नारी – केदारनाथ मिश्र ” प्रभात “
किसने देखी है ऐसी शक्ति विधानों में
ऐसा आकर्षण मिला किसे उद्यानों में
बरसे जैसा सौंदर्य तुम्हारी चितवन से
तुम सचमुच हो देवार्ह दिव्य तन से, मन से |
सुख में अनछुई किरण बन सदा झलकती हो
दुःख मे कोमल आँसू की भांति छलकती हो
वह दीपक कैसा , जिसकी स्नेहील शिखा न हो
जिसके हर कम्पन में अर्पण सुख लिखा न हो
कैसी निष्ठा जो मरू को सरस हिलोर न दे
उर -उर बंध जाये , ऐसी रेशम डोर न दे |
तुम जहाँ मधुर हो , वहां कोकिला गाती है
तुम जहाँ मृदुल हो , वहां चांदनी भाती है
तुम जहाँ क्षमा हो , गंगा वहां उमड़ती है
तुम क्षेमा जहाँ ,घटा घनघोर घुमड़ती है |
तुम जहाँ मौन हो ,वहां सिन्धु की ज्वार उठे
तुम जहाँ मुखर हो ,वहां बसंत पुकार उठे
तुम जहाँ स्वप्न हो , छाया वहां मचलती है
तुम जहाँ सत्य हो ,वहां तपस्या चलती है |
तुफानो में तुम झुक जाती हो ,टूटती नहीं
प्यालिया छलकती भावों को , फूटती नहीं
तुम रहती मन के पास की प्यासा राह चले
तुम रहती मन के पास की तम में दीप जले
तुम रहती मन के पास की पथ भरी न लगे
चन्द्रमा न हो , पर रजनी अंधियारी न लगे |
तुम रहती मन के पास की आँसू आग न बने
सम्पूर्ण शुन्य दीपित हो , दीपक राग न बने
तुम रहती मन के पास की पृथ्वी खिली रहे
नभ के तारो से हिय की धड़कन मिली रहे |
नक्षत्र व्योम के छंद चितेरे झांक रहे
भू की कविता तुम , नयन भविष्यत झांक रहे
नर से नारी सेवा के लिए विभक्त हुयी