कामचोर – कहानी (इस्मत चुगतई)

Amit Kumar Sachin

बडी देर के वाद-विवाद के बाद यह तय हुआ कि सचमुच नौकरों को निकाल दिया जाए। आखिर, ये मोटे-मोटे किस काम के हैं! हिलकर पानी नहीं पीते। इन्हें अपना काम खुद करने की आदत होनी चाहिए। कामचोर कहीं के!

““तुम लोग कुछ नहीं। इतने सारे हो और सारा दिन ऊधम मचाने के सिवा कुछ नहीं करते।”

और सचमुच हमें खयाल आया कि हम आखिर काम क्‍यों नहीं करते? हिलकर पानी पीने में अपना कया खर्च होता है? इसलिए हमने तुरंत हिल-हिलाकर पानी पीना शुरू किया।

हिलने में धक्के भी लग जाते हैं और हम किसी के दबेल तो थे नहीं कि कोईधक्का दे, तो सह जाए। लीजिए,

पानी के मटकों के पास ही घमासान युद्ध हो गया। सुराहियाँ उधर लुढ़कीं। मटके इधर गए। कपडे भीगे, सो अलग।

“यह भला काम करेंगे।’ अम्मा ने निश्चय किया।

“करेंगे केसे नहीं! देखो जी! जो काम नहीं करेगा, उसे रातका खाना हरगिज नहीं मिलेगा। समझे। ”यह लीजिए बिलकुल शाहीफरमान जारी हो रहे हें।

““हम काम करने को तैयार हैं। काम बताए जाएँ,” हमने दुहाई दी।

““बहुत-से काम हें जो तुम कर सकते हो। मिसाल के लिए, यह दरी कितनी मैली हो रही है। आँगन में कितना कूड़ा पड़ा हे। पेड़ों में पानी देना है और भाई मुफ्त तो यह काम करवाए नहीं जाएगे। तुम सबको तनख्वाह भी मिलेगी।”

अब्बा मियाँ ने कुछ काम बताए ओर दूसरे कामों का हवाला भी दिया-माली को तनख्वाह मिलती है। अगर सब बच्चे मिलकर पानी डालें, तो…

‘ऐ हे! खुदा के लिए नहीं। घर में बाढ आ जाएगी।’ अम्मा ने याचना की। फिर भी तनख्वाह के सपने देखते हुए हम लोग काम पर तुल गए।

एक दिन फर्शी दरी पर बहुत-से बच्चे जुट गए और चारों ओर से कोने पकड़कर झटकना शुरू किया। दो-चार ने लकडियाँ लेकर धुआँधार पिटाई शुरू कर दी।

सारा घर धूल से अट गया। खाँसते-खाँसते सब बेदम हो गए। सारी धूल जो दरी पर थी, जो फर्श पर थी, सबके सिरों पर जम गई। नाकों ओर आँखों में घुस गई। बुरा हाल हो गया सबका। हम लोगों को तुरंत आँगन में निकाला गया। वहाँ हम लोगों ने फौरन झाड़ू देने का फैसला किया।

झाड़ू क्योंकि एक थी और तनख्वाह लेनेवाले उम्मीदवार बहुत, इसलिए क्षण-भर में झाड़्‌ के पुर्ज उड़ गए। जितनी ” सींके जिसके हाथ पडीं, वह उनसे ही उलटे-सीधे हाथ मारने लगा। अम्मा ने सिर पीट लिया। भई, ये बुजुर्ग काम करने दें तो इंसान काम करे। जब ज़रा-ज़रा सी बात पर टोकने लगे तो बस, हो चुका काम!

असल में झाड़्‌ देने से पहले ज़रा-सा पानी छिड़क लेना चाहिए। बस, यह खयाल आते ही तुरंत दरी पर पानी छिड़का गया। एक तो वैसे ही धूल से अटी हुई थी। पानी पड़ते ही सारी धूल कीचड़ बन गई।

अब सब आँगन से भी निकाले गए। तय हुआ कि पेड़ों को पानी दिया जाए। बस, सारे घर की बालटियाँ, लोटे, तसले, भगोने, पतीलियाँ लूट ली गईं। जिन्हें ये चीजें भी न मिलीं, वे डोंगे-कटोरे ओर गिलास ही ले भागे। अब सब लोग नल पर टूट पडे। यहाँ भी वह घमासान मची कि क्‍या मजाल जो एक बूँद पानी भी किसी के बर्तन में आ सके। ठूसम-ठास! किसी बालटी पर पतीला ओर पतीले पर लोटा और भगोने और डोंगे। पहले तो धक्के चले। फिर कुहनियाँ और उसके बाद बरतन। फोरन बडे भाइयों, बहनों, मामुओं और दमदार मौसियों, फूफियों की कुमक भेजी गई, फौज मैदान में हथियार फेंककर पीठ दिखा गई।

इस धींगामुश्ती में कुछ बच्चे कीचड में लथपथ हो गए जिन्हें नहलाकर कपड़े बदलवाने के लिए नोौकरों की वर्तमान संख्या काफी नहीं थी। पास के बंगलों से नौकर आए ओर चार आना प्रति बच्चा के हिसाब से नहलवाए गए।

हम लोग कायल हो गए कि सचमुच यह सफ़ाई का काम अपने बस की बात नहीं ओर न पेड़ों की देखभाल हमसे हो सकती है। कम-से-कम मुर्गियाँ ही बंद कर दें।

बस, शाम ही से जो बाँस, छडी हाथ पडी, लेकर मुर्गियाँ हाँकने लगे। ‘चल दड़बे, दडबे।’

पर साहब, मुर्गियों को भी किसी ने हमारे विरुद्ध भड़का रखा था। ऊट-पटाँग इधर-उधर कूदने लगीं। दो मुर्गियाँ खीर के प्यालों से जिन पर आया चाँदी के वर्क लगा रही थी, दौड़ती-फडफडाती हुई निकल गईं।

तूफ़ान गुजरने के बाद पता चला कि प्याले खाली हैं ओर सारी खीर दीदी के कामदानी के दुपट्टे ओर ताजे धुले सिर पर लगी हुई है। एक बडा-सा मुर्गा अम्मा के खुले हुए पानदान में कूद पड़ा और कत्थे-चूने में लुथडे हुए पंजे लेकर नानी अम्मा की सफ़ेद दूध जैसी चादर पर छापे मारता हुआ निकल गया।

एक मुर्गी दाल की पतीली में छपाक मारकर भागी और सीधी जाकर मोरी में इस तेज़ी से फिसली कि सारी कीचड मौसी जी के मुँह पर पडी जो बेठी हुई हाथ-मुँह धो रही थीं। इधर सारी मुर्गियाँ बेनकेल का ऊँट बनी चारों तरफ़ दौड़ रही थीं।

एक भी दड॒बे में जाने को राजी न थी।

इधर, किसी को सूझी कि जो भेडें आई हुई हैं, लगे हाथों उन्हें भी दाना खिला दिया जाए। दिन-भर की भूखी भेडें दाने का सूप देखकर जो सबकी सब झपटी तो भागकर जाना कठिन हो गया। लश्टम-पश्टम तख्तों पर चढ़ गईं। पर भेड-चाल मशहूर है। उनकी नज़र तो बस दाने के सूप पर जमी हुई थी। पलंगों को फलागती, बरतन लुढ़काती साथ-साथ चढ़ गईं।

तख्त पर बानी दीदी का दुपट्टा फैला हुआ था जिस पर गोखरी, चंपा और सलमा-सितारे रखकर बडी दीदी मुगलानी बुआ को कुछ बता रही थीं। भेडें बहुत निःसंकोच सबको रौंदती, मेंगनों का छिड़काव करती हुई दौड़ गईं।

जब तूफ़ान गुजर चुका तो ऐसा लगा जैसे जर्मनी की सेना टेंकों ओर बमबारों सहित उधर से छापा मारकर गुजर गई हो। जहाँ-जहाँ से सूप गुजरा, भेडें शिकारी कुत्तों की तरह गंध सूघती हुई हमला करती गईं।

हज्जन माँ एक पलंग पर दुपट्टे से मुँह ढाँके सो रही थीं। उन पर से जो भेडें दौड़ीं तो न जाने वह सपने में किन महलों की सैर कर रही थीं, दुपट्टे में उलझी हुई ‘मारो-मारो’ चीखने लगीं।

इतने में भेडें सूप को भूलकर तरकारीवाली की टोकरी पर टूट पडीं। वह दालान में बेठी मटर की फलियाँ तोल-तोल कर रसोइए को दे रही थी। वह अपनी तरकारी का बचाव करने के लिए सीना तान कर उठ गई। आपने कभी भेडों को मारा होगा, तो अच्छी तरह देखा होगा कि बस, ऐसा लगता है जैसे रुई के तकिए को कूट रहे हों। भेड को चोट ही नहीं लगती। बिलकुल यह समझकर कि आप उससे मज़ाक कर रहे हैं। वह आप ही पर चढ्‌ बेठेगी। ज़रा-सी देर में भेडों ने तरकारी छिलकों समेत अपने पेट की कडाही में झोंक दी।

इधर यह प्रलय मची थी, उधर दूसरे बच्चे भी लापरवाह नहीं थे। इतनी बड़ी फोज थी-जिसे रात का खाना न मिलने की धमकी मिल चुकी थी। वे चार भेंसों का दूध दुहने पर जुट गए। धुली-बेधुली बालटी लेकर आठ हाथ चार थनों पर पिल पडे। भैंस एकदम जेसे चारों पैर जोड़कर उठी और बालटी को लात मारकर दूर जा खडी हुई।

तय हुआ कि भेंस की अगाडी-पिछाडी बाँध दी जाए और फिर काबू में लाकर दूध दुह लिया जाए। बस, झूले की रस्सी उतारकर भैंस के पेर बाँध दिए गए। पिछले दो पैर चाचा जी की चारपाई के पायों से बाँध, अगले दो पैरों को बाँधने की कोशिश जारी थी कि भैंस चौकननी को गई। छूटकर जो भागी तो पहले चाचा जी समझे कि शायद कोई सपना देख रहे हैं। फिर जब चारपाई पानी के ड्रम से टकराई और पानी छलककर गिरा तो समझे कि आँधी-तूफ़ान में फँसे हैं। साथ में भूचाल भी आया हुआ है। फिर जल्दी ही उन्हें असली बात का पता चल गया और वह पलंग की दोनों पटियाँ पकडे, बच्चों को छोड़ देनेवालों को बुरा-भला सुनाने लगे।

यहाँ बड़ा मज़ा आ रहा था। भैंस भागी जा रही थी ओर पीछे-पीछे चारपाई और उस पर बेठे हुए थे चाचा जी। ओहो! एक भूल ही हो गई यानी बछड़ा तो खोला ही नहीं, इसलिए तत्काल बछड़ा भी खोल दिया गया।

तीर निशाने पर बेठा और बछडे की ममता में व्याकुल होकर भैंस ने अपने खुरों को ब्रेक लगा दिए। बछड़ा तत्काल जुट गया। दुहने वाले गिलास-कटोरे लेकर लपके क्योंकि बालटी तो छपाक से गोबर में जा गिरी थी। बछडा फिर बागी हो गया।

कुछ दूध जमीन पर और कपड़ों पर गिरा। दो-चार धारें गिलास-कटोरों पर भी पड॒ गईं। बाकी बछड़ा पी गया। यह सब कुछ, कुछ मिनट के तीन-चोौथाई में हो गया।

घर में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। ऐसा लगता था जैसे सारे घर में मुर्गियाँ, भेडें, टूटे हुए तसले, बालटियाँ, लोटे, कटोरे और बच्चे थे। बच्चे बाहर किए गए। मुर्गियाँ बाग में हँकाई गईं। मातम-सा मनाती तरकारी वाली के आँसू पोंछे गए और अम्मा आगरा जाने के लिए सामान बाँधने लगीं।

“या तो बच्चा-राज कायम कर लो या मुझे ही रख लो। नहीं तो में चली मायके ,’” अम्मा ने चुनोती दे दी।

ओर अब्बा ने सबको कतार में खड़ा करके पूरी बटालियन का कोर्ट मार्शल कर दिया। “अगर किसी बच्चे ने घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो बस, रात का खाना बंद हो जाएगा।’

ये लीजिए| इन्हें किसी करवट शांति नहीं। हम लोगों ने भी निश्चय कर लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, हिलकर पानी भी नहीं पिएंगे।

-इस्पत चुगताई

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