

चन्दर हँस पड़ा-”सो क्यों नहीं है, लेकिन तुम्हारे साथ न ऐसे निबाह, न वैसे निबाह।”

”ये सब कुछ हम नहीं जानते! क्यों रो रही है यह?” सुधा बोली धमकी के स्वर में।

”बुआजी ने कुछ कहा था।” चन्दर बोला।

”अरे तो उसके लिए क्या रोना! इतना समझाया तुझे कि उनकी तो आदत है। हँसकर टाल दिया कर। चल उठ! हँसती है कि गुदगुदाऊँ।” सुधा ने गुदगुदाते हुए कहा। बिनती ने उसका हाथ पकडक़र झटक दिया और फिर सिसकियाँ भरने लगी।

”नहीं मानेगी तू?” सुधा बोली, ”अभी ठीक करती हूँ तुझे मैं। चन्दर, पकड़ो तो इसका हाथ।”

चन्दर चुप रहा।

”नहीं उठे। उठो, तुम इसका हाथ पकड़ लो तो हम अभी इसे हँसाते हैं।” सुधा ने चन्दर का हाथ पकडक़र बिनती की ओर बढ़ते हुए कहा। चन्दर ने अपना हाथ खींच लिया और बोला, ”वह तो रो रही है और तुम बजाय समझाने के उसे परेशान कर रही हो।”

”अरे जानते हो, क्यों रो रही है? अभी इसके ससुर आये थे, वो बहुत मोटे थे तो ये सोच रही है कहीं ‘वो’ भी मोटे हों!” सुधा ने फिर उसकी गरदन गुदगुदाकर कहा।

बिनती हँस पड़ी। सुधा उछल पड़ी-”लो, ये तो हँस पड़ी, अब रोओगी?” अब फिर सुधा ने गुदगुदाना शुरू किया। बिनती पहले तो हँसी से लोट गयी फिर पल्ला सँभालते हुए बोली, ”छिह, दीदी! वो बैठे हैं कि नहीं!” और उठकर बाहर जाने लगी।

”कहाँ चली?” सुधा ने पूछा।

”जा रही हूँ नहाने।” बिनती पल्लू से सिर ढँकते हुए चल दी।

”क्यों, मैंने तेरा बदन छू दिया इसलिए?” सुधा हँसकर बोली, ”ऐ चन्दर, वो गेसू का छोटा भाई है न-हसरत, मैंने उसे छू लिया तो फौरन उसने जाकर अपना मुँह साबुन से धोया और अम्मीजान से बोला, ”मेरा मुँह जूठा हो गया।” और आज हमने गेसू के अख्तर मियाँ को देखा। बड़े मजे के हैं। मैं तो गेसू से बात करती रही लेकिन बिनती और फूल ने बहुत छेड़ा उन्हें। बेचारे घबरा गये। फूल बहुत चुलबुली है और बड़ी नाजुक है। बड़ी बोलने वाली है और बिनती और फूल का खूब जोड़ मिला। दोनों खूब गाती हैं।”

”बिनती गाती भी है?” चन्दर ने पूछा, ”हमने तो रोते ही देखा।”

”अरे बहुत अच्छा गाती है। इसने एक गाँव का गाना बहुत अच्छा गाया था।…अरे देखो वह सब बताने में हम तुम पर गुस्सा होना तो भूल ही गये। कहाँ रहे चार रोज? बोलो, बताओ जल्दी से।”

”व्यस्त थे सुधा, अब थीसिस तीन हिस्सा लिख गयी। इधर हम लगातार पाँच घंटे से बैठकर लिखते थे!” चन्दर बोला।

”पाँच घंटे!” सुधा बोली, ”दूध आजकल पीते हो कि नहीं?”

”हाँ-हाँ, तीन गायें खरीद ली हैं…।” चन्दर बोला।

”नहीं, मजाक नहीं, कुछ खाते-पीते रहना, कहीं तबीयत खराब हुई तो अब हमारा इम्तहान है, पड़े-पड़े मक्खी मारोगे और अब हम देखने भी नहीं आ सकेंगे।”

”अब कितना कोर्स बाकी है तुम्हारा?”

”कोर्स तो खत्म था हमारा। कुछ कठिनाइयाँ थीं सो पिछले दो-तीन हफ्ते में मास्टर साहब ने बता दी थीं। अब दोहराना है। लेकिन बिनती का इम्तहान मई में है, उसे भी तो पढ़ाना है।”

”अच्छा, अब चलें हम।”

”अरे बैठो! फिर जाने कै दिन बाद आओगे। आज बुआ तो चली जाएँगी फिर कल से यहीं पढ़ो न। तुमने बिनती के ससुर को देखा था?”

”हाँ, देखा था!” चन्दर उनकी रूपरेखा याद करके हँस पड़ा-”बाप रे! पूरे टैंक थे वे तो।”

”बिनती की ननद से तुम्हारा ब्याह करवा दें। करोगे?” सुधा बोली, ”लड़की इतनी ही मोटी है। उसे कभी डाँट लेना तो देखेंगे तुम्हारी हिम्मत।”

ब्याह! एकदम से चन्दर को याद आ गया। अभी बुआ ने बात की थी सुधा के ब्याह की। तब उसे कैसा लगा था? कैसा लगा था? उसका दिमाग घूम गया था। लगा जैसे एक असहनीय दर्द था या क्या था-जो उसकी नस-नस को तोड़ गया। एकदम…।

”क्या हुआ, चन्दर? अरे चुप क्यों हो गये? डर गये मोटी लड़की के नाम से?” सुधा ने चन्दर का कन्धा पकड़कर झकझोरते हुए कहा।

चन्दर एक फीकी हँसी हँसकर रह गया और चुपचाप सुधा की ओर देखने लगा। सुधा चन्दर की निगाह से सहम गयी। चन्दर की निगाह में जाने क्या था, एक अजब-सा पथराया सूनापन, एक जाने किस दर्द की अमंगल छाया, एक जाने किस पीड़ा की मूक आवाज, एक जाने कैसी पिघलती हुई-सी उदासी और वह भी गहरी, जाने कितनी गहरी…और चन्दर था कि एकटक देखता जा रहा था, एकटक अपलक…।

सुधा को जाने कैसा लगा। ये अपना चन्दर तो नहीं, ये अपने चन्दर की निगाह तो नहीं है। चन्दर तो ऐसी निगाह से, इस तरह अपलक तो सुधा को कभी नहीं देखता था। नहीं, यह चन्दर की निगाह तो नहीं। इस निगाह में न शरारत है, न डाँट न दुलार और न करुणा। इसमें कुछ ऐसा है जिससे सुधा बिल्कुल परिचित नहीं, जो आज चन्दर में पहली बार दिखाई पड़ रहा है। सुधा को जैसा डर लगने लगा, जैसे वह काँप उठी। नहीं, यह कोई दूसरा चन्दर है जो उसे इस तरह देख रहा है। यह कोई अपरिचित है, कोई अजनबी, किसी दूसरे देश का कोई व्यक्ति जो सुधा को…

”चन्दर, चन्दर! तुम्हें क्या हो गया!” सुधा की आवाज मारे डर के काँप रही थी, उसका मुँह पीला पड़ गया, उसकी साँस बैठने लगी थी-”चन्दर…” और जब उसका कुछ बस न चला तो उसकी आँखों में आँसू छलक आये।

हाथों पर एक गरम-गरम बूँद आकर पड़ते ही चन्दर चौंक गया। ”अरे सुधी! रोओ मत। नहीं पगली। हमारी तबीयत कुछ ठीक नहीं है, एक गिलास पानी तो ले आओ।”

सुधा अब भी काँप रही थी। चन्दर की आवाज में अभी भी वह मुलायमियत नहीं आ पायी थी। वह पानी लाने के लिए उठी।

”नहीं, तुम कहीं जाओ मत, तुम बैठो यहीं।” उसने उसकी हथेली अपने माथे पर रखकर जोर से अपने हाथों में दबा ली और कहा, ”सुधा!…”

”क्यों, चन्दर!”

”कुछ नहीं!” चन्दर ने आवाज दी लेकिन लगता था वह आवाज चन्दर की नहीं थी। न जाने कहाँ से आ रही थी…

”क्या सिर में दर्द है? बिनती, एक गिलास पानी लाओ जल्दी से।”

सुधा ने आवाज दी। चन्दर जैसे पहले-सा हो गया-”अरे! अभी मुझे क्या हो गया था? तुम क्या बात कर रही थीं सुधा?”

”पता नहीं तुम्हें अभी क्या हो गया था?” सुधा ने घबरायी हुई गौरेया की तरह सहमकर कहा।

चन्दर स्वस्थ हो गया-”कुछ नहीं सुधा! मैं ठीक हूँ। मैं तो यूँ ही तुम्हें परेशान करने के लिए चुप था।” उसने हँसकर कहा।

”हाँ, चलो रहने दो। तुम्हारे सिर में दर्द है जरूर से।” सुधा बोली। बिनती पानी लेकर आ गयी थी।

”लो, पानी पियो!”

”नहीं, हमें कुछ नहीं चाहिए।” चन्दर बोला।

”बिनती, जरा पेनबाम ले जाओ।” सुधा ने गिलास जबर्दस्ती उसके मुँह से लगाते हुए कहा। बिनती पेनबाम ले आयी थी-”बिनती, तू जरा लगा दे इनके। अरे खड़ी क्यों है? कुर्सी के पीछे खड़ी होकर माथे पर जरा हल्की उँगली से लगा दे।”

बिनती आज्ञाकारी लड़की की तरह आगे बढ़ी, लेकिन फिर हिचक गयी। किसी अजनबी लड़के के माथे पर कैसे पेनबाम लगा दे। ”चलती है या अभी काट के गाड़ देंगे यहीं। मोटकी कहीं की! खा-खाकर मुटानी है। जरा-सा काम नहीं होता।”

बिनती ने हारकर पेनबाम लगाया। चन्दर ने उसका हाथ हटा दिया तो सुधा ने बिनती के हाथ से पेनबाम लेकर कहा, ”आओ, हम लगा दें।” बिनती पेनबाम देकर चली गयी तो चन्दर बोला, ”अब बताओ, क्या बात कर रही थीं? हाँ, बिनती के ब्याह की। ये उनके ससुर तो बहुत ही भद्दे मालूम पड़ रहे थे। क्या देखकर ब्याह कर रही हो तुम लोग?”

”पता नहीं क्या देखकर ब्याह कर रही हैं बुआ। असल में बुआ पता नहीं क्यों बिनती से इतनी चिढ़ती हैं, वह तो चाहती हैं किसी तरह से बोझ टले सिर से। लेकिन चन्दर, यह बिनती बड़ी खुश है। यह तो चाहती है किसी तरह जल्दी से ब्याह हो!” सुधा मुसकराती हुई बोली।

”अच्छा, यह खुद ब्याह करना चाहती है!” चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।

”और क्या? अपने ससुर की खूब सेवा कर रही थी सुबह। बल्कि पापा तो कह रहे थे कि अभी यह बी.ए. कर ले तब ब्याह करो। हमसे पापा ने कहा इससे पूछने को। हमने पूछा तो कहने लगी बी.ए. करके भी वही करना होगा तो बेकार टालने से क्या फायदा। फिर पापा हमसे बोले कि कुछ वजहों से अगहन में ब्याह होगा, तो बड़े ताज्जुब से बोली, ”अगहन में?”

”सुधी, तुम जानती हो अगहन में उसका ब्याह क्यों टल रहा है? पहले तुम्हारा ब्याह होगा।” चन्दर हँसकर बोला। वह पूर्णतया शान्त था और उसके स्वर में कम-से-कम बाहर सिवा चुहल के और कुछ भी न था।

”मेरा ब्याह, मेरा ब्याह!” आँखें फाडक़र, मुँह फैलाकर, हाथ नचाकर, कुतूहल-भरे आश्चर्य से सुधा ने कहा और फिर हँस पड़ी, खूब हँसी-”कौन करेगा मेरा ब्याह? बुआ? पापा करने ही नहीं देंगे। हमारे बिना पापा का काम ही नहीं चलेगा और बाबूसाहब, तुम किस पर आकर रंग जमाओगे? ब्याह मेरा। हूँ!” सुधा ने मुँह बिचकाकर उपेक्षा से कहा।

”नहीं सुधा, मैं गम्भीरता से कह रहा हूँ। तीन-चार महीने के अन्दर तुम्हारा ब्याह हो जाएगा।” चन्दर उसे विश्वास दिलाते हुए बोला।

”अरे जाओ!” सुधा ने हँसते हुए कहा, ”ऐसे हम तुम्हारे बनाने में आ जाएँ तो हो चुका।”

”अच्छा जाने दो। तुम्हारे पास कोई पोस्टकार्ड है? लाओ जरा इस कॉमरेड को एक चिठ्ठी तो लिख दें।” चन्दर बात बदलकर बोला। पता नहीं क्यों इस विषय की बात के चलने में उसे कैसा लगता था।

”कौन कामरेड?” सुधा ने पूछा, ”तुम भी कम्युनिस्ट हो गये क्या?”

”नहीं, जी, वो बरेली का सोशलिस्ट लड़का कैलाश जिसने झगड़े में हम लोगों की जान बचायी थी। हमने तुम्हें बताया नहीं था सब किस्सा उस झगड़े का, जब हम और पापा बाहर गये थे!”

”हाँ-हाँ, बताया था। उसे जरूर खत लिख दो!” सुधा ने पोस्टकार्ड देते हुए कहा, ”तुम्हें पता मालूम है?”

चन्दर जब पोस्टकार्ड लिख रहा था तो सुधा ने कहा, ”सुनो, उसे लिख देना कि पापा की सुधा, पापा की जान बचाने के एवज में आपकी बहुत कृतज्ञ है और कभी अगर हो सके तो आप इलाहाबाद जरूर आएँ!…लिख दिया?”

”हाँ!” चन्दर ने पोस्टकार्ड जेब में रखते हुए कहा।

”चन्दर, हम भी सोशलिस्ट पार्टी के मेम्बर होंगे!” सुधा ने मचलते हुए कहा।

”चलो, अब तुम्हें नयी सनक सवार हुई। तुम क्या समझ रही हो सोशलिस्ट पार्टी को। राजनीतिक पार्टी है वह। यह मत करना कि सोशलिस्ट पार्टी में जाओ और लौटकर आओ तो पापा से कहो-अरे हम तो समझे पार्टी है, वहाँ चाय-पानी मिलेगा। वहाँ तो सब लोग लेक्चर देते हैं।”

”धत्, हम कोई बेवकूफ हैं क्या?” सुधा ने बिगडक़र कहा।

”नहीं, सो तो तुम बुद्धिसागर हो, लेकिन लड़कियों की राजनीतिक बुद्धि कुछ ऐसी ही होती है!” चन्दर बोला।

”अच्छा रहने दो। लड़कियाँ न हों तो काम ही न चले।” सुधा ने कहा।

”अच्छा, सुधा! आज कुछ रुपये दोगी। हमारे पास पैसे खतम हैं। और सिनेमा देखना है जरा।” चन्दर ने बहुत दुलार से कहा।

”हाँ-हाँ, जरूर देंगे तुम्हें। मतलबी कहीं के!” सुधा बोली, ”अभी-अभी तुम लड़कियों की बुराई कर रहे थे न?”

”तो तुम और लड़कियों में से थोड़े ही हो। तुम तो हमारी सुधा हो। सुधा महान।”

सुधा पिघल गयी-”अच्छा, कितना लोगे?” अपनी पॉकेट में से पाँच रुपये का नोट निकालकर बोली, ”इससे काम चल जाएगा?”

”हाँ-हाँ, आज जरा सोच रहे हैं पम्मी के यहाँ जाएँ, तब सेकेंड शो जाएँ।”

”पम्मी रानी के यहाँ जाओगे। समझ गये, तभी तुमने चाचाजी से ब्याह करने से इनकार कर दिया। लेकिन पम्मी तुमसे तीन साल बड़ी है। लोग क्या कहेंगे?” सुधा ने छेड़ा।

”ऊँह, तो क्या हुआ जी! सब यों ही चलता है!” चन्दर हँसकर टाल गया।

”तो फिर खाना यहीं खाये जाओ और कार लेते जाओ।” सुधा ने कहा।

”मँगाओ!” चन्दर ने पलँग पर पैर फैलाते हुए कहा। खाना आ गया। और जब तक चन्दर खाता रहा, सुधा सामने बैठी रही और बिनती दौड़-दौडक़र पूड़ी लाती रही।

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