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Saturday, December 21, 2024
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ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं – कांति मोहन सोज़

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ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं – कांति मोहन सोज़

 

ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं

ये भूख ग़रीबी बदहाली हरगिज़ हमको मँज़ूर नहीं ।।

चलते हैं मशीनों के चक्के इन चौड़े कन्धों के बल से
माटी को बनाते हैं सोना हम अपने जतन से कौशल से
मेहनत से कमाई दौलत को पूँजी ले जाती है छल से
ये राज़ हमें मालूम मगर ये हाल हमें मँज़ूर नहीं ।।

ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं I
ये भूख ग़रीबी बदहाली हरगिज़ हमको मंज़ूर नहीं ।।

सरमाए का जादू टूट गया मेहनत की हिना रंग लाने लगी
उम्मीद की डाली फलने लगी अरमानों की ख़ुशबू आने लगी
सदियों का अन्धेरा टूट गया आकाश पे लाली छाने लगी
उस भोर के दीवाने हैं हम ये रात हमें मंज़ूर नहीं ।।

ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं I
ये भूख ग़रीबी बदहाली हरगिज़ हमको मंज़ूर नहीं ।।

ये जंग है जंगे-आज़ादी मज़दूर हैं आज सिपाही भी
बुनियादे-जहाने-नौ के लिए तामीर है आज तबाही भी
हाथों में दमकते हँसिए हैं लो आ पहुँचे हमराही भी
रखते हैं जान हथेली पर झुकना अपना दस्तूर नहीं ।।

ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं I
ये भूख ग़रीबी बदहाली हरगिज़ हमको मंज़ूर नहीं ।।

ज़ुल्मों की तिजौरी तोड़के हम हक़ छीन के अपना मानेंगे
नफ़रत से भरी इस दुनिया के नक़्शे को बदल के मानेंगे
मंज़िल के लिए हैं गर्मे-सफ़र मंज़िल पे पहुँच के मानेंगे
पैरों से वो मंजिल दूर सही आँखों से वो मंज़िल दूर नहीं ।।

ये बात ज़माना याद रखे मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं I
ये भूख ग़रीबी बदहाली हरगिज़ हमको मंज़ूर नहीं ।।

जितने भी हुए हैं ज़ुल्मो-सितम
जितने भी मिले हैं रंजो-अलम

उतना ही शेर हुए हैं हम
कुछ और दिलेर हुए हैं हम
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।

दो जून नहीं एक जून सही
भूखों रहकर भी जीते हैं
हम रोज़ खोदते हैं कूआँ
तब जाकर पानी पीते हैं
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।

ज़ख़्मों से अगरचे चूर हैं हम
मंज़िल से अगरचे दूर हैं हम
ये बात ज़माना याद रखे
मजबूर नहीं मज़दूर हैं हम
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।

जिस रोज़ बिगुल बज जाएगा
ये टाट पलट कर रख देंगे
हम रोज़ उलटते हैं धरती
धरती को उलटकर रख देंगे
ऐसी ही ज़ात हमारी है
कुछ ऐसी ही तैयारी है ।।

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