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Friday, December 27, 2024
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PRERAK PRASANG OF A P J ABDUL KALAM

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Table of Contents

डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के जीवन  से सम्बंधित 15 प्रेरक प्रसंग

 
 

 

डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम ने भारत की हर उस तरह से सेवा की है 
जिससे हर देशवासी का सर गर्व से ऊँचा हो सके,
 एवं भारत के राष्ट्रपति के पद पर रह कर जिस अराजनैतिक तरीके से
 अपने पद की गरिमा को निभाया है, 
उसकी सराहना पूरी दुनिया करती है.
 भारत के अंतरिक्ष और रक्षा कार्यक्रमों में डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम
 के अनुकरणीय योगदान को उजागर करने के लिए कोई भी विशेषण पर्याप्त नहीं हैं।
 इनकी विनम्रता और उदारता ने हर भारतीय का दिल जीत लिया है।

डॉ. ए.पी.जे. अबदूल कलाम का नाम सुनते ही हमारे मन में एक ऐसे व्यक्ति का चित्र उभरता है, जिसकी आंखों में नए भारत की तस्वीर बसती थी। तमिलनाडु स्थित एक छोटे से तीर्थ गांव रामेश्वरम् में नौका-मालिकों के अल्प-शिक्षित परिवार में जन्मे कलाम, जिन्होंने भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान और मिसाइल विकास कार्यक्रम की नींव रखी थी वे हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण वैज्ञानिक के रूप में उभरे थे। ‘भारत रत्न’ कलाम ने रक्षा वैज्ञानिक के रूप में अद्भुत ख्याति अर्जित की। उनका मानना था कि कठिनाइयों एवं संकटों के माध्यम से ईश्वर हमें आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता हैं। राष्ट्र की युवा शक्ति और बच्चों को प्रेरित कर वे भारत को एक महान राष्ट्र बनाने का स्वप्न सँजोए हुए देशकार्य में निरंतर लगे रहते थे। वे कहते थे- ‘युवाओं का उचित मार्गदर्शन करना जरूरी है, ताकि उनके जीवन को उपयुक्त दिशा मिल सके और उनकी सृजनात्मकता भी खिल सके।‘

डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम ने भारत की हर उस तरह से सेवा की है जिससे हर देशवासी का सर गर्व से ऊँचा हो सके, एवं भारत के राष्ट्रपति के पद पर रह कर जिस अराजनैतिक तरीके से अपने पद की गरिमा को निभाया है, उसकी सराहना पूरी दुनिया करती है. भारत के अंतरिक्ष और रक्षा कार्यक्रमों में डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के अनुकरणीय योगदान को उजागर करने के लिए कोई भी विशेषण पर्याप्त नहीं हैं। इनकी विनम्रता और उदारता ने हर भारतीय का दिल जीत लिया है। आम लोगों के राष्ट्रपति के रूप में जाने जाने वाले डॉ कलाम के बारे में इन दुर्लभ कहानियों से आपके मन में उनके प्रति सम्मान कई गुना बढ़ जाना निश्चित है.

उनका संपूर्ण जीवन ही दूसरों के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं। उनके जीवन से जुड़ी हर घटना से हम कुछ सीख सकते है। इसी बात को ध्यान में रखकर यहाँ उनके जीवन से जुड़े कुछ प्रसंग दिये जा रहे हैं, जो आपको प्रेरणा तो देगें ही साथ ही यह प्रसंग आपको डॉ. कलाम के जीवन के और नजदिक भी ले जाएंगे।

Abdul Kalam – Motivational Story #1

तीव्र इच्छा शक्ति 

 

दीपावली त्योहार का दिन था, एक छोटा मुस्लिम बालक भी हिन्दुओं का यह उल्लासपूर्ण पर्व मनाना चाहता था, लेकिन वह बहुत गरीब था, और चूँकि अखबार बेचकर वो बेचारा अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाता था और दो पैसे की मदद अपने गरीब बाप की भी किया करता था, अतः उसके पास पर्याप्त पैसों की कमी थी। संयोगवश उस दिन उसने अखबार बेचकर अन्य दिनों की अपेक्षा पाँच पैसे ज्यादा कमाये। तब वह पटाखे वाले के पास जाता है और उससे एक रॉकेट की माँग करता है, परन्तु वह विक्रेता रॉकेट देने से मना कर देता है यह कहते हुए कि पाँच पैसे में रॉकेट नहीं आता है। बालक निराश हो जाता है और दुकानदार से कहता है, ‘अच्छा मुझे पाँच पैसे के खराब पटाखे ही दे दो?’
‘खराब मतलब? वे किस काम आयेंगे?’
‘मैं उनसे रॉकेट बना लूँगा?’
इसके बाद वह पाँच पैसे में ढेर सारे खराब पटाखों का कूड़ा उठा लाया और एक नहीं कई रॉकेट बनाये और उस दिन उसके गाँव में मुस्लिम मोहल्ले में गगन की दूरी नापने वाले दीवाली के रॉकेट केवल उस बालक के आँगन से ही छोड़े गये थे। वह बालक ही आगे चलकर मिसाइल-मैन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। और बाद में वह बालक भारत का राष्ट्रपति भी बना। उस बालक का नाम ए. पी. जे. अब्दुल कलामथा।
          यदि मन में कुछ करने की तीव्र इच्छा हो तो आप अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर के प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना सकते हैं।

Abdul Kalam – Motivational Story #2

जब कलाम ने बच्चों को घुमाने की जिम्मेदारी स्वयं ली

 

यह बात उस समय कि है, जब कलाम इसरो के बहुत ही महत्वपूर्ण और लंबे समय से चले आ रहे प्रोजेक्ट पर अन्य 70 वैज्ञानिकों के साथ दिन-रात मेहनत कर रहे थे। मिशन में आ रही तकनकी दिक्कतों से वे मिशन की सफलता को लेकर संशय में थे। लेकिन वे आशावान भी थे।
उस समय कलाम अपने ऑफिस में बैठ कर प्रोजेक्ट के बारीकियों पर विचार कर रहे थे और इस परेशानी के समय में भी वे एक हिंदी गीत कि कुछ लाईने गुनगुना रहे थे –
होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब,
हम होंगे कामयाब एक दिन…
हो-हो-हो पूरा हैं विश्वास, मन में है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन।।
उसी समय कलाम के चेंबर में एक वैज्ञानिक ने आकर उनसे आग्रह किया कि क्या वह आज शाम साढ़े पांच बजे काम खत्म करके घर जा सकता है। उसका कहना था कि उसने अपने बच्चों को आज प्रदर्शनी में ले जाने का वादा किया है। यह सुनकर कलाम ने उसे आज्ञा दे दी। वह वैज्ञानिक खुशी-खुशी फिर काम पर लग गया।
उसके बाद वह वैज्ञानिक काम में इतना लीन हो गया की उसे अपने बच्चों से किये वादों का भी ख्याल नहीं रहा। उसे इस बात कि तब सूध हुई जब उसने कई घंटे बाद अपनी घड़ी देखी। जिसमें साढ़े आठ बज रहे थे।
यह देख वह जल्दी-जल्दी कलाम के चेंबर में पहुंचा, लेकिन उसे यह देखकर निराशा हुई की डॉ. कलाम वहां नहीं थे। उसे अपने बच्चों से किए वादे न पूरा करने का दुख था।
वह उदासमन अपने घर लौट आया। घर लौटने पर उसने अपनी पत्नी से पूछा- बच्चे कहां है?
तो पत्नी ने उत्तर देते हुए कहा- ‘तुम नहीं जानते? तुम्हारे मैनजर डॉ. कलाम घर आए थे और बच्चों को अपने साथ प्रदर्शनी दिखाने ले गए।‘
यह सुनकर वह मन नही मन कलाम को धन्यवाद देते हुए हंसने लगा।
दरसल, जब डॉ. कलाम ने देखा कि वैज्ञानिक जोर-सोर एवं पूरी तरह संलगन होकर काम में लगे हुए हैं, तो उन्होंने सोचा की इन्हें काम को बीच में नहीं छोड़ना चाहिए। उनका ध्यान नहीं भटकना चाहिए। लेकिन जब किसी ने अपने बच्चों से वादा किया है तो वे जरूर प्रदर्शनी देखने जाएंगे। इसलिए उन्होंने बच्चों को घुमाने का काम स्वयं करने का फैसला किया और उन्हें प्रदर्शनी दिखाने ले गए।

 

Abdul Kalam – Motivational Story #3

साथी वैज्ञानिकों की फिक्र

 

यह प्रसंग उस समय का हैं, जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंघान क्रेंद्र के वैज्ञानिक नये उपग्रह के प्रेक्षेपण के संबंध में फ्रांस गये हुए थे और उसी समय अंतराल में उन्हें भारत में भी नये उपग्रह के प्रक्षेपण को समयबद्ध तरीके से पूर्ण करना था। उस समय डॉ. कलाम भारत के राष्ट्रपति थे। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि वे राष्ट्रपति का पद संभालते हुए भी कभी अपने मुख्य पेशे से दूर नहीं हुए। वे उस समय इसरो के प्रेक्षेपण प्रणाली के मुख्य अधिकारी के रूप में कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों की टीम का नेर्तित्व  करते थे।
जब वैज्ञानिक फ्रांस के फ्रेंच गुयाना से भारत लौट रहे थे तब एयपोर्ट के अधिकारियों  ने उनका पासपोर्ट जांच कर उन्हें विशेष व्यक्तियों को दी जाने वाली सुरक्षा दे दी! यह देखकर वैज्ञानिक कुछ उलझा हुआ महसूस करने लगे।
तब उन्होंने उन अधिकारियों से पूछा – क्या कोई समस्या है?
इस पर एयरपोर्ट के एक अधिकारी ने कहां – उन्होंने हमें ऐसा ही करने को कहा है।
कुछ समय पश्चात, एयरपोर्ट के एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनसे आग्रह किया की आपलोगों की फ्लाइट आधे घंटे बाद है। इसलिए तब तक आप लोग विशेष रूप से राष्ट्राध्यक्षों के लिए बनाए गए रेस्ट रूम का प्रयोग कर सकते हैं। इस बात को सुनकर एक वैज्ञानिक ने कहा कि हमारे पास पहले से ही विशेष श्रेणी के टीकट उपल्बध है और हमारी फ्लाइट बस अब से तीन घंटे बाद उड़ान भरने वाली है।
तब फिर एक एयरपोर्ट का अधिकारी उनको समझाते हुए बोला कि – ‘राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने उनको विशेष र्निदेश दिये हैं और कहा है कि इसरो के वैज्ञानिक कुछ दिनों से काफी व्यस्त हैं। उन्हें ईनसेट-4बी के प्रेक्षेपण के सिल-सिले में काफी भागा-दौड़ी करनी पड़ रही हैं। इस लिए उनका विशेष ख्याल रखा जाए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए स्वयं राष्ट्रपति जी ने अभी कुछ देर पहले ही विशेष विमान की व्यवस्था करवाई है। अब आप लोग तीन घंटे बाद नहीं बस आधे घंटे मे ही भारत के लिए आराम से रवाना हो सकते हैं।‘  वैज्ञानिक बहुत खुश थे। वे रेस्ट रूम में मात्र आधे घंटे रूके तथा तुरंत ही भारत के लिए रवाना हो गए।
डॉ. कलाम अपने इतने व्यस्त समय में भी यह स्मरण रखते थे या यू कहे कि उन्हें फिक्र रहती थी कि आज संचार उपग्रह का प्रेक्षेपण होने वाला है तथा इसको सफल बनाने के लिए कितने ही वैज्ञानिक देश-विदेश में भागा-दौड़ी कर रहे है ताकि यह अभियान सफल हो जाए।

Abdul Kalam – Motivational Story #4

सहानुभूतिशील तथा सरल व्यक्तित्व

 

 एक दिन सुबह ग्यारह बजे डॉ. कलाम ने माशेलकर जी के यहां फोन किया और कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा गठित नॉलेज टास्क फोर्स की बैठक बुलाई है। उस समय डॉ. कलाम तथा डॉ. माशेलकर परिचालन समिति पर एक साथ काम कर रहे थे। डॉ. माशेलकर ने बैठक में शामिल होने में असमर्थता जताई और बताया कि उन्हें चार बजे की फलाइट से पुणे जाना था। उन्होंने कलाम को बताया कि उसी सुबह पुणे से उनके पास फोन आया था कि उनकी पत्नी गंभीर रूप से बीमार हैं। उनका पुणे जाना बहुत आवश्यक है। उन्हें लगा की महत्वपूर्ण दायित्व पहले पूरे करने चाहिए। इसलिए उन्होंने सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए थे और पहली फ्लाइट से वे वापस पुणे जा रहे थे। उस समय स्थिति इतनी तनाव पूर्ण थी कि माशेलकर खुद पर नियंत्रण नहीं कर सके और फोन पर ही रो पड़े। डॉ. कलाम ने उन्हें सांत्वना दी। उनकी बातचीत समाप्त हो गई।
किंतु पंद्रह मिनट बाद वे ये देखकर आश्चर्यचकित रह गये थे कि, डॉ. कलाम अपनी एक मीटिंग छोड़कर उनके ऑफिस में थे। उन्होंने उनके साथ एक घंटा बिताया।
यह घटना हमें यह बताती हैं, कि कलाम दूसरों का किताना ध्यान रखते थे और उदारह्दय व्यक्ति थे।

Abdul Kalam – Motivational Story #5

बेहतरीन  नेतृत्वकर्ता 

 

एक बार ए पी जे अब्दुल कलाम जी का interview लिया जा रहा था. उनसे एक सवाल पूछा गया और उस सवाल के जवाब को ही हम यहाँ बता रहे हैं –

सवाल: क्या आप हमें अपने व्यक्तिगत जीवन से कोई उदहरण दे सकते हैं कि हमें हार को किस तरह स्वीकार करना चाहिए? एक अच्छा Leader हार को किस तरह फेस करता हैं ?

ए पी जे अब्दुल कलाम जी: मैं आपको अपने जीवन का ही एक अनुभव सुनाता हूँ. 1973 में मुझे भारत के satellite launch program, जिसे SLV-3 भी कहा जाता हैं, का head बनाया गया। हमारा Goal था की 1980 तक किसी भी तरह से हमारी Satellite ‘रोहिणी’ को अंतरिक्ष में भेज दिया जाए. जिसके लिए मुझे बहुत बड़ा बजट दिया गया और Human resource भी Available कराया गया, पर मुझे इस बात से भी अवगत कराया गया था की निश्चित समयतक हमें ये Goal पूरा करना ही है।

हजारों लोगों ने बहुत मेहनत की। 1979 तक- शायद अगस्त का महीना था- हमें लगा की अब हम पूरी तरह से तैयार हैं। Launch के दिन प्रोजेक्ट Director होने के नाते. मैं कंट्रोल रूम में Launch बटन दबाने के लिए गया। Launch से 4 मिनट पहले Computer उन चीजों की List को जांचने लगा जो जरुरी थी. ताकि कोई कमी न रह जाए. और फिर कुछ देर बाद Computer ने Launch रोक दिया l वो बता रहा था की कुछ चीज़े आवश्यकता अनुसार सही स्थिति पर नहीं हैं l

मेरे साथ ही कुछ Experts भी थे. उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया की सब कुछ ठीक है, कोई गलती नहीं हुई हैं और फिर मैंने Computer के निर्देश को Bypass कर दिया । और राकेट Launch कर दिया.FIRST स्टेज तक सब कुछ ठीक रहा, पर सेकंड स्टेज तक गड़बड़ हो गयी. राकेट अंतरिक्ष में जाने के बजाय बंगाल की खाड़ी में जा गिरा। ये एक बहुत ही बड़ी असफ़लता थी।

उसी दिन, Indian Space Research Organisation (I.S.R.O.) के चेयरमैन प्रोफेसर सतीश धवन ने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई । प्रोफेसर धवन, जो की संस्था के प्रमुख थे. उन्होंने Mission की असफ़लता की सारी ज़िम्मेदारी खुद ले लीं और कहा कि हमें कुछ और Technological उपायों की जरुरत थी। पूरी देश दुनिया की Media वहां मौजूद थी़ । उन्होंने कहा की अगले साल तक ये कार्य संपन्न हो ही जायेगा।

अगले साल जुलाई 1980 में हमने दोबारा कोशिश की । इस बार हम सफल हुए । पूरा देश गर्व महसूस कर रहा था। इस बार भी एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई गयी। प्रोफेसर धवन ने मुझे Side में बुलाया और कहा – ” इस बार तुम प्रेस कांफ्रेंस Conduct करो”

उस दिन मैंने एक बहुत ही जरुरी बात सीखी -जब असफ़लता आती हैं तो एक LEADER उसकी पूरी जिम्मेदारी लेता हैं और जब सफ़लता मिलती है तो वो उसे अपने साथियों के साथ बाँट देता हैं।

Abdul Kalam – Inspirational Story #6

 

राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने एक बार ये कहानी सुनाई थी
जब मैं छोटा बच्चा था तब प्रतिदिन मेरी माँ हम सब के लिए खाना बनाया करती थी
एक रात की बात है, माँ ने सब्जी रोटी बनायीं और पिताजी को परोस दिया। मैंने देखा रोटी बिलकुल जली हुई थी!
मैं ये सोच रहा था की किसी ने ये बात नोटिस करी या नहीं मेरे पिता ने वो रोटी बिना कुछ कहे प्रेम से खा ली और मुझसे पुछा “बेटा आज स्कूल का दिन कैसा रहा? “
मुझे याद है की मेरी माँ ने उस दिन जली रोटी बनाने के लिए पिताजी से क्षमा मांगी थी जिसपर पिताजी ने हँसते हुए कहा था. चिंता मत करो मुझे जाली रोटियां पसंद हैं !
बाद में जब मैंने पिताजी से पुछा क्या आपको जाली रोटियां सच में पसंद हैं?
पिता जी ने ना में सर हिलाते हुए कहा – एक जली हुई रोटी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकती पर जले हुए शब्द बहुत कुछ बिगाड़ सकते हैं !

Abdul Kalam – Inspirational Story #7

 
 एक बार, डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम ने एक इमारत की दीवार पर, जिसे संरक्षण की जरूरत थी, टूटे शीशे डालने के सुझाव को खारिज कर दिया। क्यों? क्योंकि टूटा कांच पक्षियों के लिए हानिकारक होगा
उस समय डॉ कलाम रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के साथ थे और उनकी टीम ने एक इमारत की परिधि को सुरक्षित करने के विकल्पों पर चर्चा की थी। डॉ कलाम ने कथित तौर पर कहा: “हम ऐसा करते हैं, तो पक्षी दीवार पर बसेरा करने में सक्षम नहीं होंगे।”

Abdul Kalam – Inspirational Story #8

 

जब युवाओं और किशोरों ने राष्ट्रपति कलाम के साथ एक बैठक का अनुरोध किया, तो राष्ट्रपति ने न केवल बच्चों को अपने कीमती समय दिया, बल्कि बच्चों के विचारों को ध्यान से सुना!
राष्ट्रपति के रूप में, अक्सर डॉ कलाम के कार्यालय को देश भर से युवाओं से बैठक के लिए अनुरोध प्राप्त होते थे। डॉ कलाम राष्ट्रपति  भवन में उनके निजी कक्ष में बच्चों को अपना कीमती समय देने के अलावा उनके विचारों को सुनते और बच्चों को फीडबैक भी देते थे. कभी कभी तो वह बच्चों से उनके आइडियाज के बारे में फॉलो-up भी कर लेते थे.

Abdul Kalam – Inspirational Story #9

 

 
 जब यह घोषित किया गया था की डॉ कलाम अगले राष्ट्रपति  होंगे, इसके तुरंत बाद, उन्होंने एक भाषण देने के लिए एक मामूली स्कूल का दौरा किया। उनकी सुरक्षा का इंतज़ाम वहां बहुत कम था, और बिजली जाने पर उन्होंने स्थिति का नियंत्रण भी किया।
लगभग 400 छात्रों को सम्बोधित करते हुए डॉ कलाम बिजली जाने पर भीड़ के बीच में चले गए और छात्रों से उन्हें घेर लेने को कहा. फिर बिना किसी माइक्रोफोन के उहोंने 400 छात्रों से बात की और, हमेशा की तरह, एक प्रेरक भाषण दिया जो उन बच्चों को हमेशा याद रहेगा।

Abdul Kalam – Inspirational Story #10

 
 राष्ट्रपति कलाम ने PURA (Providing Urban Amenities to Rural Areas) नामक एक ट्रस्ट को अपने पूरे जीवन की बचत और वेतन दान से दिया।
सरकार तत्कालीन एवं सभी पूर्व राष्ट्रपतियों का अच्छी तरह से ख्याल रखती है। ये जानने के बाद, राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान डॉ कलाम ने ग्रामीण आबादी के लिए शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में काम करने वाले एक कोष को अपनी सारी दौलत और जीवन बचत देने का फैसला किया। ऐसा कहा जाता है की, डॉ कलाम ने डॉ वर्गीज कुरियन, जो की अमूल के संस्थापक हैं, को फोन किया, और कहा: “अब जब मैं भारत का राष्ट्रपति बन गया हूँ, सरकार मेरे जीवन भर मेरा ख्याल रखेगी. ऐसे में मैं अपनी बचत और वेतन के साथ क्या कर सकता हूँ? ”

Abdul Kalam – Inspirational Story #11

 
डॉ कलाम इतने विनम्र थे कि वह अपने प्रशंसकों के लिए उनके साथ तस्वीरें लेने के देने की खातिर के लिए थोड़ा देर से समारोह से जाने में नहीं हिचकिचाते थे !
एक बार डॉ कलाम आईआईएम अहमदाबाद में एक समारोह में मुख्य अतिथि थे। घटना से पहले, वह साठ छात्रों के एक वर्ग के साथ लंच कर रहे थे। दोपहर के भोजन के अंत में, सभी छात्र पूर्व राष्ट्रपति के साथ एक तस्वीर चाहते थे।
देरी का हवाला देते हुए कार्यक्रम के आयोजक छात्रों को रफादफा करने की कोशिश करते रहे ; लेकिन हर किसी को आश्चर्य चकित करते हुए डॉ कलाम ने आयोजकों को शांत रहने के लिए कहा और कहा की हर व्यक्ति जो उनके साथ एक तस्वीर चाहता है, जब तक ले नहीं लेगा, वह नहीं जाएंगे!

Abdul Kalam – Inspirational Story #12

 
 एक घटना के दौरान एक बार, डॉ कलाम ने अपने लिए नामित एक कुर्सी पर बैठने से इसलिए इनकार कर दिया किया गया था क्योंकि वह कुर्सी अन्य कुर्सियों की तुलना में आकार में बड़ी थी. 
आईआईटी-वाराणसी के हाल के एक दीक्षांत समारोह में डॉ कलाम मुख्य अतिथि थे। मंच पर पाँच कुर्सियां थीं, जिनमें डॉ कलाम के लिए केंद्र की कुर्सी थी एवं विश्वविद्यालय के शीर्ष अधिकारियों के लिए नामित चार अन्य कुर्सियां थीं। अपनी कुर्सी को दूसरों की तुलना में आकार में बड़ा होने के नाते देखकर डॉ कलाम ने उस पर बैठने से इनकार कर दिया और अपने बजाय वाइस चांसलर को उस पर बैठाने की पेशकश की। कुलपति जाहिर है, ऐसा नहीं कर सके।
इसमें कोई शक नहीं था की आनन-फानन में एक और कुर्सी माननीय पूर्व राष्ट्रपति के लिए तुरंत उपलब्ध कराई जाए और ऐसा ही हुआ!

Abdul Kalam – Inspirational Story #13

 
 राष्ट्रपति कलाम ने राष्ट्रपति बनने के बाद केरल की अपनी पहली यात्रा के दौरान केरल के राजभवन में “राष्ट्रपति अतिथि के रूप में” किसे आमंत्रित किया?
1. एक सड़क का मोची
2. एक बहुत ही छोटे से होटल का स्वामी
यह मजाक नहीं है। राष्ट्रपति के रूप में डॉ कलाम त्रिवेंद्रम की अपनी पहली यात्रा के दौरान वे केरल के राजभवन में “राष्ट्रपति मेहमान ‘के रूप में अपनी तरफ से किन्ही दो लोगों को बुलाने का अधिकार था | डॉ कलाम ने त्रिवेंद्रम में एक वैज्ञानिक के रूप में एक महत्वपूर्ण समय बिताया था और उन्होंने एक सड़क के किनारे मोची को आमंत्रित किया जो  केरल में उनके समय के दौरान डॉ कलाम के काफी करीब था. उन्होंने उस छोटे से होटल के मालिक को भी आमंत्रित किया जहाँ डा कलाम अक्सर अपने भोजन के लिए जाते थे।

Abdul Kalam – Inspirational Story #14

 
 मुख्य अतिथि के रूप में एक कॉलेज के समारोह में भाग लेने के लिए जाने वाले ए पी जे ने एक बार रात में देर से समारोह स्थल पर जाकर घटना की आयोजन समिति के छात्रों को हैरान कर दिया।
उन्होंने कहा की वे इतनी रात आकर असल में मेहनती लोगों से मिलना चाहते थे. वे एक खुली जीप में बिना किसी सुरक्षा के साथ आये थे और उन्होंने आयोजकों से काफी बातें कीं.

Abdul Kalam – Inspirational Story #15

 
 राष्ट्रपति कलाम को अपने धन्यवाद कार्ड खुद ही लिखने के लिए जाना जाता है।

एक बार क्लास 6th के एक स्टूडेंट ने “Wings Of Fire”किताब पढने के बाद डॉ कलाम का एक स्केच बनाया। परिवार वालों ने encourage किया कि इसे President को भेजो। लड़के ने सोचा इससे क्या होगा, ये तो उन्हें मिलेगा भी नहीं, पर फिर भी बहुत जोर डालने पर उसने स्केच भेज दिया। कुछ दिन बाद उसे डॉ. कलाम का sign किया हुआ Thank You note आया।
Source- Internet,books

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दोस्तों यह पोस्ट कैसी लगी कृपया अपना फीडबैक जरुर दे , धन्यवाद 



Thanks for reading

NICE SAYING 2

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Table of Contents

NICE SAYING

PAGE-2

धीरे धीरे बहुत कुछ बदल रहा है…

लोग भी…

रिश्ते भी…

और कभी कभी हम खुद भी….

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एक बात हमेशा याद रखना

 ‘खुश-नसीब’ वो नहीं जिसका नसीब अच्छा है

बल्कि खुश-नसीब वो है….

जो अपने नसीब से खुश है……

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जिंदगी हमेशा एक नया मौका देती है…

सरल शब्दों में उसे ‘कल’ कहते हैं !!

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दुनिया सिर्फ नतीजो को इनाम देती है

कोशिशो को नही..

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कहीं जरूरत से कम

 तो कहीं जरूरत से ज्यादा

ए कुदरत 

तुझे हिसाब किताब करना नहीं आता।

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सब नजरीये की बात्त है जनाब…!!

कर्ण से कोइ पुछे,

 दुर्योधन कैसा था…!!!

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आईना हूं तेरा,

 क्यूं इतना कतरा रहे हो..

सच ही कहूंगा,

 क्यूं इतना घबरा रहे हो..

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खुद की तारीफ कर खुश होना सीख़ लो दोस्तों,

तुम्हारी बेइज्जती कर मजे लूटने वाले बहुत हैं…

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लोगो ने कुछ दिया,

 तो सुनाया भी बहुत कुछ;

ऐ खुदा;एक तेरा ही दर है,

 जहा कभी “ताना” नहीं मिला!

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इतना भी ना तराशो

 कि वजूद ही ना रहे हमारा……

हर पत्थर की किस्मत मे नहीं होता

 संवर कर खुदा हो जाना….

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परखता रहा उम्र भर,

 ताकत दवाओं की,

दंग रह गया देख कर,

 ताकत दुआओं की!

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“नींद तो अब भी बहुत आती है मगर…

समझा-बुझा के मुझे उठा देती हैं जिम्मेदारियां..!!

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एहसान ये रहा तोहमते लगाने वालों का मुझ पर,

उठती हुई उँगलियों ने मुझे मशहूर कर दिया।

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काश किस्मत भी नींदकी तरह होती ,

हर सुबह खुल जाती….

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ऐक बच्चा खुश हुआ खरीद कर गुब्बारा..

दुसरा बच्चा खुश हुआ बेच कर गुब्बारा..!!!

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अंजान अगर हो तो गुज़र क्यूँ नहीं जाते…

पहचान रहे हो तो ठहर क्यूँ नही जाते !

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हजारों ने दिल हारे हैं तेरी सूरत देखकर

कौन कहता है तस्वीरें जुआ नहीं खेलती…

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काटो पर चलने वाला इंसान अपनी मंजिल पर जल्दी पहुँच जाता है ।

क्योकी काटे पैरो की रफ्तार बढ़ा देते है ।

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मुझे उन आंखों मे कभी आंसु अच्छे नही लगते,

जीन आंखों मे मै अकसर खुद के लिये प्यार देखता हुं……..॥

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मासूमियत का इससे पवित्र प्रमाण कहीं देखा है ????

एक बच्चे कोउसकी माँ मार रही थी

और बचाने के लिये बच्चामाँ को ही पुकार रहा था…

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सैकड़ों शिकायतें रट रखी थी… 

उन्हें सुनाने को किताबों की तरह…

वो मुस्कुरा के ऐसे मिले…

 कि एक भी याद नहीं आई…

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” लहू बेच-बेच कर जिसने परिवार को पाला,

बो भूखा सो गया जब बच्चे कमाने वाले हो गए..”

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प्रेम से रहो दोस्तों 

जरा सी बात पे रूठा नहीं करते

पत्ते वहीं सुन्दर दिखते हैं

 जो शाख से टूटा नही करते…!

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खुशियां बेच दी मेने

 लोगो के गम खरीदने के लिए।

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नाराजगियों को कुछ दैर चुप रह कर मिटा लिया करो…

गलतियों पर बात करने से रिश्ते उलझ जाते हैं….

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एक मिनट में जिंदगी नहींबदलती,

पर एक मिनट सोच कर लिया हुआ फैसला,

पूरी जिंदगी बदल देता है.

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झूठ इसलिए बिक जाता है 

क्योकि सच को खरीदने की सबकी औकात नही है…!!

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दुनिया से चाहे जितना छिप लो मुखौटे लगा के..

जिंदगी आईने की तरह खींच लेती है,सेल्फ़ी हकीकत की…!!

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Thanks for reading

Ramavriksha Benipuri Biography In hindi

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 ‎रामवृक्ष_बेनीपुरी‬

 

‪#‎जिनका_बिहारी_होने_पर_हमें_गर्व_है‬

#‎रामवृक्ष_बेनीपुरी‬

रामवृक्ष बेनीपुरी (अंग्रेज़ी: Ramvriksh-Benipuri; जन्म- 23 दिसम्बर, 1899., मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार; मृत्यु- 9 सितम्बर, 1968, बिहार) भारत के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार और नाटककार थे। ये एक महान विचारक, चिन्तक, मनन करने वाले क्रान्तिकारी, साहित्यकार, पत्रकार और संपादक के रूप में भी अविस्मणीय हैं। बेनीपुरी जी हिन्दी साहित्य के ‘शुक्लोत्तर युग’ के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। ये एक सच्चे देश भक्त और क्रांतिकारी भी थे। इन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ में आठ वर्ष जेल में बिताये। हिन्दी साहित्य के पत्रकार होने के साथ ही इन्होंने कई समाचार पत्रों, जैसे- ‘युवक’ (1929) आदि भी निकाले। इसके अलावा कई राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम संबंधी कार्यों में भी संलग्न रहे।

‪#‎जन्म_तथा_शिक्षा‬

रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म 23 दिसम्बर, 1899 ई. में बेनीपुर नामक गाँव, मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला, बिहार में हुआ था। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव की पाठशाला में ही पाई थी। बाद में वे आगे की शिक्षा के लिए मुज़फ़्फ़रपुर के कॉलेज में भर्ती हो गए।

‪#‎स्वतंत्रता_संग्राम‬

इसी समय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ किया। ऐसे में बेनीपुरीजी ने भी कॉलेज त्याग दिया और निरंतर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़े रहे। इन्होंने अनेक बार जेल की सज़ा भी भोगी। ये अपने जीवन के लगभग आठ वर्ष जेल में रहे। समाजवादी आन्दोलन से रामवृक्ष बेनीपुरी का निकट का सम्बन्ध था। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय जयप्रकाश नारायण के हज़ारीबाग़ जेल से भागने में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनका साथ दिया और उनके निकट सहयोगी रहे।

‪#‎रचनाएँ‬

रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, जिसके कारण आजीवन वह चैन की साँस न ले सके। उनके फुटकर लेखों से और उनके साथियों के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि जीवन के प्रारंभ काल से ही क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण बार-बार उन्हें कारावास भोगना पड़ता। सन 1942 में ‘अगस्त क्रांति आंदोलन’ के कारण उन्हें हज़ारीबाग़ जेल में रहना पड़ा था। जेलवास में भी वह शान्त नहीं बैठे सकते थे। वे वहाँ जेल में भी आग भड़काने वाली रचनायें लिखते। जब भी वे जेल से बाहर आते, उनके हाथ में दो-चार ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ अवश्य होती थीं, जो आज साहित्य की अमूल्य निधि बन गई हैं। उनकी अधिकतर रचनाएँ जेल प्रवास के दौरान लिखी गईं।

उपन्यास – पतितों के देश में, आम्रपाली

कहानी संग्रह – माटी की मूरतें

निबंध – चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, गेहूँ और गुलाब, जंजीरें और दीवारें

नाटक – सीता का मन, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गाँवों के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा

संपादन – विद्यापति की पदावली

‪#‎साहित्यकारों_के_प्रति_सम्मान‬

रामवृक्ष बेनीपुरी की अनेक रचनाएँ, जो यश कलगी के समान हैं, उनमें ‘जय प्रकाश’, ‘नेत्रदान’, ‘सीता की माँ’, ‘विजेता’, ‘मील के पत्थर’, ‘गेहूँ और गुलाब’ आदि शामिल है। ‘शेक्सपीयर के गाँव में’ और ‘नींव की ईंट’, इन लेखों में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, साहित्य प्रेम, त्याग की महत्ता और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान भाव दर्शाया है, वह अविस्मरणीय है। इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के प्रति जो आदर भाव उन्हें देखने को मिला, वह उन्हें सुखद भी लगा और दु:खद भी। शेक्सपियर के गाँव के मकान को कितनी संभाल, रक्षण-सजावट के साथ संभाला गया है। उनकी कृतियों की मूर्तियाँ बनाकर वहाँ रखी गई हैं, यह सब देख कर वे प्रसन्न हुए थे। पर दु:खी इस बात से हुए कि हमारे देश में सरकार भूषण, बिहारी, सूरदास और जायसी आदि महान साहित्यकारों के जन्म स्थल की सुरक्षा या उन्हें स्मारक का रूप देने का भी प्रयास नहीं करती। उनके मन में अपने प्राचीन महान साहित्यकारों के प्रति अति गहन आदर भाव था। इसी प्रकार ‘नींव की ईंट’ में भाव था कि जो लोग इमारत बनाने में तन-मन कुर्बान करते हैं, वे अंधकार में विलीन हो जाते हैं। बाहर रहने वाले गुम्बद बनते हैं और स्वर्ण पत्र से सजाये जाते हैं। चोटी पर चढ़ने वाली ईंट कभी नींव की ईंट को याद नहीं करती।

‪#‎ख्याति‬

पत्रकार और साहित्यकार के रूप में बेनीपुरीजी ने विशेष ख्याति अर्जित की थी। उन्होंने विभिन्न समयों में लगभग एक दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। उनकी लेखनी बड़ी निर्भीक थी। उन्होंने इस कथन को अमान्य सिद्ध कर दिया था कि अच्छा पत्रकार अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता। उनका विपुल साहित्य, शैली, भाषा और विचारों की दृष्टि से बड़ा ही प्रभावकारी रहा है। उपन्यास, जीवनियाँ, कहानी संग्रह, संस्मरण आदि विधाओं की लगभग 80 पुस्तकों की उन्होंने रचना की थी। इनमें ‘माटी की मूरतें’ अपने जीवंत रेखाचित्रों के लिए आज भी याद की जाती हैं।

‪#‎विधान_सभा_सदस्य‬

रामवृक्ष बेनीपुरी 1957 में बिहार विधान सभा के सदस्य भी चुने गए थे। सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श पर चलते हुए उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में बहुत काम किया था। वे भारतीयता के सच्चे अनुयायी थे और सामाजिक भेदभावों पर विश्वास नहीं करते थे।

‪#‎दिनकरजी_का_कथन‬

रामधारी सिंह दिनकर ने एक बार बेनीपुरीजी के विषय में कहा था कि- “स्वर्गीय पंडित रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे, उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी, जो कलम से निकल कर साहित्य बन जाती है। वे उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है। बेनीपुरीजी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे।”

‪#‎सम्मान‬

वर्ष 1999 में ‘भारतीय डाक सेवा’ द्वारा रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्रभाषा अपनाने की अर्धशती वर्ष में डाक-टिकटों का एक संग्रह जारी किया। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा ‘वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार’ दिया जाता है।

‪#‎निधन‬

रामवृक्ष बेनीपुरी जी का निधन 7 सितम्बर, 1968 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ।

GOPAL SINGH NEPALI BIOGRAPHY IN HINDI

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Table of Contents

‪गोपाल सिंह नेपाली(GOPAL SINGH NEPALI)‬

 

‪#‎जिनका_बिहारी_होने_पर_हमें_गर्व_है‬

 

‪#‎गोपाल_सिंह_नेपाली‬

कलम की स्वाधीनता के लिए आजीवन संघर्षरत रहे ‘गीतों के राजकुमार’ गोपाल सिंह नेपाली लहरों की धारा के विपरीत चलकर हिन्दी साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म उद्योग में ऊंचा स्थान हासिल करने वाले छायावादोत्तर काल के विशिष्ट कवि और गीतकार थे।साहित्यिक कविताओं, जन कविताओं के साथ-साथ हिन्दी फिल्मों के लिए भी इन्होने 400 से अधिक गीत लिखे।

गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 को बेतिया, पश्चिमी चम्पारन (बिहार) में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह है। नेपाली प्रवेशिका तक शिक्षित थे।

 बचपन से ही थे  कवी

गोपाल सिंह नेपाली की काव्य प्रतिभा बचपन में ही दिखाई देने लगी थी। एक बार एक दुकानदार ने बच्चा समझकर उन्हें पुराना कार्बन दे दिया जिस पर उन्होंने वह कार्बन लौटाते हुए दुकानदार से कहा- ‘इसके लिए माफ कीजिएगा गोपाल पर, सड़ियल दिया है आपने कार्बन निकालकर’। उनकी इस कविता को सुनकर दुकानदार काफी शर्मिंदा हुआ और उसने उन्हें नया कार्बन निकालकर दे दिया।

4 हिंदी  पत्रिकाओ का किया संपादन 

साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पारंगत नेपाली की पहली कविता ‘भारत गगन के जगमग सितारे’ 1930 में रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा संपादित बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने कम से कम 4 हिन्दी पत्रिकाओं- रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का संपादन किया।

रामधारी सिंह ‘दिनकर भी उनके  मुरीद हुए 

युवावस्था में नेपालीजी के गीतों की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें आदर के साथ कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उस दौरान एक कवि सम्मेलन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ उनके एक गीत को सुनकर गद्गनद् हो गए। वह गीत था


सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की

कर दे फीका रंग चुनरी का, दोपहरी नैनीताल की

क्या दरस-परस की बात यहां, जहां पत्थर में भगवान है

यह मेरा हिन्दुस्तान है, यह मेरा हिन्दुस्तान है…

पत्नी थी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से

नेपालीजी के गीतों की उस दौर में धूम मची हुई थी लेकिन उनकी माली हालत खराब थी। वे चाहते तो नेपाल में उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्था हो सकती थी, क्योंकि उनकी पत्नी नेपाल के राजपुरोहित के परिवार से ताल्लुक रखती थीं लेकिन उन्होंने बेतिया में ही रहने का निश्चय किया।


‘मजदूर’ के लिए नेपाली ने   लिखे गीत

वर्ष 1944 में मुंबई में उनकी मुलाकात फिल्मीस्तान के मालिक सेठ तुलाराम जालान से हुई जिन्होंने नेपाली को 200 रुपए प्रतिमाह पर गीतकार के रूप में 4 साल के लिए अनुबंधित कर लिया। फिल्मीस्तान के बैनर तले बनी ऐतिहासिक फिल्म ‘मजदूर’ के लिए नेपाली ने सर्वप्रथम गीत लिखे।

60 से अधिक फिल्मों के लिए लिखे  गीत 

फिल्मों में बतौर गीतकार नेपालीजी 1944 से 1962 तक गीत लेखन करते रहे। इस दौरान उन्होंने 60 से अधिक फिल्मों के लिए लगभग 400 से अधिक गीत लिखे। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकतर गीतों की धुनें भी खुद उन्होंने बनाईं। नेपालीजी ने हिमालय फिल्म्स और नेपाली पिक्चर्स फिल्म कंपनी की स्थापना कर नजराना (1949), सनसनी (1951) और खुशबू (1955) जैसी कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया।

नेपालीजी को जीते-जी वह सम्मान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे। अपनी इस भावना को उन्होंने कविता में इस तरह उतारा था-


अफसोस नहीं हमको जीवन में कुछ कर न सके

झोलियां किसी की भर न सके, संताप किसी का हर न सके

अपने प्रति सच्चा रहने का जीवनभर हमने यत्न किया

देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके।



17
अप्रैल 1963 को अपने जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ करके लौटते समय बिहार के भागलपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर 2 पर गोपालसिंह नेपाली का अचानक निधन हो गया।

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BIRBAL JHA BIOGRAPHY IN HINDI

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  बीरबल झा  (BIRBAL JHA)

 

‪#‎जिनका_बिहारी_होने_पर_हमें_गर्व_है‬

‪#‎बीरबल_झा‬

मिथिलांचल के मधुबनी ज़िले के सिजौल नामक एक छोटे से गांव से अपना सफर शुरू करने वाले बीरबल झा ने अंग्रेजी न जानने की अपनी कमजोरी और उसके कारण मिली उपेक्षा को ही अपना हथियार बना लिया और वर्ष १९९३ में पटना में ‘ब्रिटिश लिंग्वा’ नामक संस्था की नींव रखी. आज यह संस्था समूचे बिहार ही नहीं बल्कि कुछ अन्य प्रदेशों सहित दिल्ली में भी लोगों को अंग्रेजी सीखाने के कार्य में लगी हुई है! बिहारी युवाओं को अंग्रेजी सिखाकर उन्हें बेहतर कैरियर व सम्मान दिलाने की मुहिम में लगे डॉ. झा के जीवन का मक़सद अब अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार करना ही रह गया है.

अंग्रेजी शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. बीरबल झा के इस महती योगदान के लिए उन्हें देश-विदेश से कई सम्मान मिले हैं जिससे उनकी एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान भी बनी है! ‘लिंग्वा बुलेटिन’ नामक अंग्रेजी पत्रिका के संपादक व लगभग 20 पुस्तकों के लेखक डॉ. झा ने अपनी मुहिम को और आगे बढ़ाते हुए अब ‘बिहार अंग्रेजी आंदोलन’ के जरिए अंग्रेजी को गांव-गांव और घर-घर तक पहुँचाने का कार्यक्रम शुरू किया है

‪#‎Birth‬

Dr Birbal Jha was born in a remote village of Madhubani district of Bihar, namely Sijaul which is around 23 km away from the small town. He was born to Sri Dayanand Jha and Smt. Jaipura Devi. His father left for heavenly abode when the child Birbal was only one and a half years old.

‪#‎Early_Life‬

He lived his early life in the village till he reached the age of sixteen. He led a somewhat miserable life. Just writing his board exam he moved to Patna, in search of a job and to pursue his higher studies.

The self dependent Jha earned a degree of PHD, holds two masters from Patna University known as the Oxford University of Bihar. He found himself drawn towards Journalism and Mass Communication as he had a natural flare for writing.

‪#‎Profession‬

He started his career as a teacher of English and did a lot of research on the teaching of English skill for the people of India. His research on the subject is not only his assets but is also of the state and nation. His expertise on the subject drew the attention of national and international media like the New York Times.

He founded British Lingua, an English language training institution in 1993. This has grown to around 20 centres all over India and is known for its effective teaching methods throughout India. Since it’s beginning, hundreds of thousands of students have gained fluency in English using British Lingua.

‪#‎Works‬

Dr Birbal Jha has authored over two dozen books on English and general interests, the best selling of these being Spoken English Kit in which he explains spoken English in a very scientific way, using formula’s he developed himself to explain clearly and simply how English is spoken and sentences are structured.

Recognition

Recognising the expertise and scholarship of Dr Birbal Jha, the Government of Bihar entrusted him the assignment of implementing English teacher training project which he successfully completed, setting a benchmark in the field of English education in Bihar. This gained him critical applause from the Government as well as from many media sources.

He has won over the hearts and minds of millions of people of Bihar, particularly the youth in the state where he has become somewhat of an icon.

‪#‎Awards‬

1. National Education Excellence Award 2010 by Economic Development Forum

2. Service Excellence Award by the Govt of India Undertaking

3. Service Excellence Award by the Government of Delhi

4. Service Excellence Award by Govt of Bihar

5. Best Language Training Institute Award by Times Research

6. Service Excellence Award by Amrapali Foundation

7. English Language Awareness Award by Saindhav Foundation

8. Kriti Purush Award by Vidyapati Smarak Manch, Kolkata

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BISMILLAH KHAN BIOGRAPHY IN HINDI

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उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ

BISMILLAH KHAN BIOGRAPHY IN HINDI

#‎जिनका_बिहारी_होने_पर_हमें_गर्व_है‬

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Bismillah Khan, जन्म- 21 मार्च, 1916, बिहार; मृत्यु- 21 अगस्त, 2006) ‘भारत रत्न’ से सम्मानित प्रख्यात शहनाई वादक थे। सन 1969 में ‘एशियाई संगीत सम्मेलन’ के ‘रोस्टम पुरस्कार’ तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक विशिष्ट पहचान दिलवाने में मुख्य योगदान दिया। वर्ष 1947 में देश की आज़ादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर भारत का तिरंगा फहरा रहा था, तब बिस्मिल्लाह ख़ान की शहनाई भी वहाँ आज़ादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री  के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह ख़ान का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी।‪#‎जीवन_परिचय‬

बिस्मिल्लाह ख़ाँ का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमरांव नामक स्थान पर हुआ था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते थे। उनके परदादा शहनाई नवाज़ उस्ताद सालार हुसैन ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। बिस्मिल्लाह ख़ाँ को उनके चाचा अली बक्श ‘विलायतु’ ने संगीत की शिक्षा दी, जो बनारस के पवित्र विश्वनाथ मन्दिर में अधिकृत शहनाई वादक थे।

‪#‎नामकरण_तथा_शिक्षा‬

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ के नाम के साथ एक दिलचस्प वाकया भी जुड़ा हुआ है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श ख़ाँ ने उनकी तरफ़ देखते हुए ‘बिस्मिल्ला’ कहा। इसके बाद उनका नाम ‘बिस्मिल्ला’ ही रख दिया गया। उनका एक और नाम ‘कमरूद्दीन’ था। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर ख़ाँ इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहाँ उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। ख़ाँ साहब ‘काशी विश्वनाथ मंदिर’ से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे।

‪#‎जटिल_संगीत_रचना‬

बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में लाल क़िले से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया।

‪#‎उल्लेखनीय_तथ्य‬

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां पर जारी डाक टिकट

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने ‘बजरी’, ‘चैती’ और ‘झूला’ जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- “क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं”।

उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब विवाह आदि में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है। उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।

‪#‎विदेशों_में_वादन‬

अफ़ग़ानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ साहब विद्या की हिन्दू देवी सरस्वती के परम उपासक थे। ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ और ‘शांतिनिकेतन’ ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था। उनकी शहनाई की गूँज आज भी लोगों के कानों में गूँजती है।

‪#‎शहनाई_ही_बेगम_और_मौसिकी‬

‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ाँ शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उनके ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है- “ख़ाँ साहब कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।” किताब में मिश्र ने बनारस से बिस्मिल्लाह ख़ाँ के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है कि- “ख़ाँ साहब कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह ज़िंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।”

‪#‎जुगलबंदी‬

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर ‘शास्त्रीय संगीत’ का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। उस्ताद विलायत ख़ाँ के सितार और पण्डित वी. जी. जोग के वायलिन के साथ ख़ाँ साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल. पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि- “सिर्फ़ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है”। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने बिस्मिल्ला ख़ाँ के शहनाई वादन पर आपत्ति की। उन्होंने आँखें बद कीं और उस पर “अल्लाह हू” बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा- “मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा हराम है”। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्ला ख़ाँ के बाजे में पहले वह आकर्षण और वजन नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली कि व्यायाम किए बिना साँस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा। इस पर बिस्मिल्ला ख़ाँ उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह गंगा के घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है कि वे बरसों पूरे भारत में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।

‪#‎स्वतंत्रता_दिवस_पर_शहनाई‬

भारत की आजादी और ख़ाँ की शहनाई का भी ख़ास रिश्ता रहा है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। ख़ाँ ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफ़ग़ानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।

‪#‎फ़िल्मी_सफ़र‬

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फ़िल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फ़िल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फ़िल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फ़िल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।

‪#‎संत_संगीतकार‬

संगीतकारों का मानना है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की बदौलत ही शहनाई को पहचान मिली है और आज उसके विदेशों तक में दीवाने हैं। वो ऐसे इंसान और संगीतकार थे कि उनकी प्रशंसा में संगीतकारों के पास भी शब्दों की कमी नज़र आई। पंडित जसराज हों या हरिप्रसाद चौरसिया सभी का मानना है कि वो एक संत संगीतकार थे।

‪#‎पंडित_जसराज_के_श्रीमुख_से‬

पंडित जसराज का मानना है- उनके जैसा महान संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूं। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।

‪#‎हरिप्रसाद_चौरसिया_के_श्रीमुख_से‬

बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया का कहना है- बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब भारत की एक महान विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।

‪#‎सम्मान_एवं_पुरस्कार‬

सन 1956 में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

सन 1961 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

सन 1968 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

सन 1980 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

2001 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

मध्य प्रदेश में उन्हें सरकार द्वारा तानसेन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

#निधन

बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और 21 अगस्त, 2006 को 90 वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया

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ASHOK KUMAR BIOGRAPHY IN HINDI

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 अशोक   कुमार‬

अशोक कुमार हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता-निर्देशक थे।उनका जन्म 13 अक्तूबर, 1911 को हुआ था |  अशोक कुमार को सन् 1999 में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। हिन्दी सिनेमा के युगपुरुष कुमुद कुमार गांगुली उर्फ अशोक कुमार को ऐसे अभिनेता के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने उस समय प्रचलित थियेटर शैली को समाप्त कर अभिनय को स्वाभाविकता प्रदान की और छह दशकों तक अपने बेहतरीन काम से सिनेप्रेमियों को रोमांचित किया। अशोक कुमार का असली नाम कुमुद गांगुली है। इन्हें दादा मुनी के नाम से जाना जाता है। अशोक कुमार ने 300 से ज़्यादा फ़िल्मों में अभिनय किया।

‪#‎जीवन_परिचय‬

अशोक कुमार का जन्म बिहार के भागलपुर शहर के आदमपुर मोहल्ले के एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। अशोक कुमार सभी भाई-बहनों में बड़े थे। उनके पिता कुंजलाल गांगुली मध्य प्रदेश के खंडवा में वकील थे।गायक एवं अभिनेता किशोर कुमार एवं अभिनेता अनूप कुमार उनके छोटे भाई थे। दरअसल इन दोनों को फ़िल्मों में आने की प्रेरणा भी अशोक कुमार से ही मिली। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में प्राप्त की थी और बाद में अशोक कुमार ने अपनी स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की थी। अशोक कुमार ने अभिनय की प्रचलित शैलियों को दरकिनार कर दिया और अपनी स्वाभाविक शैली विकसित की थी। वह कभी भी जोखिम लेने में नहीं घबराए और पहली बार हिन्दी सिनेमा में एंटी हीरो की भूमिका की थी। अशोक कुमार ने सन् 1934 में न्यू थिएटर में बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट के रूप में काम किया था।

अशोक, अनूप और किशोर कुमार ने ‘चलती का नाम गाड़ी’ में काम किया। इस कॉमेडी फ़िल्म में भी अशोक कुमार ने बड़े भाई की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में मधुबाला ने भी काम किया था। किशोर कुमार ने अपने कई साक्षात्कारों में यह बात स्वीकार की थी कि उन्हें न केवल अभिनय बल्कि गाने की प्रेरणा भी अशोक कुमार से मिली थी क्योंकि अशोक कुमार ने बचपन में उनके भीतर बालगीतों के जरिए गायन के संस्कार डाले थे।


‪#‎अभिनय_की_शुरुआत‬

फ़िल्म जगत में दादामुनी के नाम से लोकप्रिय अशोक कुमार के अभिनय सफर की शुरुआत किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं थी। 1936 में बांबे टॉकीज स्टूडियो की फ़िल्म ‘जीवन नैया’ के अभिनेता अचानक बीमार हो गए और कंपनी को नए कलाकार की तलाश थी। ऐसी स्थिति में स्टूडियो के मालिक हिमांशु राय की नज़र आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लैबोरेटरी असिस्टेंट अशोक कुमार पर पड़ी और उनसे अभिनय करने का प्रस्ताव दिया था। यहीं से उनके अभिनय का सफ़र शुरू हो गया। उनकी अगली फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ थी। 1937 में प्रदर्शित फ़िल्म अछूत कन्या में देविका रानी उनकी नायिका थीं। यह फ़िल्म कामयाब रही और उसने दादामुनी को बड़े सितारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। उस ज़माने के लिहाज़ से यह महत्त्वपूर्ण फ़िल्म थी और इसी के साथ सामाजिक समस्याओं पर आधारित फ़िल्मों की शुरुआत हुई। देविका रानी के साथ उन्होंने आगे भी कई फ़िल्में की जिनमें ‘इज्जत’, ‘सावित्री’, ‘निर्मला’ आदि शामिल हैं। इसके बाद उनकी जोड़ी लीला चिटनिस के साथ बनी

‪#‎सफलता‬

एक स्टार के रूप में अशोक कुमार की छवि 1943 में आई ‘क़िस्मत’ फ़िल्म से बनी। पर्दे पर सिगरेट का धुँआ उड़ाते अशोक कुमार ने राम की छवि वाले नायक के उस दौर में इस फ़िल्म के जरिए एंटी हीरो के पात्र को निभाने का जोखिम उठाया। यह जोखिम उनके लिए बेहद फ़ायदेमंद साबित हुआ और इस फ़िल्म ने सफलता के कई कीर्तिमान बनाए। उसी दशक में उनकी एक और फ़िल्म महल आई, जिसमें मधुबाला थीं। रोमांचक फ़िल्म महल को भी बेहद कामयाबी मिली। बाद के दिनों में जब हिन्दी सिनेमा में दिलीप, देव और राज की तिकड़ी की लोकप्रियता चरम पर थी, उस समय भी उनका अभिनय लोगों के सर चढ़कर बोलता रहा और उनकी फ़िल्में कामयाब होती रहीं। अपने दौर की अन्य अभिनेत्रियों के साथ-साथ अशोक कुमार ने मीना कुमारी के साथ भी कई फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें पाकीज़ा, बहू बेगम, एक ही रास्ता, बंदिश, आरती आदि शामिल हैं। अशोक कुमार के अभिनय की चर्चा उनकी आशीर्वाद फ़िल्म के बिना अधूरी ही रहेगी। इस फ़िल्म में उन्होंने एकदम नए तरह के पात्र को निभाया। इस फ़िल्म में उनका गाया गीत रेलगाड़ी रेलगाड़ी.. काफ़ी लोकप्रिय हुआ था।

‪#‎चरित्र_अभिनेता‬

अशोक कुमार ने बाद के जीवन में चरित्र अभिनेता की भूमिकाएँ निभानी शुरू कर दी थीं। इन भूमिकाओं में भी अशोक कुमार ने जीवंत अभिनय किया। अशोक कुमार गंभीर ही नहीं हास्य अभिनय में भी महारथ रखते थे। विक्टोरिया नंबर 203 फ़िल्म हो या शौक़ीन, अशोक कुमार ने हर किरदार में कुछ नया पैदा करने का प्रयास किया। उम्र बढ़ने के साथ ही उन्होंने सहायक और चरित्र अभिनेता का किरदार निभाना शुरू कर दिया लेकिन उनके अभिनय की ताजगी क़ायम रही। ऐसी फ़िल्मों में क़ानून, चलती का नाम गाड़ी, छोटी सी बात, मिली, ख़ूबसूरत, गुमराह, एक ही रास्ता, बंदिनी, ममता आदि शामिल हैं।[1] उन्होंने विलेन की भी भूमिका की। देव आनंद की ज्वैल थीफ़ में उन्होंने विलेन की भूमिका की थी।


‪#‎फ़िल्म_निर्माण‬

पचास के दशक मे बाम्बे टॉकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू की और जूपिटर थिएटर को भी ख़रीद लिया। अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहली फ़िल्म समाज का निर्माण किया, लेकिन यह फ़िल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह असफल रही। इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फ़िल्म परिणीता भी बनाई। लगभग तीन वर्ष के बाद फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में घाटा होने के कारण उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी। 1953 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘परिणीता’ के निर्माण के दौरान फ़िल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन हो गई थी। जिसके कारण उन्होंने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया, लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमल रॉय के साथ 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी में काम किया। यह फ़िल्म हिन्दी फ़िल्म के इतिहास में आज भी क्लासिक फ़िल्मों में शुमार की जाती है। 1967 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘ज्वैलथीफ़’ में अशोक कुमार के अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला। इस फ़िल्म में वह अपने सिने कैरियर मे पहली बार खलनायक की भूमिका में दिखाई दिए। इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। अभिनय में आई एकरुपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए अशोक कुमार ने खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इनमें 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘आर्शीवाद’ ख़ास तौर पर उल्लेखनीय है। फ़िल्म में बेमिसाल अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म में उनका गाया गाना रेल गाड़ी-रेल गाड़ी बच्चों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ।


‪#‎अन्य_विशेषताएँ‬

‘दादामुनी’ मतलब बड़े भाई के नाम से मशहूर अशोक कुमार एक बेहतरीन चित्रकार, शतरंज खिलाड़ी, एक होम्योपैथ व कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने कई फ़िल्मों में स्वयं गाने भी गाए। फ़िल्म ही नहीं अशोक कुमार ने टीवी में भी काम किया। भारत के पहले सोप ओपेरा ‘हम लोग’ में उन्होंने सूत्रधार की भूमिका निभाई। सूत्रधार के रूप में अशोक कुमार ‘हम लोग’ के एक अभिन्न अंग बन गए। दर्शक आख़िर में की जाने वाली उनकी टिप्पणी का इंतज़ार करते थे क्योंकि वह टिप्पणी को हर बार अलग तरीके से दोहराते थे। इसके अलावा उन्होंने आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के जीवन पर आधारित धारावाहिक में भी बेहतरीन भूमिका निभाई।


‪#‎पुरस्कार‬

अशोक कुमार को फ़िल्मी सफर में कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया और क़रीब छह दशक तक बेमिसाल अभिनय से दर्शकों को रोमांचित किया।

1959 संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

1962 राखी फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था।

1967 अफ़साना फ़िल्म के लिए सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था।

1969 आशीर्वाद फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था।

1969 आशीर्वाद फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला था।

1988 दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

1994 स्टार स्क्रीन लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

1995 फ़िल्मफ़ेयर लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।

1999 पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

2001 उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अवध सम्मान दिया गया।

2007 स्टार स्क्रीन की तरफ़ से “विशेष पुरस्कार” पुरस्कार से सम्मान दिया गया।

‪#‎मृत्यु‬

क़रीब छह दशक तक बेमिसाल अभिनय से दर्शकों को रोमांचित करने वाले दादामुनी अशोक कुमार 10 दिसंबर 2001 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। वह आज भले ही हमारे बीच नहीं हो लेकिन वह क़रीब 275 फ़िल्मों की ऐसी विरासत छोड़ गए हैं जो हमेशा-हमेशा के लिए दर्शकों को सोचने, गुदगुदाने और रोमांचित करने के लिए पर्याप्त हैं।

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KARPURI THAKUR BIOGRAPHY IN HINDI

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 कर्पुरी   ठाकुर‬

(KARPURI THAKUR BIOGRAPHY IN HINDI)

कर्पुरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 – 18 फरवरी 1988) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के दूसरे उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता था| [4] कर्पूरी ठाकुर का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान समस्तीपुर के एक गाँव पितौंझिया, जिसे अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है, में हुआ था।[भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने २६ महीने जेल में बिताए थे। वह 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे।

वह जन नायक कहलाते हैं। सरल और सरस हृदय के राजनेता माने जाते थे। सामाजिक रुप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में जन्म लेने वाले इस महानायक ने राजनीति को भी जन सेवा की भावना के साथ जिया। उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जन नायक कहा जाता था, वह सदा गरीबों के हक़ के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया।उनका जीवन लोगों के लिया आदर्श से कम नहीं।

महाकवि कबीर ने कहा है-‘सहज सहज सब कोई कहे, सहज न जाने कोइ.’ मेरा मानना है कि जननायक कर्पूरी ठाकुर का संपूर्ण जीवन ही सहजता का पर्याय था. इसी सहजता की वजह से उनका परिवेशगत स्वभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक एक-सा बना रहा. बोलचाल, भाषाशैली, खान-पान, रहन-सहन और रीति-नीति आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने ग्रामीण संस्कार और संस्कृति को अपनाए रखा. सभा-सम्मेलनों तथा पार्टी और विधानसभा की बैठकों में भी उन्होंने बड़े से बड़े प्रश्नों पर बोलते समय उन्हीं लोकोक्तियों और मुहावरों का, जो हमारे गांवों और घरों में बोले जाते हैं, सर्वदा इस्तेमाल किया.

कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंतण्रथा. वे भाषा के कुशल कारीगर थे. उनका भाषण आडंबररहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था. कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है. उनकी आवाज बहुत ही खनकदार और चुनौतीपूर्ण होती थी, लेकिन यह उसी हद तक सत्य, संयम और संवेदना से भी भरपूर होती थी. कर्पूरी जी को जब कोई गुमराह करने की कोशिश करता था तो वे जोर से झल्ला उठते थे तथा क्रोध से उनका चेहरा लाल हो उठता था. ऐसे अवसरों पर वे कम ही बोल पाते थे, लेकिन जो नहीं बोल पाते थे, वह सब उनकी आंखों में साफ-साफ झलकने लगता था. फिर भी विषम से विषम परिस्थितियों में भी शिष्टाचार और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं का उन्होंने कभी भी उल्लंघन नहीं किया.

सामान्य, सरल और सहज जीवनशैली के हिमायती कर्पूरी ठाकुर जी को प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों से जूझना पड़ा. ये अंतर्विरोध अनोखे थे और विघटनकारी भी. हुआ यह कि आजादी मिलने के साथ ही सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई. बिहार में कांग्रेस पर ऊंची जातियों का कब्जा था. ये ऊंची जातियां सत्ता का अधिक से अधिक स्वाद चखने के लिए आपस में लड़ने लगीं. पार्टी के बजाय इन जातियों के नाम पर वोट बैंक बनने लगे. सन 1952 के प्रथम आम चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर की कुछ संख्या बहुल पिछड़ी जातियों ने भी अलग से एक गुट बना डाला, जिसका नाम रखा गया ‘त्रिवेणी संघ’. अब यह संघ भी उस महानाटक में सम्मिलित हो गया.

शीघ्र ही इसके बुरे नतीजे सामने आने लगे. संख्याबल, बाहुबल और धनबल की काली ताकतें राजनीति और समाज को नियंत्रित करने लगीं. राजनीतिक दलों का स्वरूप बदलने लगा. निष्ठावान कार्यकर्ता औंधे मुंह गिरने लगे. कर्पूरी जी ने न केवल इस परिस्थिति का डटकर सामना किया, बल्कि इन प्रवृत्तियों का जमकर भंडाफोड़ भी किया. देश भर में कांग्रेस के भीतर और भी कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया. कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी. कर्पूरी जी उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने. उनका कद ऊंचा हो गया. उसे तब और ऊंचाई मिली जब वे 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने.

हुआ यह था कि 1977 के चुनाव में पहली बार राजनीतिक सत्ता पर पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी. मगर प्रशासन-तंत्र पर उनका नियंतण्रनहीं था. इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी. कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया. इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ. अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए. मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा. उनका कद और भी ऊंचा हो गया. अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए.

जननायक कर्पूरी जी जीवन भर बिहार के हक की लड़ाई लड़ते रहे. वह खनिज पदाथरे के ‘माल भाड़ा समानीकरण’ का विरोध, खनिजों की रायल्टी वजन के बजाए मूल्य के आधार पर तय कराने तथा पिछड़े बिहार को विशेष पैकेज की मांग के लिए संघर्ष करते रहे. जीवन के अंतिम दिनों में सीतामढ़ी के सोनवरसा विधानसभा क्षेत्र का विधायक रहते हुए उन्होंने श्री देवीलाल द्वारा प्रदान न्याय रथ से बिहार को जगाया. गांधी मैदान पटना में ‘न्याय मार्च रैली’ आयोजित कर केंद्र को चुनौती दी, इसके बाद वे काल के गाल में समा गए. 17 फरवरी,1988 को वे हमारे बीच से सदा के लिए चले गए. माल भाड़ा समानीकरण 1992 में समाप्त हुआ.

1. कर्पूरी के ‘कर्पूरी ठाकुर’ होने की कहानी भी बहुत दिलचस्प है. वशिष्ठ नारायण सिंह लिखते हैं, समाजवादी नेता रामनंदन मिश्र का समस्तीपुर में भाषण होने वाला था, जिसमें छात्रों ने कर्पूरी ठाकुर से अपने प्रतिनिधि के रूप में भाषण कराया. उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर मिश्र ने कहा कि यह कर्पूरी नहीं, ‘कर्पूरी ठाकुर’ है और अब इसी नाम से तुम लोग इसे जानो और तभी से कर्पूरी, कर्पूरी ठाकुर हो गए.

2. कर्पूरी ठाकुर का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो जन्मतिथि लिखकर नहीं रखते और न फूल की थाली बजाते हैं. 1924 में नाई जाति के परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर की जन्मतिथि 24 जनवरी 1924 मान ली गई. स्कूल में नामांकन के समय उनकी जन्मतिथि 24 जनवरी 1924 अंकित हैं.

3. बेदाग छवि के कर्पूरी ठाकुर आजादी से पहले 2 बार और आजादी मिलने के बाद 18 बार जेल गए.

4. ये कर्पूरी ठाकुर का ही कमाल था कि लोहिया की इच्छा के विपरीत उन्होंने सन् 1967 में जनसंघ-कम्युनिस्ट को एक चटाई पर समेटते हुए अवसर और भावना से सदा अनुप्राणित रहने वाले महामाया प्रसाद सिन्हा को गैर-कांग्रेसवाद की स्थापना के लिए मुख्यमंत्री बनाने की दिशा में पहल की और स्वयं को परदे के पीछे रखकर सफलता भी पाई.

5. अपने लेख में राजीव रंजन लिखते हैं, किसी को लिखाते समय ही यदि उन्हें नींद आ जाती थी, तो नींद टूटने के बाद वे ठीक उसी शब्द से वह बात लिखवाना शुरू करते थे, जो लिखवाने के ठीक पहले वे सोये हुए थे.

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GURU GOBIND SINGH BIOGRAPHY IN HINDI

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गुरु गोविन्द सिंह‬  

(GURU GOBIND SINGH BIOGRAPHY IN HINDI)

   #‎जिनका_बिहारी_होने_पर_हमें_गर्व_है‬

गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: २२ दिसम्बर १६६६, मृत्यु: ७ अक्टूबर १७०८) सिखों के दसवें गुरु थे। उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। उन्होने सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।

गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया।

उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम,उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।

गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।

‪#‎जीवन_परिचय‬

गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई. को पटना, बिहार में हुआ था। इनका मूल नाम ‘गोबिन्द राय’ था। गोबिन्द सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ ‘दसम ग्रंथ’ (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।

“मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।”

बचपन

गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग़बहादुर की धर्मपत्नी माता गुजरी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। खिलौनों से खेलने की उम्र में गोबिन्द जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोबिन्द बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोबिन्द एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे। वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोबिन्द से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,

“उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।”

‪#‎नौ_वर्ष_की_आयु_में_गद्दी‬

तेग़बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में ‘गुरु गोबिन्द राय’ को बैठाया गया था। ‘गुरु’ की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोबिन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल

‪#‎मुख्य_लेख‬ : पंच प्यारे

पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोबिन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया। बैसाखी का एक महत्त्व यह है कि परम्परा के अनुसार पंजाब में फ़सल की कटाई पहली बैसाख को ही शुरू होती है और देश के दूसरे हिस्सों में भी आज ही के दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाया जाता है, जिनके नाम भले ही अलग-अलग हों। आज के दिन यदि हम श्री गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन के आदर्शों को, देश, समाज और मानवता की भलाई के लिए उनके समर्पण को अपनी प्रेरणा का स्रोत बनाऐं और उनके बताये गए रास्ते पर निष्ठापूर्वक चलें तो कोई कारण नहीं कि देश के अन्दर अथवा बाहर से आए आतंकवादी और हमलावर हमारा कुछ भी बिगाड़ सकें।

‪#‎सिक्खों_में_युद्ध_का_उत्साह‬

गुरु गोबिन्द सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर क़दम उठाया। वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। खालसा को पुर्नसंगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये।

पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और

दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।

उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोबिन्द सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए।

‪#‎वीरता_और_बलिदान‬

गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।

‪#‎बहादुर_शाह_प्रथम_से_भेंट‬

8 जून 1707 ई. आगरा के पास जांजू के पास लड़ाई लड़ी गई, जिसमें बहादुरशाह की जीत हुई। इस लड़ाई में गुरु गोबिन्द सिंह की हमदर्दी अपने पुराने मित्र बहादुरशाह के साथ थी। कहा जाता है कि गुरु जी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया, उनकी मदद की। इससे बादशाह बहादुरशाह की जीत हुई। बादशाह ने गुरु गोबिन्द सिंह जी को आगरा बुलाया। उसने एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी, गुरुजी को भेंट की। मुग़लों के साथ एक युग पुराने मतभेद समाप्त होने की सम्भावना थी। गुरु साहब की तरफ से 2 अक्टूबर 1707 ई. और धौलपुर की संगत तरफ लिखे हुक्मनामा के कुछ शब्दों से लगता है कि गुरुजी की बादशाह बहादुरशाह के साथ मित्रतापूर्वक बातचीत हो सकती थी। जिसके खत्म होने से गुरु जी आनंदपुर साहिब वापस आ जांएगे, जहाँ उनको आस थी कि खालसा लौट के इकट्ठा हो सकेगा। पर हालात के चक्कर में उनको दक्षिण दिशा में पहुँचा दिया। जहाँ अभी बातचीत ही चल रही थी। बादशाह बहादुरशाह कछवाहा राजपूतों के विरुद्ध कार्यवाही करने कूच किया था कि उसके भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरु जी को भी साथ ले गया।

‪#‎वीरता_व_बलिदान_की_मिसालें‬

परदादा गुरु अर्जन देव की शहादत।

दादा गुरु हरगोबिन्द द्वारा किए गए युद्ध।

पिता गुरु तेग़बहादुर सिंह की शहादत।

दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना।

दो पुत्रों को ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया जाना।

इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोबिन्द सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने ख़ालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। ‘अकाल उस्तति’ में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि

“हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।”

‪#‎ख़ालसा_पंथ‬

ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह ख़लिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोबिन्द सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था। ‘ज़फ़रनामा’ में स्वयं गुरु गोबिन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानि ख़ालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ़ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है-

“मानस की जात सभैएक है।”

ख़ालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोबिन्द को ‘मीरी’ और ‘पीरी’ दो तलवारें पहनाई गई थीं।

एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।

दूसरी सांसारिकता की।

गुरु गोबिन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। ख़ालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज़्बा था।

एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर

गुरु गोबिन्द ने बनाया पंथ ख़ालसा

पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए

नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा

ज़ोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए

जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा

चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने

मुग़लों के सर पे जो छा गया था काल सा

गुरु गोबिन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है- पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- ख़ालसा मेरो रूप है ख़ास, ख़ालसा में हो करो निवास।


‪#‎पाँच_ककार‬

युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पाँच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है:-

केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे।

कंघा : केशों को साफ़ करने के लिए।

कच्छा : स्फूर्ति के लिए।

कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।

कृपाण : आत्मरक्षा के लिए।

जहाँ शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोबिन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोबिन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। शान्ति एवं समाज कल्याण उनका था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हज़ारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगज़ेब को फ़ारसी में लिखे अपने पत्र ज़फ़रनामा में लिखते हैं- औरंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। तूने क़ुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूँगा, लड़ाई नहीं करूँगा, यह क़सम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर।


‪#‎महान_विद्वान‬

एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिंह एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने 52 कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोबिन्द सिंह की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं- ज़फ़रनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ को अन्तिम गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-

“आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयो पंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरु मानियहु ग्रंथ।”

गुरु नानक की दसवीं जोत गुरु गोबिन्द सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-

“मैं हूँ परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा।”

गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो।

‪#‎ज्ञाता_और_ग्रंथकार‬

यद्यपि सब गुरुओं ने थोड़े बहुत पद, भजन आदि बनाए हैं, पर गुरु गोबिन्द सिंह काव्य के अच्छे ज्ञाता और ग्रंथकार थे। सिखों में शास्त्रज्ञान का अभाव इन्हें बहुत खटका था और इन्होंने बहुत से सिखों को व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि के अध्ययन के लिए काशी भेजा था। ये हिंदू भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करते रहे। ‘तिलक’ और ‘जनेऊ’ की रक्षा में इनकी तलवार सदा खुली रहती थी। यद्यपि सिख संप्रदाय की निर्गुण उपासना है, पर सगुण स्वरूप के प्रति इन्होंने पूरी आस्था प्रकट की है और देव कथाओं की चर्चा बड़े भक्तिभाव से की है। यह बात प्रसिद्ध है कि ये शक्ति के आराधक थे। इन्होंने हिन्दी में कई अच्छे और साहित्यिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें से कुछ के नाम ये हैं – सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर और चंडीचरित्र। चंडीचरित्र की रचना पद्धति बड़ी ही ओजस्विनी है। ये प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा लिखते थे।

‪#‎मृत्यु‬

गुरु गोबिन्द सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और ‘गुरुग्रन्थ साहिब’ ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। गुरु गोबिन्दसिंह की मृत्यु 7 अक्तूबर सन् 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी। आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोबिन्द सिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।

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CHANKYA BIOGRAPHY IN HINDI

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चाणक्य (कौटिल्य)‬

#‎जिनका_बिहारी_होने_पर_हमें_गर्व_है‬

महान कूटनीतिज्ञ अर्थशाष्त्री और राजनीतिज्ञ चाणक्य का जन्म ईसा पूर्व तीसरी या चौथी शताब्दी माना जाता है ।चाणक्य ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना और चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके पिता का नाम चणक था, इसी कारण उन्हें ‘चाणक्य’ कहा जाता है। वैसे उनका वास्तविक नाम ‘विष्णुगुप्त’ था। कुटिल कुल में पैदा होने के कारण वे ‘कौटिल्य’ भी कहलाये।

चाणक्य के जीवन से जुड़ी हुई कई कहानियां प्रचलित हैं।

एक बार चाणक्य कहीं जा रहे थे। रास्ते में कुशा नाम की कंटीली झाड़ी पर उनका पैर पड़ गया, जिससे पैर में घाव हो गया। चाणक्य को कुशा पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने वहीं संकल्प कर लिया कि जब तक कुशा को समूल नष्ट नहीं कर दूंगा तब तक चैन से नहीं बैठूँगा। वे उसी समय मट्ठा और कुदाली लेकर पहुंचे और कुशों को उखाड़-उखाड़ कर उनकी जड़ों में मट्ठा डालने लगे ताकि कुशा पुनः न उग आये। इस कहानी से पता चलता है कि चाणक्य कितने कठोर, दृढ संकल्प वाले और लगनशील व्यक्ति थे। जब वे किसी काम को करने का निश्चय कर लेते थे तब उसे पूरा किये बिना चैन से नहीं बैठते थे।

एक बार की बात है , मगध साम्राज्य के सेनापति किसी व्यक्तिगत काम से चाणक्य से मिलने पाटलिपुत्र पहुंचे । शाम ढल चुकी थी , चाणक्य गंगा तट पर अपनी कुटिया में, दीपक के प्रकाश में कुछ लिख रहे थे।

कुछ देर बाद जब सेनापति भीतर दाखिल हुए, उनके प्रवेश करते ही चाणक्य ने सेवक को आवाज़ लगायी और कहा , ” आप कृपया इस दीपक को ले जाइए और दूसरा दीपक जला कर रख दीजिये।”

सेवक ने आज्ञा का पालन करते हुए ठीक वैसा ही किया।

जब चर्चा समाप्त हो गयी तब सेनापति ने उत्सुकतावश प्रश्न किया-“ हे महाराज मेरी एक बात समझ नही आई ! मेरे आगमन पर आपने एक दीपक बुझवाकर रखवा दिया और ठीक वैसा ही दूसरा दीपक जला कर रखने को कह दिया .. जब दोनों में कोई अंतर न था तो ऐसा करने का क्या औचित्य है ?”

इस पर चाणक्य ने मुस्कुराते हुए सेनापति से कहा- “भाई पहले जब आप आये तब मैं राज्य का काम कर रहा था, उसमे राजकोष का ख़रीदा गया तेल था , पर जब मैंने आपसे बात की तो अपना दीपक जलाया क्योंकि आपके साथ हुई बातचीत व्यक्तिगत थी मुझे राज्य के धन को व्यक्तिगत कार्य में खर्च करने का कोई अधिकार नही, इसीलिए मैंने ऐसा किया। ”

उन्होंने कहना जारी रखा-“ स्वदेश से प्रेम का अर्थ है अपने देश की वस्तु को अपनी वस्तु समझकर उसकी रक्षा करना..ऐसा कोई काम मत करो जिससे देश की महानता को आघात पहुचे, प्रत्येक देश की अपनी संस्कृति और आदर्श होते हैं.. उन आदर्शों के अनुरूप काम करने से ही देश के स्वाभिमान की रक्षा होती है। ”

चाणक्य की शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला में हुई। तक्षशिला उस समय का विश्व-प्रसिद्ध विश्विद्यालय था। देश विदेश के विभिन्न छात्र वहाँ शिक्षा प्राप्त करने आते थे। छात्रों को चरों वेद, धनुर्विद्या, हाथी और घोड़ों का सञ्चालन, अठारह कलाओं के साथ-साथ न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सामाजिक कल्याण आदि के बारे में शिक्षा दी जाती थी। चाणक्य ने भी ऐसी ही उच्च शिक्षा प्राप्त की। फलतः बुद्धिमान चाणक्य का व्यक्तित्व तराशे हुए हीरे के समान चमक उठा। तक्षशिला में अपनी विद्वता और बुद्धिमत्ता का परचम फहराने के बाद वह वहीं राजनीतिशास्त्र के आचार्य बन गए। देश भर में उनकी विद्वत्ता की चर्चा होने लगी।

उस समय पाटलिपुत्र मगध राज्य की राजधानी थी और वहां घनानंद नाम का राजा राज्य करता था। मगध देश का सबसे बड़ा राज्य था और घनानंद उसका शक्तिशाली राजा। लेकिन घनानंद अत्यंत लोभी और भोगी-विलासी था। प्रजा उससे संतुष्ट नहीं थी। चाणक्य एक बार राजा से मिलने के लिए पाटलिपुत्र आये। वे देशहित में घनानंद को प्रेरित करने आये थे ताकि वे छोटे-छोटे राज्यों में बंटे देश को आपसी वैर-भावना भूलकर एकसूत्र में पिरो सकें। लेकिन घनानंद ने चाणक्य का प्रस्ताव ठुकरा दिया और उन्हें अपमानित करके दरबार से निकाल दिया। इससे चाणक्य के स्वाभिमान को गहरी चोट लगी और वे बहुत क्रोधित हुए। अपने स्वभाव के अनुकूल उन्होंने चोटी खोलकर दृढ संकल्प किया कि जब तक वह घनानंद को अपदस्थ करके उसका समूल विनाश न कर देंगे तब तक चोटी में गांठ नहीं लगायेंगे। जब घनानंद को इस संकल्प की बात पता चली तो उसने क्रोधित होकर चाणक्य को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। लेकिन जब तक चाणक्य को बंदी बनाया जाता तब तक वे वहां से निकल चुके थे। महल से बाहर आते ही उन्होंने सन्यासी का वेश धारण किया और पाटलिपुत्र में ही छिपकर रहने लगे।

एक दिन चाणक्य की भेंट बालक चन्द्रगुप्त से हुई, जो उस समय अपने साथियों के साथ राजा और प्रजा का खेल खेल रहा था। राजा के रूप में चन्द्रगुप्त जिस कौशल से अपने संगी-साथियों की समस्या को सुलझा रहा था वह चाणक्य को भीतर तक प्रभावित कर गया। चाणक्य को चन्द्रगुप्त में भावी राजा की झलक दिखाई देने लगी। उन्होंने चन्द्रगुप्त के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की और उसे अपने साथ तक्षशिला ले गए। वहां चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को वेद-शास्त्रों से लेकर युद्ध और राजनीति तक की शिक्षा दी। लगभग आठ साल तक अपने संरक्षण में चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके चाणक्य ने उसे एक शूरवीर बना दिया । उन्हीं दिनों विश्व विजय पर निकले यूनानी सम्राट सिकंदर विभिन्न देशों पर विजय प्राप्त करता हुआ भारत की ओर बढ़ा चला आ रहा था। गांधार का राजा आंभी सिकंदर का साथ देकर अपने पुराने शत्रु राजा पुरू को सबक सिखाना चाहता था।

चाणक्य को आंभी की यह योजना पता चली तो वे आंभी को समझाने के लिए गए। आंभी से चाणक्य ने इस सन्दर्भ में विस्तार पूर्वक बातचीत की, उसे समझाना चाहा, विदेशी हमलावरों से देश की रक्षा करने के लिए उसे प्रेरित करना चाहा; किन्तु आंभी ने चाणक्य की एक भी बात नहीं मानी। वह सिकंदर का साथ देने के लिए कटिबद्ध रहा। कुछ ही दिनों बाद जब सिकंदर गांधार प्रदेश में प्रविष्ट हुआ तो आंभी ने उसका जोरदार स्वागत किया। आंभी ने उसके सम्मान में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया, जिसमें गांधार के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ-साथ तक्षशिला के आचार्य और छात्र भी आमंत्रित किये गए थे। इस सभा में चाणक्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त भी उपस्थित थे। सभा के दौरान सिकंदर के सम्मान सम्मान में उसकी प्रशंसा के पुल बांधे गए। उसे महान बताते हुए देवताओं से उसकी तुलना की गयी सिकंदर ने अपने व्याख्यान में अप्रत्यक्षतः भारतीयों को धमकी-सी दी कि उनकी भलाई इसी में है कि वे उसकी सत्ता स्वीकार कर लें। चाणक्य ने सिकंदर की इस धमकी का खुलकर बड़ी ही संतुलित भाषा में विरोध किया। वे विदेशी हमलावरों से देश की रक्षा करना चाहते थे। चाणक्य के विचारों और नीतियों से सिकंदर प्रभावित अवश्य हुआ लेकिन विश्व विजय की लालसा के कारण वह युद्ध से विमुख नहीं होना चाहता था।

सभा विसर्जन के बाद चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के सहयोग से तक्षशिला के पांच सौ छात्रों को संगठित किया और उन्हें लेकर राजा पुरु से भेंट की । चाणक्य को देशहित में पुरु का सहयोग मिलने में कोई कठिनाई नहीं हुई । जल्दी ही सिकंदर ने पुरु पर चढ़ाई कर दी। पुरु को चाणक्य और चन्द्रगुप्त का सहयोग प्राप्त था, इसलिए उसका मनोबल बढ़ा हुआ था । युद्ध में पुरु और उसकी सेना ने सिकंदर के छक्के छुड़ा दिए; लेकिन अचानक सेना के हाथी विचलित हो गए, जिससे पुरु की सेना में भगदड़ मच गई। सिकंदर ने उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया और पुरु को बंदी बना लिया । बाद में उसने पुरु से संधि कर ली। यह देखकर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर पुरु का साथ छोड़ने में ही भलाई समझी। इसके बाद चाणक्य अन्य राजाओं से मिले और उन्हें सिकंदर से युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे । इसी बीच सिकंदर की सेना में फूट पड़ गयी। सैनिक लम्बे समय से अपने परिवारों से बिछुड़े हुए थे और युद्ध से ऊब चुके थे। इसलिए वे घर जाना चाहते थे । इधर बहरत में भी सिकंदर के विरुद्ध चाणक्य और चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में विभिन्न राजागण सिर उठाने लगे थे । यह देखकर सिकंदर ने यूनान लौटने का फैसला कर लिया। कुछ ही दिनों में बीमारी से उसकी मौत हो गई।

अब चाणक्य के समक्ष घनानंद को अपदस्थ करके एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने का लक्ष्य था। इस बीच चन्द्रगुप्त ने देश-प्रेमी क्षत्रियों की एक सेना संगठित कर ली थी । अतः चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध पर आक्रमण करने को प्रेरित किया। अपनी कूट नीति के बल पर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध पर विजय दिलवाई । इस युद्ध में राजा घनानंद की मौत हो गयी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध का सम्राट घोषित कर दिया। बड़े जोर शोर से उसका स्वागत हुआ। चन्द्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य को महामंत्री बनाना चाहता था किन्तु चाणक्य ने यह पद स्वीकार नहीं किया । वह मगध के पूर्व महामंत्री ‘राक्षस’ को ही यह पद देना चाहते थे। किन्तु राक्षस पहले ही कहीं छिप गया था और अपने राजा घनानंद की मौत का बदला लेने का अवसर ढूँढ़ रहा था। चाणक्य यह बात जानते थे। उन्होंने राक्षस को खोजने के लिए गुप्तचर लगा दिए और एक कूटनीतिक चाल द्वारा राक्षस को बंदी बना लिया। चाणक्य ने राक्षस को कोई सजा नहीं दी, बल्कि चन्द्रगुप्त को सलाह दी कि वह उसके तमाम अपराध क्षमा करके उसे महामंत्री पद पर प्रतिष्ठित करे। चाणक्य खुद गंगा के तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे। वहीं से वह राज्य की रीति-नीति का निर्धारण करते और चन्द्रगुप्त को यथायोग्य परामर्श देते रहते।

अपनी प्रखर कूटनीति के द्वारा आचार्य चाणक्य ने बिखरे हुए भारतीयों को राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरोकर महान राष्ट्र की स्थापना की। किन्तु विशाल मौर्य साम्राज्य के संस्थापक होते हुए भी वे अत्यंत निर्लोभी थे। पाटलिपुत्र के महलों में न रहकर वे गंगातट पर बनी एक साधारण-सी कुटिया में रहते थे और गोबर के उपलों पर अपना भोजन स्वयं तैयार करते थे। चाणक्य द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य कालांतर में एक महान साम्राज्य बना। चन्द्रगुप्त ने उनके मार्गदर्शन में लगभग चौबीस वर्ष राज्य किया और पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में बंगाल और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में मैसूर तक एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।

आचार्य चाणक्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ एवं ‘नीतिशास्त्र’ नामक ग्रंथों की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है। चाणक्य नीति में वर्णित सूत्र का उपयोग आज भी राजनीति के मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में किया जाता है।

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