गुनाहों  का देवता (उपन्यास) – भाग 19

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1998

गुनाहों  के  देवता – धर्मवीर भारती

  भाग 19

 

चन्दर पम्मी को लौटाने नहीं गया। कॉलेज भी नहीं गया। एक लम्बा-सा खत बिनती को लिखता रहा और इसकी प्रतिलिपि कर दोनों नत्थी कर भेज दिये और उसके बाद थककर सो गया…बिना खाना खाये!

तीन

गर्मियों की छुट्टियाँ हो गयी थीं और चन्दर छुट्टियाँ बिताने दिल्ली गया था। सुधा भी आयी हुई थी। लेकिन चन्दर और सुधा में बोलचाल नहीं थी। एक दिन शाम के वक्त डॉक्टर साहब ने चन्दर से कहा, ”चन्दर, सुधा इधर बहुत अनमनी रहती है, जाओ इसे कहीं घुमा लाओ।” चन्दर बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। दोनों पहले कनॉट प्लेस पहुँचे। सुधा ने बहुत फीकी और टूटती हुई आवाज में कहा, ”यहाँ बहुत भीड़ है, मेरी तबीयत घबराती है।” चन्दर ने कार घुमा दी शहर से बाहर रोहतक की सड़क पर, दिल्ली से पन्द्रह मील दूर। चन्दर ने एक बहुत हरी-भरी जगह में कार रोक दी। किसी बहुत पुराने पीर का टूटा-फूटा मजार था और कब्र के चबूतरे को फोडक़र एक नीम का पेड़ उग आया था। चबूतरे के दो-तीन पत्थर गिर गये थे। चार-पाँच नीम के पेड़ लगे थे और कब्र के पत्थर के पास एक चिराग बुझा हुआ पड़ा था और कई एक सूखी हुई फूल-मालाएँ हवा से उड़कर नीचे गिर गयी थीं। कब्र के आस-पास ढेरों नीम के तिनके और सूखे हुए नीम के फूल जमा थे।

सुधा जाकर चबूतरे पर बैठ गयी। दूर-दूर तक सन्नाटा था। न आदमी न आदमजाद। सिर्फ गोधूलि के अलसाते हुए झोंकों में नीम चरमरा उठते थे। चन्दर आकर सुधा की दूसरी ओर बैठ गया। चबूतरे पर इस ओर सुधा और उस ओर चन्दर, बीच में चिर-नीरव कब्र…

सुधा थोड़ी देर बाद मुड़ी और चन्दर की ओर देखा। चन्दर एकटक कब्र की ओर देख रहा था। सुधा ने एक सूखा हार उठाया और चन्दर पर फेंककर कहा, ”चन्दर, क्या हमेशा मुझे इसी भयानक नरक में रखोगे? क्या सचमुच हमेशा के लिए तुम्हारा प्यार खो दिया है मैंने?”

”मेरा प्यार?” चन्दर हँसा, उसकी हँसी उस सन्नाटे से भी ज्यादा भयंकर थी…”मेरा प्यार! अच्छी याद दिलायी तुमने! मैं आज प्यार में विश्वास नहीं करता। या यह कहूँ कि प्यार के उस रूप में विश्वास नहीं करता!”

”फिर?”

”फिर क्या, उस समय मेरे मन में प्यार का मतलब था त्याग, कल्पना, आदर्श। आज मैं समझ चुका हूँ कि यह सब झूठी बातें हैं, खोखले सपने हैं!”

”तब?”

”तब! आज मैं विश्वास करता हूँ कि प्यार के माने सिर्फ एक है; शरीर का सम्बन्ध! कम-से-कम औरत के लिए। औरत बड़ी बातें करेगी, आत्मा, पुनर्जन्म, परलोक का मिलन, लेकिन उसकी सिद्धि सिर्फ शरीर में है और वह अपने प्यार की मंजिलें पार कर पुरुष को अन्त में एक ही चीज देती है-अपना शरीर। मैं तो अब यह विश्वास करता हूँ सुधा कि वही औरत मुझे प्यार करती है जो मुझे शरीर दे सकती है। बस, इसके अलावा प्यार का कोई रूप अब मेरे भाग्य में नहीं।” चन्दर की आँख में कुछ धधक रहा था…सुधा उठी, और चन्दर के पास खड़ी हो गयी-”चन्दर, तुम भी एक दिन ऐसे हो जाओगे, इसकी मुझे कभी उम्मीद नहीं थी। काश कि तुम समझ पाते कि…” सुधा ने बहुत दर्द भरे स्वर में कहा।

”स्नेह है!” चन्दर ठठाकर हँस पड़ा-और उसने सुधा की ओर मुडक़र कहा, ”और अगर मैं उस स्नेह का प्रमाण माँगूँ तो? सुधा!” दाँत पीसकर चन्दर बोला, ”अगर तुमसे तुम्हारा शरीर माँगूँ तो?”

”चन्दर!” सुधा चीखकर पीछे हट गयी। चन्दर उठा और पागलों की तरह उसने सुधा को पकड़ लिया, ”यहाँ कोई नहीं है-सिवा इस कब्र के। तुम क्या कर सकती हो? बहुत दिन से मन में एक आग सुलग रही है। आज तुम्हें बर्बाद कर दूँ तो मन की नारकीय वेदना बुझ जाए….बोलो!” उसने अपनी आँख की पिघली हुई आग सुधा की आँखों में भरकर कहा।

सुधा क्षण-भर सहमी-पथरायी दृष्टि से चन्दर की ओर देखती रही फिर सहसा शिथिल पड़ गयी और बोली, ”चन्दर, मैं किसी की पत्नी हूँ। यह जन्म उनका है। यह माँग का सिन्दूर उनका है। इस शरीर का शृंगार उनका है। मुझ गला घोंटकर मार डालो। मैंने तुम्हें बहुत तकलीफ दी है। लेकिन…”

”लेकिन…” चन्दर हँसा और सुधा को छोड़ दिया, ”मैं तुम्हें स्नेह करती हूँ, लेकिन यह जन्म उनका है। यह शरीर उनका है-ह:! ह:! क्या अन्दाज हैं प्रवंचना के। जाओ सुधा…मैं तुमसे मजाक कर रहा था। तुम्हारे इस जूठे तन में रखा क्या है?”

सुधा अलग हटकर खड़ी हो गयी। उसकी आँखों से चिनगारियाँ झरने लगीं, ”चन्दर, तुम जानवर हो गये; मैं आज कितनी शर्मिन्दा हूँ। इसमें मेरा कसूर है, चन्दर! मैं अपने को दंड दूँगी, चन्दर! मैं मर जाऊँगी! लेकिन तुम्हें इंसान बनना पड़ेगा, चन्दर!” और सुधा ने अपना सिर एक टूटे हुए खम्भे पर पटक दिया।

चन्दर की आँख खुल गयी, वह थोड़ी देर तक सपने पर सोचता रहा। फिर उठा। बहुत अजब-सा मन था उसका। बहुत पराजित, बहुत खोया हुआ-सा, बेहद खिसियाहट से भरा हुआ था। उसके मन में एकाएक खयाल आया कि वह किसी मनोरंजन में जाकर अपने को डुबो दे-बहुत दिनों से उसने सिनेमा नहीं देखा था। उन दिनों बर्नार्ड शॉ का ‘सीजर ऐंड क्लियोपेट्रा’ लगा हुआ था, उसने सोचा कि पम्मी की मित्रता का परिपाक सिनेमा में हुआ था, उसका अन्त भी वह सिनेमा देखकर मनाएगा। उसने कपड़े पहने, चार बजे से मैटिनी थी, और वक्त हो रहा था। कपड़े पहनकर वह शीशे के सामने आकर बाल सँवारने लगा। उसे लगा, शीशे में पड़ती हुई उसकी छाया उससे कुछ भिन्न है, उसने और गौर से देखा-छाया रहस्यमय ढंग से मुस्करा रही थी; वह सहसा बोली-

”क्या देख रहा है?” ‘मुखड़ा क्या देखे दरपन में।’ एक लड़की से पराजित और दूसरी से सपने में प्रतिहिंसा लेने का कलंक नहीं दिख पड़ता तुझे? अपनी छवि निरख रहा है? पापी! पतित!”

कमरे की दीवारों ने दोहराया-”पापी! पतित!”

चन्दर तड़प उठा, पागल-सा हो उठा। कंघा फेंककर बोला, ”कौन है पापी? मैं हूँ पापी? मैं हूँ पतित? मुझे तुम नहीं समझते। मैं चिर-पवित्र हूँ। मुझे कोई नहीं जानता।”

”कोई नहीं जानता! हा, हा!” प्रतिबिम्ब हँसा, ”मैं तुम्हारी नस-नस जानता हूँ। तुम वही हो न जिसने आज से डेढ़ साल पहले सपना देखा सुधा के हाथ से लेकर अमृत बाँटने का, दुनिया को नया सन्देश देकर पैगम्बर बनने का। नया सन्देश! खूब नया सन्देश दिया मसीहा! पम्मी…बिनती…सुधा…कुछ और छोकरियाँ बटोर ले। चरित्रहीन!”

”मैंने किसी को नहीं बटोरा! जो मेरी जिंदगी में आया, अपने-आप आया, जो चला गया, उसे मैंने रोका नहीं। मेरे मन में कहीं भी अहम की प्यास नहीं थी, कभी भी स्वार्थ नहीं था। क्या मैं चाहता तो सुधा को अपने एक इशारे से अपनी बाँहों में नहीं बाँध सकता था!”

”शाबाश! और नहीं बाँध पाये तो सुधा से भी जी भरकर बदला निकाल रहा है। वह मर रही है और तू उस पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आया। और आज तो उसे एकान्त में भ्रष्ट करने का सपना देख अपनी पलकों को देवमन्दिर की तरह पवित्र बना लिया तूने! कितनी उन्नति की है तेरी आत्मा ने! इधर आ, तेरा हाथ चूम लूँ।”

”चुप रहो! पराजय की इस वेला में कोई भी व्यंग्य करने से बाज नहीं आता। मैं पागल हो जाऊँगा।”

”और अभी क्या पागलों से कम है तू? अहंकारी पशु! तू बर्टी से भी गया-गुजरा है। बर्टी पागल था, लेकिन पागल कुत्तों की तरह काटना नहीं जानता था। तू काटना भी जानता है और अपने भयानक पागलपन को साधना और त्याग भी साबित करता रहता है। दम्भी!”

”बस करो, अब तुम सीमा लाँघ रहे हो।” चन्दर ने मुठ्ठियाँ कसकर जवाब दिया।

”क्यों, गुस्सा हो गये, मेरे दोस्त! अहंवादी इतने बड़े हो और अपनी तस्वीर देखकर नाराज होते हो! आओ, तुम्हें आहिस्ते से समझाऊँ, अभागे! तू कहता है तूने स्वार्थ नहीं किया। विकलांग देवता! वही स्वार्थी है जो अपने से ऊपर नहीं उठ पाता! तेरे लिए अपनी एक साँस भी दूसरे के मन के तूफान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण रही है। तूने अपने मन की उपेक्षा के पीछे सुधा को भट्टी में झोंक दिया। पम्मी के अस्वस्थ मन को पहचानकर भी उसके रूप का उपभोग करने में नहीं हिचका, बिनती को प्यार न करते हुए भी बिनती को तूने स्वीकार किया, फिर सबों का तिरस्कार करता गया…और कहता है तू स्वार्थी नहीं। बर्टी पागल हो लेकिन स्वार्थी नहीं है।”

”ठहरो, गालियाँ मत दो, मुझे समझाओ न कि मेरे जीवन-दर्शन में कहाँ पर गलती रही है! गालियों से मेरा कोई समझौता नहीं।”

”अच्छा, समझो! देखो, मैं यह नहीं कहता कि तुम ईमानदार नहीं हो, तुम शक्तिशाली नहीं हो, लेकिन तुम अन्तर्मुखी रहे, घोर व्यक्तिवादी रहे, अहंकारग्रस्त रहे। अपने मन की विकृतियों को भी तुमने अपनी ताकत समझने की कोशिश की। कोई भी जीवन-दर्शन सफल नहीं होता अगर उसमें बाह्य यथार्थ और व्यापक सत्य धूप-छाँह की तरह न मिला हो। मैं मानता हूँ कि तूने सुधा के साथ ऊँचाई निभायी, लेकिन अगर तेरे व्यक्तित्व को, तेरे मन को, जरा-सी ठेस पहुँचती तो तू गुमराह हो गया होता। तूने सुधा के स्नेह का निषेध कर दिया। तूने बिनती की श्रद्धा का तिरस्कार किया। तूने पम्मी की पवित्रता भ्रष्ट की…और इसे अपनी साधना समझता है? तू याद कर; कहाँ था तू एक वर्ष पहले और अब कहाँ है?”

चन्दर ने बड़ी कातरता से प्रतिबिम्ब की ओर देखा और बोला, ”मैं जानता हूँ, मैं गुमराह हूँ लेकिन बेईमान नहीं! तुम मुझे क्यों धिक्कार रहे हो! तुम कोई रास्ता बता दो न! एक बार उसे भी आजमा लूँ।”

”रास्ता बताऊँ! जो रास्ता तुमने एक बार बनाया था, उसी पर तुम मजबूत रह पाये? फिर क्या एक के बाद दूसरे रास्ते पर चहलदमी करना चाहते हो? देखो कपूर, ध्यान से सुनो। तुमसे शायद किसी ने कभी कहा था, शायद बर्टी ने कहा था कि आदमी तभी तक बड़ा रहता है जब तक वह निषेध करता चलता है। पता नहीं किस मानसिक आवेश में एक के बाद दूसरे तत्व का विध्वंस और विनाश करता चलता है। हर चट्टान को उखाड़क फेंकता रहता है और तुमने यही जीवन-दर्शन अपना लिया था, भूल से या अपने अनजाने में ही। तुम्हारी आत्मा में एक शक्ति थी, एक तूफान था। लेकिन यह लक्ष्य भ्रष्ट था। तुम्हारी जिंदगी में लहरें उठने लगीं लेकिन गहराई नहीं। और याद रखो चन्दर, सत्य उसे मिलता है जिसकी आत्मा शान्त और गहरी होती है समुद्र की गहराई की तरह। समुद्र की ऊपरी सतह की तरह जो विक्षुब्ध और तूफानी होता है, उसके अंतर्द्वंद्व में चाहे कितनी गरज हो लेकिन सत्य की शान्त अमृतमयी आवाज नहीं होती।”

”लेकिन वह गहराई मुझे मिली नहीं?”

”बताता हूँ-घबराते क्यों हो! देखो, तुममें बहुत बड़ा अधैर्य रहा है। शक्ति रही, पर धैर्य और दृढ़ता बिल्कुल नहीं। तुम गम्भीर समुद्रतल न बनकर एक सशक्त लेकिन अशान्त लहर बन गये जो हर किनारे से टकराकर उसे तोड़ने के लिए व्यग्र हो उठी। तुममें ठहराव नहीं था। साधना नहीं थी! जानते हो क्यों? तुम्हें जहाँ से जरा भी तकलीफ मिली, अवरोध मिला वहीं से तुमने अपना हाथ खींच लिया! वहीं तुम भाग खड़े हुए। तुमने हमेशा उसका निषेध किया-पहले तुमने समाज का निषेध किया, व्यक्ति को साधना का केन्द्र बनाया; फिर व्यक्ति का भी निषेध किया। अपने विचारों में, अन्तर्मुखी भावनाओं में डूब गये, कर्म का निषेध किया। फिर तो कर्म में ऐसी भागदौड़, ऐसी विमुखता शुरू हुई कि बस! न मानवता का प्यार जीवन में प्रतिफलित कर सका, न सुधा का। पम्मी हो या बिनती, हरेक से तू निष्क्रिय खिलौने की तरह खेलता गया। काश कि तूने समाज के लिए कुछ किया होता! सुधा के लिए कुछ किया होता लेकिन तू कुछ न कर पाया। जिसने तुझे जिधर चाहा उधर उत्प्रेरित कर दिया और तू अंधे और इच्छाविहीन परतंत्र अंधड़ की तरह उधर ही हू-हू करता हुआ दौड़ गया। माना मैंने कि समाज के आधार पर बने जीवन-दर्शन में कुछ कमियाँ हैं: लेकिन अंशत: ही उसे स्वीकार कर कुछ काम करता, माना कि सुधा के प्यार से तुझे तकलीफ हुई पर उसकी महत्ता के ही आधार पर तू कुछ निर्माण कर ले जाता। लेकिन तू तो जरा-से अवरोध के बहाने सम्पूर्ण का निषेध करता गया। तेरा जीवन निषेधों की निष्क्रियता की मानसिक प्रतिक्रियाओं की शृंखला रहा है। अभागे, तूने हमेशा जिंदगी का निषेध किया है। दुनिया को स्वीकार करता, यथार्थ को स्वीकार करता, जिंदगी को स्वीकार करता और उसके आधार पर अपने मन को, अपने मन के प्यार को, अपने जीवन को सन्तुलित करता, आगे बढ़ता लेकिन तूने अपनी मन की गंगा को व्यक्ति की छोटी-सी सीमा में बाँध लिया, उसे एक पोखरा बना दिया, पानी सड़ गया, उसमें गंध आने लगी, सुधा के प्यार की सीपी जिसमें सत्य और सफलता का मोती बन सकता था, वह मर गयी और रुके हुए पानी में विकृति और वासना के कीड़े कुलबुलाने लगे। शाबाश! क्या अमृत पाया है तूने! धन्य है, अमृत-पुत्र!”

”बस करो! यह व्यंग्य मैं नहीं सह सकता! मैं क्या करता!”

”कैसी लाचारी का स्वर है! छिह, असफल पैगम्बर! साधना यथार्थ को स्वीकार करके चलती है, उसका निषेध करके नहीं। हमारे यहाँ ईश्वर को कहा गया है नेति नेति, इसका मतलब यह नहीं कि ईश्वर परम निषेध स्वरूप है। गलत, नेति में ‘न’ तो केवल एक वर्ण है। ‘इति’ दो वर्ण हैं। एक निषेध तो कम-से-कम दो स्वीकृतियाँ। इसी अनुपात में कल्पना और यथार्थ का समन्वय क्यों नहीं किया तूने?”

”मैं नहीं समझ पाता-यह दर्शन मेरी समझ में नहीं आता!”

”देखो, इसको ऐसे समझो। घबराओ मत! कैलाश ने अगर नारी के व्यक्तित्व को नहीं समझा, सुधा की पवित्रता को तिरस्कृत किया, लेकिन उसने समाज के लिए कुछ तो किया। गेसू ने अपने विवाह का निषेध किया, लेकिन अख्तर के प्रति अपने प्यार का निषेध तो नहीं किया। अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। अपने चरित्र का निर्माण किया। यानी गेसू, एक लड़की से तुम हार गये, छिह!”

”लेकिन मैं कितना थक गया था, यह तो सोचो। मन को कितनी ऊँची-नीची घाटियों से, मौत से भी भयानक रास्तों से गुजरने में और कोई होता तो मर गया होगा। मैं जिंदा तो हूँ!”

”वाह, क्या जिंदगी है!”

”तो क्या करूँ, यह रास्ता छोड़ दूँ? यह व्यक्तित्व तोड़ डालूँ?”

”फिर वही निषेध और विध्वंस की बातें। छिह देखो, चलने को तो गाड़ी का बैल भी रास्ते पर चलता है! लेकिन सैकड़ों मील चलने के बाद भी वह गाड़ी का बैल ही बना रहता है। क्या तुम गाड़ी के बैल बनना चाहते हो? नहीं कपूर! आदमी जिंदगी का सफर तय करता है। राह की ठोकरें और मुसीबतें उसके व्यक्तित्व को पुख्ता बनाती चलती हैं, उसकी आत्मा को परिपक्व बनाती चलती हैं। क्या तुममें परिपक्वता आयी? नहीं। मैं जानता हूँ, तुम अब मेरा भी निषेध करना चाहते हो। तुम मेरी आवाज को भी चुप करना चाहते हो। आत्म-प्रवंचना तो तेरा पेशा हो गया है। कितना खतरनाक है तू अब…तू मेरा भी…तिरस्कार…करना…चाहता…है।” और छाया, धीरे-धीरे एक वह बिन्दु बनकर अदृश्य हो गयी।

चन्दर चुपचाप शीशे के सामने खड़ा रहा।

फिर वह सिनेमा नहीं गया।

चन्दर सहसा बहुत शान्त हो गया। एक ऐसे भोले बच्चे की तरह जिसने अपराध कम किया, जिससे नुकसान ज्यादा हो गया था, और जिस पर डाँट बहुत पड़ी थी। अपने अपराध की चेतना से वह बोल भी नहीं पाता था। अपना सारा दुख अपने ऊपर उतार लेना चाहता था। वहाँ एक ऐसा सन्नाटा था जो न किसी को आने के लिए आमन्त्रित कर सकता था, न किसी को जाने से रोक सकता था। वह एक ऐसा मैदान था जिस पर की सारी पगडंडियाँ तक मिट गयी हों; एक ऐसी डाल थी जिस पर के सारे फूल झर गये हों, सारे घोंसले उजड़ गये हों। मन में उसके असीम कुंठा और वेदना थी, ऐसा था कि कोई उसके घाव छू ले तो वह आँसुओं में बिखर पड़े। वह चाहता था, वह सबसे क्षमा माँग ले, बिनती से, पम्मी से, सुधा से और फिर हमेशा के लिए उनकी दुनिया से चला जाए। कितना दुख दिया था उसने सबको!

इसी मन:स्थिति में एक दिन गेसू ने उसे बुलाया। वह गया। गेसू की अम्मीजान तो सामने आयीं पर गेसू ने परदे में से ही बातें कीं। गेसू ने बताया कि सुधा का खत आया है कि वह जल्दी ही आएगी, गेसू से मिलने। गेसू को बहुत ताज्जुब हुआ कि चन्दर के पास कोई खबर क्यों नहीं आयी!

चन्दर जब घर पहुँचा तो कैलाश का एक खत मिला-

”प्रिय चन्दर,

बहुत दिन से तुम्हारा कोई खत नहीं आया, न मेरे पास न इनके पास। क्या नाराज हो हम दोनों से? अच्छा तो लो, तुम्हें एक खुशखबरी सुना दूँ। मैं सांस्कृतिक मिशन में शायद ऑस्ट्रेलिया जाऊँ। डॉक्टर साहब ने कोशिश कर दी है। आधा रुपया मेरा, आधा सरकार का।

तुम्हें भला क्या फुरसत मिलेगी यहाँ आने की! मैं ही इन्हें लेकर दो रोज के लिए आऊँगा। इनकी कोई मुसलमान सखी है वहाँ, उससे ये भी मिलना चाहती हैं। हमारी खातिर का इन्तजाम रखना-मैं 11 मई को सुबह की गाड़ी से पहुँचूँगा।

तुम्हारा-कैलाश।”

सुधा के आने के पहले चन्दर ने घर की ओर नजर दौड़ायी। सिवा ड्राइंगरूम और लॉन के सचमुच बाकी घर इतना गन्दा पड़ा था कि गेसू सच ही कह रही थी कि जैसे घर में प्रेत रहते हों। आदमी चाहे जितना सफाई-पसन्द और सुरुचिपूर्ण क्यों न हो, लेकिन औरत के हाथ में जाने क्या जादू है कि वह घर को छूकर ही चमका देती है। औरत के बिना घर की व्यवस्था सँभल ही नहीं सकती। सुधा और बिनती कोई भी नहीं थी और तीन ही महीने में बँगले का रूप बिगड़ गया था।

उसने सारा बँगला साफ कराया। हालाँकि दो ही दिन के लिए सुधा और कैलाश आ रहे थे, लेकिन उसने इस तरह बँगले की सफाई करायी जैसे कोई नया समारोह हो। सुधा का कमरा बहुत सजा दिया था और सुधा की छत पर दो पलँग डलवा दिये थे। लेकिन इन सब इंतजामों के पीछे उतनी ही निष्क्रिय भावहीनता थी जैसे कि वह एक होटल का मैनेजर हो और दो आगन्तुकों का इन्तजाम कर रहा हो। बस।

मानसून के दिनों में अगर कभी किसी ने गौर किया हो तो बारिश होने के पहले ही हवा में एक नमी, पत्तियों पर एक हरियाली और मन में एक उमंग-सी छा जाती है। आसमान का रंग बतला देता है कि बादल छानेवाले हैं, बूँदें रिमझिमाने वाली हैं। जब बादल बहुत नजदीक आ जाते हैं, बूँदें पड़ने के पहले ही दूर पर गिरती हुई बूँदों की आवाज वातावरण पर छा जाती है, जिसे धुरवा कहते हैं।

ज्यों-ज्यों सुधा के आने का दिन नजदीक आ रहा था, चन्दर के मन में हवाएँ करवटें बदलने लग गयी थीं। मन में उदास सुनसान में धुरवा उमड़ने-घुमड़ने लगा था। मन उदास सुनसान आकुल प्रतीक्षा में बेचैन हो उठा था। चन्दर अपने को समझ नहीं पा रहा था। नसों में एक अजीब-सी घबराहट मचलने लगी थी, जिसका वह विश्लेषण नहीं करना चाहता था। उसका व्यक्तित्व अब पता नहीं क्यों कुछ भयभीत-सा था।

इम्तहान खत्म हो रहे थे, और जब मन की बेचैनी बहुत बढ़ जाती थी तो परीक्षकों की आदत के मुताबिक वह कापियाँ जाँचने बैठ जाता था। जिस समय परीक्षकों के घर में पारिवारिक कलह हो, मन में अंतर्द्वंद्व हो या दिमाग में फितूर हो, उस समय उन्हें कॉपियाँ जाँचने से अच्छा शरणस्थल नहीं मिलता। अपने जीवन की परीक्षा में फेल हो जाने की खीझ उतारने के लिए लडक़ों को फेल करने के अलावा कोई अच्छा रास्ता ही नहीं है। चन्दर जब बेहद दु:खी होता तो वह कॉपियाँ जाँचता।

जिस दिन सुबह सुधा आ रही थी, उस रात को तो चन्दर का मन बिल्कुल बेकाबू-सा हो गया। लगता था जैसे उसने सोचने-विचाने से ही इनकार कर दिया हो। उस दिन चन्दर एक क्षण को भी अकेला न रहकर भीड़-भाड़ में खो जाना चाहता था। सुबह वह गंगा नहाने गया, कार लेकर। कॉलेज से लौटकर दोपहर को अपने एक मित्र के यहाँ चला गया। लौटकर आया तो नहाकर एक किताब की दुकान पर चला गया और शाम होने तक वहीं खड़ा-खड़ा किताबें उलटता और खरीदता रहा। वहाँ उसने बिसरिया का गीत-संग्रह देखा जो ‘बिनती’ नाम बदल उसने ‘विप्लव’ नाम से छपवा लिया था और प्रमुख प्रगतिशील कवि बन गया था। उसने वह संग्रह भी खरीद लिया।

अब सुधा के आने में मुश्किल से बारह घंटे की देर थी। उसकी तबीयत बहुत घबराने लगी थी और वह बिसरिया के काव्य-संग्रह में डूब गया। उन सड़े हुए गीतों में ही अपने को भुलाने की कोशिश करने लगा और अन्त में उसने अपने को इतना थका डाला कि तीन बजे का अलार्म लगाकर वह सो गया। सुधा की गाड़ी साढ़े चार बजे आती थी।

जब वह जागा तो रात अपने मखमली पंख पसारे नींद में डूबी हुई दुनिया पर शान्ति का आशीर्वाद बिखेर रही थी। ठंडे झोंके लहरा रहे थे और उन झोंकों पर पवित्रता छायी हुई थी। यह पछुआ के झोंके थे। ब्राह्म मुहूर्त में प्राचीन आर्यों ने जो रहस्य पाया था, वह धीरे-धीरे चन्दर की आँखों के सामने खुलने-सा लगा। उसे लगा जैसे यह उसके व्यक्तित्व की नयी सुबह है। एक बड़ा शान्त संगीत उसकी पलकों पर ओस की तरह थिरकने लगा।

क्षितिज के पास एक बड़ा-सा सितारा जगमगा रहा था! चन्दर को लगा जैसे यह उसके प्यार का सितारा है जो जाने किस अज्ञात पाताल में डूब गया था और आज से वह फिर उग गया है। उसने एक अन्धविश्वासी भोले बच्चे की तरह उस सितारे को हाथ जोडक़र कहा, ”मेरी कंचन जैसी सुधा रानी के प्यार, तुम कहाँ खो गये थे? तुम मेरे सामने नहीं रहे, मैं जाने किन तूफानों में उलझ गया था। मेरी आत्मा में सारी गुरुता सुधा के प्यार की थी। उसे मैंने खो दिया। उसके बाद मेरी आत्मा पीले पत्ते की तरह तूफान में उड़कर जाने किस कीचड़ में फँस गयी थी। तुम मेरी सुधा के प्यार हो न! मैंने तुम्हें सुधा की भोली आँखों में जगमगाते हुए देखा था। वेदमंत्रों-जैसे इस पवित्र सुबह में आज फिर मेरे पाप में लिप्त तन को अमृत से धोने आये हो। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आज सुधा के चरणों पर अपने जीवन के सारे गुनाहों को चढ़ाकर हमेशा के लिए क्षमा माँग लूँगा। लेकिन मेरी साँसों की साँस सुधा! मुझे क्षमा कर दोगी न?” और विचित्र-से भावावेश और पुलक से उसकी आँख में आँसू आ गये। उसे याद आया कि एक दिन सुधा ने उसकी हथेलियों को होठों से लगाकर कहा था-जाओ, आज तुम सुधा के स्पर्श से पवित्र हो…काश कि आज भी सुधा अपने मिसरी-जैसे होठों से चन्दर की आत्मा को चूमकर कहे-जाओ चन्दर, अभी तक जिंदगी के तूफान ने तुम्हारी आत्मा को बीमार, अपवित्र कर दिया था…आज से तुम वही चन्दर हो। अपनी सुधा के चन्दर। हरिणी-जैसी भोली-भाली सुधा के महान पवित्र चन्दर…

तैयार होकर चन्दर जब स्टेशन पहुँचा तो वह जैसे मोहाविष्ट-सा था। जैसे वह किसी जादू या टोना पढ़ा-हुआ-सा घूम रहा था और वह जादू था सुधा के प्यार का पुनरावर्तन।

गाड़ी घंटा-भर लेट थी। चन्दर को एक पल काटना मुश्किल हो रहा था। अन्त में सिगनल डाउन हुआ। कुलियों में हलचल मची और चन्दर पटरी पर झुककर देखने लगा। सुबह हो गयी थी और इंजन दूर पर एक काले दाग-सा दिखाई पड़ रहा था, धीरे-धीरे वह दाग बड़ा होने लगा और लम्बी-सी हरी पूँछ की तरह लहराती हुई ट्रेन आती दिखाई पड़ी। चन्दर के मन में आया, वह पागल की तरह दौड़कर वहाँ पहुँच जाए। जिस दिन एक घोर अविश्वासी में विश्वास जाग जाता है, उस दिन वह पागल-सा हो उठता है। उसे लग रहा था जैसे इस गाड़ी में सभी डिब्बे खाली हैं। सिर्फ एक डिब्बे में अकेली सुधा होगी। जो आते ही चन्दर को अपनी प्यार-भरी निगाहों में समेट लेगी।

गाड़ी के प्लेटफार्म पर आते ही हलचल बढ़ गयी। कुलियों की दौड़धूप, मुसाफिरों की हड़बड़ी, सामान की उठा-धरी से प्लेटफॉर्म भर गया। चन्दर पागलों-सा इस सब भीड़ को चीरकर डिब्बे देखने लगा। एक दफे पूरी गाड़ी का चक्कर लगा गया। कहीं भी सुधा नहीं दिखाई दी। जैसे आँसू से उसका गला रुँधने लगा। क्या आये नहीं ये लोग! किस्मत कितना व्यंग्य करती है उससे! आज जब वह किसी के चरणों पर अपनी आत्मा उत्सर्ग कर फिर पवित्र होना चाहता था तो सुधा ही नहीं आयी। उसने एक चक्कर और लगाया और निराश होकर लौट पड़ा। सहसा सेकेंड क्लास के एक छोटे-से डिब्बे में से कैलाश ने झाँककर कहा, ”कपूर!”

चन्दर मुड़ा, देखा कि कैलाश झाँक रहा है। एक कुली सामान उतारकर खड़ा है। सुधा नहीं है।

जैसे किसी ने झोंके से उसके मन का दीप बुझा दिया। सामान बहुत थोड़ा-सा था। वह डिब्बे में चढक़र बोला, ”सुधा नहीं आयी?”

”आयी हैं, देखो न! कुछ तबीयत खराब हो गयी है। जी मितला रहा है।” और उसने बाथरूम की ओर इशारा कर दिया। सुधा बाथरूम में बगल में लोटा रखे सिर झुकाये बैठी थी-”देखो! देखती हो?” कैलाश बोला, ”देखो, कपूर आ गया।” सुधा ने देखा और मुश्किल से हाथ जोड़ पायी होगी कि उसे मितली आ गयी…कैलाश दौड़ा और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा और चन्दर से बोला-”पंखा लाओ!” चन्दर हतप्रभ था। उसके मन ने सपना देखा था…सुधा सितारों की तरह जगमगा रही होगी और अपनी रोशनी की बाँहों में चन्दर के प्राणों को सुला देगी। जादूगरनी की तरह अपने प्यार के पंखों से चन्दर की आत्मा के दाग पोंछ देगी। लेकिन यथार्थ कुछ और था। सुधा जादूगरनी, आत्मा की रानी, पवित्रता की साम्राज्ञी सुधा, बाथरूम में बैठी है और उसका पति उसे सान्त्वना दे रहा था।

”क्या कर रहे हो, चन्दर!…पंखा उठाओ जल्दी से।” कैलाश ने व्यग्रता से कहा। चन्दर चौंक उठा और जाकर पंखा झलने लगा। थोड़ी देर बाद मुँह धोकर सुधा उठी और कराहती हुई-सी जाकर सीट पर बैठ गयी। कैलाश ने एक तकिया पीछे लगा दिया और वह आँख बन्द करके लेट गयी।

चन्दर ने अब सुधा को देखा। सुधा उजड़ चुकी थी। उसका रस मर चुका था। वह अपने यौवन और रूप, चंचलता और मिठास की एक जर्द छाया मात्र रह गयी थी। चेहरा दुबला पड़ गया था और हड्डियाँ निकल आयी थीं। चेहरा दुबला होने से लगता था आँखें फटी पड़ती हैं। वह चुपचाप आँख बन्द किये पड़ी थी। चन्दर पंखा हाँक रहा था, कैलाश एक सूटकेस खोलकर दवा निकाल रहा था। गाड़ी यहीं आकर रुक जाती है, इसलिए कोई जल्दी नहीं थी। कैलाश ने दवा दी। सुधा ने दवा पी और फिर उदास, बहुत बारीक, बहुत बीमार स्वर में बोली, ”चन्दर, अच्छे तो हो! इतने दुबले कैसे लगते हो? अब कौन तुम्हारे खाने-पीने की परवा करता होगा!” सुधा ने एक गहरी साँस ली। कैलाश बिस्तर लपेट रहा था।

”तुम्हें क्या हो गया है, सुधा?”

”मुझे सुख-रोग हो गया है!” सुधा बहुत क्षीण हँसी हँसकर बोली, ”बहुत सुख में रहने से ऐसा ही हो जाता है।”

चन्दर चुप हो गया। कैलाश ने बिस्तर कुली को देते हुए कहा, ”इन्होंने तो बीमारी के मारे हम लोगों को परेशान कर रखा है। जाने बीमारियों को क्या मुहब्बत है इनसे! चलो उठो।” सुधा उठी।

कार पर सुधा के साथ पीछे सामान रख दिया गया और आगे कैलाश और चन्दर बैठे। कैलाश बोला, ”चन्दर, तुम बहुत धीमे ड्राइव करना वरना इन्हें चक्कर आने लगेगा…” कार चल दी। चन्दर कैलाश की विदेश-यात्रा और कैलाश चन्दर के कॉलेज के बारे में बात करते रहे। मुश्किल से घर तक कार पहुँची होगी कि कैलाश बोला, ”यार चन्दर, तुम्हें तकलीफ तो होगी लेकिन एक दिन के लिए कार तुम मुझे दे सकते हो?”

”क्यों?”

”मुझे जरा रीवाँ तक बहुत जरूरी काम से जाना है, वहाँ कुछ लोगों से मिलना है, कल दोपहर तक मैं चला आऊँगा।”

”इसके मतलब मेरे पास नहीं रहोगे एक दिन भी?”

”नहीं, इन्हें छोड़ जाऊँगा। लौटकर दिन-भर रहूँगा।”

”इन्हें छोड़ जाओगे? नहीं भाई, तुम जानते हो कि आजकल घर में कोई नहीं है।” चन्दर ने कुछ घबराकर कहा।

”तो क्या हुआ, तुम तो हो!” कैलाश बोला और चन्दर के चेहरे की घबराहट देखकर हँसकर बोला, ”अरे यार, अब तुम पर इतना अविश्वास नहीं है। अविश्वास करना होता तो ब्याह के पहले ही कर लेते।”

चन्दर मुस्करा उठा, कैलाश ने चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर धीमे से कहा ताकि सुधा न सुन पाये-”वैसे चाहे मुझे कुछ भी असन्तोष क्यों न हो, लेकिन इनका चरित्र तो सोने का है, यह मैं खूब परख चुका हूँ। इनका ऐसा चरित्र बनाने के लिए तो मैं तुम्हें बधाई दूँगा, चन्दर! और फिर आज के युग में!”

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया।

कार पोर्टिको में लगी। सुधा, कैलाश, चन्दर उतरे। माली और नौकर दौड़ आये, सुधा ने उन सबसे उनका हाल पूछा। अन्दर जाते ही महराजिन दौडक़र सुधा से लिपट गयी। सुधा को बहुत दुलार किया।

कैलाश मुँह-हाथ धो चुका था, नहाने चला गया। महराजिन चाय बनाने लगी। सुधा भी मुँह-हाथ धोने और नहाने चली गयी। कैलाश तौलिया लपेटे नहाकर आया और बैठ गया। बोला, ”आज और कल की छुट्टी ले लो, चन्दर! इनकी तबीयत ठीक नहीं है और मुझे जाना जरूरी है!”

”अच्छा, लेकिन आज तो जाकर हाजिरी देना जरूरी होगा। फिर लौट आऊँगा!” महराजिन चाय और नाश्ता ले आयी। कैलाश ने नाश्ता लौटा दिया तो महराजिन बोली, ”वाह, दामाद हुइके अकेली चाय पीबो भइया, अबहिन डॉक्टर साहब सुनिहैं तो का कहिहैं।”

”नहीं माँजी, मेरा पेट ठीक नहीं है। दो दिन के जागरण से आ रहा हूँ। फिर लौटकर खाऊँगा। लो चन्दर, चाय पियो।”

”सुधा को आने दो!” चन्दर बोला।

”वह पूजा-पाठ करके खाती हैं।”

”पूजा-पाठ!” चन्दर दंग रह गया, ”सुधा पूजा-पाठ करने लगी?”

”हाँ भाई, तभी तो हमारी माताजी अपनी बहू पर मरती हैं। असल में वह पूजा-पाठ करती थीं। शुरुआत की इन्होंने पूजा के बरतन धोने से और अब तो उनसे भी ज्यादा पक्की पुजारिन बन गयी हैं।” कैलाश ने इधर-उधर देखा और बोला, ”यार, यह मत समझना मैं सुधा की शिकायत कर रहा हूँ, लेकिन तुम लोगों ने मुझे ठीक नहीं चुना!”

”क्यों?” चन्दर कैलाश के व्यवहार पर मुग्ध था।

”इन जैसी लड़कियों के लिए तुम कोई कवि या कलाकार या भावुक लड़काढूँढ़ते तो ठीक था। मेरे जैसा व्यावहारिक और नीरस राजनीतिक इनके उपयुक्त नहीं है। घर भर इनसे बेहद खुश है। जब से ये गयी हैं, माँ और शंकर भइया दोनों ने मुझे नालायक करार दे दिया है। इन्हीं से पूछकर सब करते हैं, लेकिन मैंने जो सोच रखा था, वह मुझे नहीं मिल पाया!”

”क्यों, क्या बात है?” चन्दर ने पूछा, ”गलती बताओ तो हम इन्हें समझाएँ।”

”नहीं, देखो गलत मत समझो। मैं यह नहीं कहता कि इनकी गलती है। यह तो गलत चुनाव की बात है।” कैलाश बोला, ”न इसमें मेरा कसूर, न इनका! मैं चाहता था कोई लड़की जो मेरे साथ राजनीति का काम करती, मेरी सबलता और दुर्बलता दोनों की संगिनी होती। इसीलिए इतनी पढ़ी-लिखी लड़की से शादी की। लेकिन इन्हें धर्म और साहित्य में जितनी रुचि है, उतनी राजनीति से नहीं। इसलिए मेरे व्यक्तित्व को ग्रहण भी नहीं कर पायीं। वैसे मेरी शारीरिक प्यास को इन्होंने चाहे समर्पण किया, वह भी एक बेमनी से, उससे तन की प्यास भले ही बुझ जाती हो कपूर, लेकिन मन तो प्यासा ही रहता है…बुरा न मानना। मैं बहुत स्पष्ट बातें करता हूँ। तुमसे छिपाना क्या?…और स्वास्थ्य के मामले में ये इतनी लापरवाह हैं कि मैं बहुत दु:खी रहता हूँ।” इतने में सुधा नहाकर आती हुई दिख पड़ी। कैलाश चुप हो गया। सुधा की ओर देखकर बोला, ”मेरी अटैची भी ठीक कर दो। मैं अभी चला जाऊँ वरना दोपहर में तपना होगा।” सुधा चली गयी। सुधा के जाते ही कैलाश बोला, ”भरसक मैं इन्हें दु:खी नहीं होने देता, हाँ, अकसर ये दुखी हो जाती हैं; लेकिन मैं क्या करूँ, यह मेरी मजबूरी है, वैसे मैं इन्हें भरसक सुखी रखने का प्रयास करता हूँ…और ये भी जायज-नाजायज हर इच्छा के सामने झुक जाती हैं, लेकिन इनके दिल में मेरे लिए कोई जगह नहीं है, वह जो एक पत्नी के मन में होती है। लेकिन खैर, जिंदगी चलती जा रही है। अब तो जैसे हो निभाना ही है!”

इतने में सुधा आयी और बोली, ”देखिए, अटैची सँवार दी है, आप भी देख लीजिए…” कैलाश उठकर चला गया। चन्दर बैठा-बैठा सोचने लगा-कैलाश कितना अच्छा है, कितना साफ और स्वच्छ दिल का है! लेकिन सुधा ने अपने को किस तरह मिटा डाला…

इतने में सुधा आयी और चन्दर से बोली, ”चन्दर! चलो, वो बुला रहे हैं!”

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