गुनाहों के देवता – धर्मवीर भारती
भाग 18
बिनती चली गयी। चन्दर पड़ा-पड़ा सोचने लगा, दुनिया गलत कहती है कि वासना पाप है। वासना से भी पवित्रता और क्षमाशीलता आती है। पम्मी से उसे जो कुछ मिला, वह अगर पाप है तो आज चन्दर ने जो बिनती को दिया, उसमें इतनी क्षमा, इतनी उदारता और इतनी शान्ति क्यों थी?
उसके बाद बिनती को वह बहुत दुलार और पवित्रता से रखने लगा। कभी-कभी जब वह घूमने जाता तो बिनती को भी ले जाता था। न्यू ईयर्स डे के दिन पम्मी ने दोनों की दावत की। बिनती पम्मी के पीछे चाहे चन्दर से पम्मी का विरोध कर ले पर पम्मी के सामने बहुत शिष्टता और स्नेह का बरताव करती थी।
डॉक्टर साहब की दिल्ली जाने की तैयारी हो गयी। बिनती ने कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन करा लिया था। अब वह पहले डॉक्टर साहब के साथ शाहजहाँपुर जाएगी और तब दिल्ली।
निश्चय करते-करते अन्त में पहली फरवरी को वे लोग गये। स्टेशन पर बहुत-से विद्यार्थी और डॉक्टर साहब के मित्र उन्हें विदा देने के लिए आये थे। बिनती विद्यार्थियों की भीड़ से घबराकर इधर चली आयी और चन्दर को बुलाकर कहने लगी-”चन्दर! दीदी के लिए एक खत तो दे दो!”
”नहीं।” चन्दर ने बहुत रूखे और दृढ़ स्वर में कहा।
बिनती कुछ क्षण तक एकटक चन्दर की ओर देखती रही; फिर बोली, ”चन्दर, मन की श्रद्धा चाहे अब भी वैसी हो, लेकिन तुम पर अब विश्वास नहीं रहा।”
चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया, सिर्फ हँस पड़ा। फिर बोली, ”चन्दर, अगर कभी कोई जरूरत हो तो जरूर लिखना, मैं चली आऊँगी, समझे?” और फिर चुपचाप जाकर बैठ गयी।
जब चन्दर लौटा तो उसके साथ कई साथी प्रोफेसर थे। घर पहुँचकर वह कार लेकर पम्मी के यहाँ चल दिया। पता नहीं क्यों बिनती के जाने का चन्दर को कुछ थोड़ा-सा दु:ख था।
गरमी का मौसम आ गया था। चन्दर सुबह कॉलेज जाता, दोपहर को सोता और शाम को वह नियमित रूप से पम्मी को लेकर घूमने जाता। डॉक्टर साहब कार छोड़ गये थे। कार पम्मी और चन्दर को लेकर दूर-दूर का चक्कर लगाया करती थी। इस बार उसने अपनी छुट्टियाँ दिल्ली में ही बिताने की सोची थीं। पम्मी ने भी तय किया था कि मसूरी से लौटते समय जुलाई में वह एक हफ्ते आकर डॉक्टर शुक्ला की मेहमानी करेगी और दिल्ली के पूर्वपरिचितों से भी मिल लेगी।
यह नहीं कहा जा सकता कि चन्दर के दिन अच्छी तरह नहीं बीत रहे थे। उसने अपना अतीत भुला दिया था और वर्तमान को वह पम्मी की नशीली निगाहों में डुबो चुका था। भविष्य की उसे कोई खास चिन्ता नहीं थी। उसे लगता था कि यह पम्मी की निगाहों के बादलों और स्पर्शों के फूलों की जादू भरी दुनिया अमर है, शाश्वत है। इस जादू ने हमेशा के लिए उसकी आत्मा को अभिभूत कर लिया है, ये होठ कभी अलग न होंगे, यह बाहुपाश इसी तरह उसे घेरे रहेगा और पम्मी की गरम तरुण साँसें सदा इसी प्रकार उसके कपोलों को सिहराती रहेंगी। आदमी का विश्वास हमेशा सीमाएँ और अन्त भूल जाने का आदी होता है। चन्दर भी सबकुछ भूल चुका था।
अप्रैल की एक शाम। दिन-भर लू चलकर अब थक गयी थी। लेकिन दिन-भर की लू की वजह से आसमान में इतनी धूल भर गयी थी कि धूप भी हल्की पड़ गयी थी। माली बाहर छिड़काव कर रहा था। चन्दर सोकर उठा था और सुस्ती मिटा रहा था। थोड़ी देर बाद वह उठा, दिशाओं की ओर निरुद्देश्य देखने लगा। बड़ी उदास-सी शाम थी। सड़क भी बिल्कुल सूनी थी, सिर्फ दो-एक साइकिल-सवार लू से बचने के लिए कानों पर तौलिया लपेटे हुए चले जा रहे थे। एक बर्फ का ठेला भी चला जा रहा था। ”जाओ, बर्फ ले आओ?” चन्दर ने माली को पैसे देते हुए कहा। माली ने ठेलावाले को बुलाया। ठेलावाला आकर फाटक पर रुक गया। माली बर्फ तुड़वा ही रहा था कि एक रिक्शा, जिस पर परदा बँधा था, वह भी फाटक के पास मुड़ा और ठेले के पास आकर रुक गया। ठेलावाले ने ठेला पीछे किया। रिक्शा अन्दर आया। रिक्शा में कोई परदानशीन औरत बैठी थी, लेकिन रिक्शा के साथ कोई नहीं था, चन्दर को ताज्जुब हुआ, कौन परदानशीन यहाँ आ सकती है! रिक्शा से एक लड़की उतरी जिसे चन्दर नहीं जानता था, लेकिन बाहर का परदा जितना गन्दा और पुराना था, लड़की की पोशाक उतनी ही साफ और चुस्त। वह सफेद रेशम की सलवार, सफेद रेशम का चुस्त कुरता और उस पर बहुत हल्के शरबती फालसई रंग की चुन्नी ओढ़े हुई थी। वह उतरी और रिक्शावाले से बोली, ”अब घंटे भर में आकर मुझे ले जाना।” रिक्शावाला सिर हिलाकर चल दिया और वह सीधे अन्दर चल दी। चन्दर को बड़ा अचरज हुआ। यह कौन हो सकती है जो इतनी बेतकल्लुफी से अन्दर चल दी। उसने सोचा, शायद शरणार्थियों के लिए चन्दा माँगने वाली कोई लड़की हो। मगर अन्दर तो कोई है ही नहीं! उसने चाहा कि रोक दे फिर उसने नहीं रोका। सोचा, खुद ही अन्दर खाली देखकर लौट आएगी।
माली बर्फ लेकर आया और अन्दर चला गया। वह लड़की लौटी। उसके चेहरे पर कुछ आश्चर्य और कुछ चिन्ता की रेखाएँ थीं। अब चन्दर ने उसे देखा। एक साँवली लड़की थी, कुछ उदास, कुछ बीमार-सी लगती थी। आँखें बड़ी-बड़ी लगती थीं जो रोना भूल चुकी हैं और हँसने में भी अशक्त हैं। चेहरे पर एक पीली छाँह थी। ऐसा लगता था, देखने ही से कि लड़क़ी दु:खी है पर अपने को सँभालना जानती है।
वह आयी और बड़ी फीकी मुस्कान के साथ, बड़ी शिष्टता के स्वर में बोली, ”चन्दर भाई, सलाम! सुधा क्या ससुराल में है?”
चन्दर का आश्चर्य और भी बढ़ गया। यह तो चन्दर को जानती भी है!
”जी हाँ, वह ससुराल में है। आप…”
”और बिनती कहाँ है?” लड़की ने बात काटकर पूछा।
”बिनती दिल्ली में है।”
”क्या उसकी भी शादी हो गयी?”
”जी नहीं, डॉक्टर साहब आजकल दिल्ली में हैं। वह उन्हीं के पास पढ़ रही है। बैठ तो जाइए!” चन्दर ने कुर्सी खिसकाकर कहा।
”अच्छा, तो आप यहीं रहते हैं अब? नौकर हो गये होंगे?”
”जी हाँ!” चन्दर ने अचरज में डूबकर कहा, ”लेकिन आप इतनी जानकारी और परिचय की बातें कर रही हैं, मैंने आपको पहचाना नहीं, क्षमा कीजिएगा…”
वह लड़की हँसी, जैसे अपनी किस्मत, जिंदगी, अपने इतिहास पर हँस रही हो।
”आप मुझको कैसे पहचान सकते हैं? मैं जरूर आपको देख चुकी थी। मेरे-आपके बीच में दरअसल एक रोशनदान था, मेरा मतलब सुधा से है!”
”ओह! मैं समझा, आप गेसू हैं!”
”जी हाँ!” और गेसू ने बहुत तमीज से अपनी चुन्नी ओढ़ ली।
”आप तो शादी के बाद जैसे बिल्कुल खो ही गयीं। अपनी सहेली को भी एक खत नहीं लिखा। अख्तर मियाँ मजे में हैं?”
”आपको यह सब कैसे मालूम?” बहुत आकुल होकर गेसू बोली और उसकी पीली आँखों में और भी मैलापन आ गया।
”मुझे सुधा से मालूम हुआ था। मैं तो उम्मीद कर रहा था कि आप हम लोगों को एक दावत जरूर देंगी। लेकिन कुछ मालूम ही नहीं हुआ। एक बार सुधाजी ने मुझे आपके यहाँ भेजा तो मालूम हुआ कि आप लोगों ने मकान ही छोड़ दिया है।”
”जी हाँ, मैं देहरादून में थी। अम्मीजान वगैरह सभी वहीं थीं। अभी हाल में वहाँ कुछ पनाहगीर पहुँचे…”
”पनाहगीर?”
”जी, पंजाब के सिख वगैरह। कुछ झगड़ा हो गया तो हम लोग चले आये। अब हम लोग यहीं हैं।”
”अख्तर मियाँ कहाँ हैं?”
”मिरजापुर में पीतल का रोजगार कर रहे हैं!”
”और उनकी बीवी देहरादून में थी। यह सजा क्यों दी आपने उन्हें?”
”सजा की कोई बात नहीं।” गेसू का स्वर घुटता हुआ-सा मालूम दे रहा था। ”उनकी बीवी उनके साथ है।”
”क्या मतलब? आप तो अजब-सी बातें कर रही हैं। अगर मैं भूल नहीं करता तो आपकी शादी…”
”जी हाँ!” बड़ी ही उदास हँसी हँसकर गेसू बोली, ”आपसे चन्दर भाई, मैं क्या छिपाऊँगी, जैसे सुधा वैसे आप! मेरी शादी उनसे नहीं हुई!”
”अरे! गुस्ताखी माफ कीजिएगा, सुधा तो मुझसे कह रही थी कि अख्तर…”
”मुझसे मुहब्बत करते हैं!” गेसू बात काटकर बोली और बड़ी गम्भीर हो गयी और अपनी चुन्नी के छोर में टँके हुए सितारे को तोड़ती हुई बोली, ”मैं सचमुच नहीं समझ पायी कि उनके मन में क्या था। उनके घरवालों ने मेरे बजाय फूल को ज्यादा पसन्द किया। उन्होंने फूल से ही शादी कर ली। अब अच्छी तरह निभ रही है दोनों की। फूल तो इतने अरसे में एक बार भी हम लोगों से मिलने नहीं आयी!”
”अच्छा…” चन्दर चुप होकर सोचने लगा। कितनी बड़ी प्रवंचना हुई इस लड़की की जिंदगी में! और कितने दबे शब्दों में यह कहकर चुप हो गयी! एक भी आँसू नहीं, एक भी सिसकी नहीं। संयत स्वर और फीकी मुस्कान, बस। चन्दर चुपचाप उठकर अन्दर गया। महराजिन आ गयी थी। कुछ नाश्ता और शरबत भेजने के लिए कहकर चन्दर बाहर आया। गेसू चुपचाप लॉन की ओर देख रही थी, शून्य निगाहों से। चन्दर आकर बैठ गया और बोला-”बहुत धोखा दिया आपको!”
”छिह! ऐसी बात नहीं कहते, चन्दर भाई! कौन जानता है कि यह अख्तर की मजबूरी रही हो! जिसको मैंने अपना सरताज माना उसके लिए ऐसा खयाल भी दिल में लाना गुनाह है। मैं इतनी गिरी हुई नहीं कि यह सोचूँ कि उन्होंने धोखा दिया!” गेसू दाँत तले जबान दबाकर बोली।
चन्दर दंग रह गया। क्या गेसू अपने दिल से कह रही है? इतना अखंड विश्वास है गेसू को अख्तर पर! शरबत आ गया था। गेसू ने तकल्लुफ नहीं किया। लेकिन बोली, ”आप बड़े भाई हैं। पहले आप शुरू कीजिए।”
”आपकी फिर कभी अख्तर से मुलाकात नहीं हुई?” चन्दर ने एक घूँट पीकर कहा।
”हुई क्यों नहीं? कई बार वह अम्मीजान के पास आये।”
”आपने कुछ नहीं कहा?”
”कहती क्या? यह सब बातें कहने-सुनने की होती हैं! और फिर फूल वहाँ आराम से है, अख्तर भी फूल को जान से ज्यादा प्यार से रखते हैं, यही मेरे लिए बहुत है। और अब कहकर क्या करूँगी! जब फूल से शादी तय हुई और वे राजी हो गये तभी मैंने कुछ नहीं कहा, अब तो फूल की माँग, फूल का सुहाग मेरे लिए सुबह की अजान से ज्यादा पाक है।” गेसू ने शरबत में निगाहें डुबाये हुए कहा। चन्दर क्षण-भर चुप रहा फिर बोला-
”अब आपकी शादी अम्मीजान कब कर रही हैं?”
”कभी नहीं! मैंने कस्द कर लिया है कि मैं शादी ताउम्र नहीं करूँगी। देहरादून के मैटर्निटी सेंटर में काम सीख रही थी। कोर्स पूरा हो गया। अब किसी अस्पताल में काम करूँगी।”
”आप…!”
”क्यों, आपको ताज्जुब क्यों हुआ? मैंने अम्मीजान को इस बात के लिए राजी कर लिया है। मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूँ।”
चन्दर ने शरबत से बर्फ निकालकर फेंकते हुए कहा-
”मैं आपकी जगह होता तो दूसरी शादी करता और अख्तर से भरसक बदला लेता!”
”बदला!” गेसू मुस्कराकर बोली, ”छिह, चन्दर भाई! बदला, गुरेज, नफरत इससे आदमी न कभी सुधरा है न सुधरेगा। बदला और नफरत तो अपने मन की कमजोरी को जाहिर करते हैं। और फिर बदला मैं लूँ किससे? उससे, दिल की तनहाइयों में मैं जिसके सजदे पड़ती हूँ। यह कैसे हो सकता है?”
गेसू के माथे पर विश्वास का तेज दमक उठा, उसकी बीमार आँखों में धूप लहलहा उठी और उसका कंचनलता-सा तन जगमगाने लगा। कुछ ऐसी दृढ़ता थी उसकी आवाज में, ऐसी गहराई थी उसकी ध्वनि में कि चन्दर देखता ही रह गया। वह जानता था कि गेसू के दिल में अख्तर के लिए कितना प्रेम था, वह यह भी जानता था कि गेसू अख्तर की शादी के लिए किस तरह पागल थी। वह सारा सपना ताश के महल की तरह गिर गया। और परिस्थितियों ने नहीं, खुद अख्तर ने धोखा दिया, लेकिन गेसू है कि माथे पर शिकन नहीं, भौंहों में बल नहीं, होठों पर शिकायत नहीं। नारी के जीवन का यह कैसा अमिट विश्वास था! यानी जिसे गेसू ने अपने प्रेम का स्वर्णमन्दिर समझा था, वह ज्वालामुखी बनकर फूट गया और उसने दर्द की पिघली आग की धारा में गेसू को डुबो देने की कोशिश की लेकिन गेसू है कि अटल चट्टान की तरह खड़ी है।
चन्दर के मन में कहीं कोई टीस उठी। उसके दिल की धडक़नों ने कहीं पर उससे पूछा। ‘…और चन्दर, तुमने क्या किया? तुम पुरुष थे। तुम्हारे सबल कंधे किसी के प्यार का बोझ क्यों नहीं ढो पाये, चन्दर?’ लेकिन चन्दर ने अपनी अन्त:करण की आवाज को अनसुनी करते हुए पूछा- ”तो आपके मन में जरा भी दर्द नहीं अख्तर को न पाने का?”
”दर्द?” गेसू की आवाज डूबने लगी, निगाहों की जर्द पाँखुरियों पर हल्की पानी की लहर दौड़ गयी-”दर्द, यह तो सिर्फ सुधा समझ सकती है, चन्दर भाई! बचपन से वह मेरे लिए क्या थे, यह वही जानती है। मैं तो उनका सपना देखते-देखते उनका सपना ही बन गयी थी, लेकिन खैर दर्द इंसान के यकीदे को और मजबूत न कर दे, आदमी के कदमों को और ताकत न दे, आदमी के दिल को ऊँचाई न दे तो इंसान क्या? दर्द का हाल पूछते हैं आप! कयामत के रोज तक मेरी मय्यत उन्हीं का आसरा देखेगी, चन्दर भाई! लेकिन इसके लिए जिंदगी में तो खामोश ही रहना होगा। बंद घर में जलते हुए चिराग की तरह घुलना होगा। और अगर मैंने उनको अपना माना है तो वह मिलकर ही रहेंगे। आज न सही कयामत के बाद सही। मुहब्बत की दुनिया में जैसे एक दिन उनके बिना कट जाता है वैसे एक जिंदगी उनके बिना कट जाएगी…लेकिन उसके बाद वे मेरे होकर रहेंगे।”
चन्दर का दिल काँप उठा। गेसू की आवाज में तारे बरस रहे थे…
”और आपसे क्या कहूँ, चन्दर भाई! क्या आपकी बात मुझसे छिपी है? मैं जानती हूँ। सबकुछ जानती हूँ। सच पूछिए तो जब मैंने देखा कि आप कितनी खामोशी से अपनी दुनिया में आग लगते देख रहे हैं, और फिर भी हँस रहे हैं, तो मैंने आपसे सबक लिया। हमें नहीं मालूम था कि हम और आप, दोनों भाई-बहनों की किस्मत एक-सी है।”
चन्दर के मन में जाने कितने घाव कसक उठे। उसके मन में जाने कितना दर्द उमड़ने-सा लगा। गेसू उसे क्या समझ रही है मन में और वह कहाँ पहुँच चुका है! जिसने चन्दर की जिंदगी से अपने मन का दीप जलाया, वह आज देवता के चरण तक पहुँच गया, लेकिन चन्दर के मन की दीपशिखा? उसने अपने प्यार की चिता जला डाली। चन्दर के मुँह पर ग्लानि की कालिमा छा गयी। गेसू चुपचाप बैठी थी। सहसा बोली, ”चन्दर भाई, आपको याद है, पिछले साल इन्हीं दिनों मैं सुधा से मिलने आयी थी और हसरत आपको मेरा सलाम कहने गया था?”
”याद हैï!” चन्दर ने बहुत भारी स्वर में कहा।
”इस एक साल में दुनिया कितनी बदल गयी!” गेसू ने एक गहरी साँस लेकर कहा, ”एक बार ये दिन चले जाते हैं, फिर बेदर्द कभी नहीं लौटते! कभी-कभी सोचती हूँ कि सुधा होती तो फिर कॉलेज जाते, क्लास में शोर मचाते, भागकर घास में लेटते, बादलों को देखते, शेर कहते और वह चन्दर की और हम अख्तर की बातें करते…” गेसू का गला भर आया और एक आँसू चू पड़ा… ”सुधा और सुधा की ब्याह-शादी का हाल बताइए। कैसे हैं उनके शौहर?”
चन्दर के मन में आया कि वह कह दे, गेसू, क्यों लज्जित करती हो! मैं वह चन्दर नहीं हूँ। मैंने अपने विश्वास का मन्दिर भ्रष्ट कर दिया…मैं प्रेत हूँ…मैंने सुधा के प्यार का गला घोंट दिया है…लेकिन पुरुष का गर्व! पुरुष का छल! उसे यह भी नहीं मालूम होने दिया कि उसका विश्वास चूर-चूर हो चुका है और पिछले कितने ही महीनों से उसने सुधा को खत लिखना भी बन्द कर दिया है और यह भी नहीं मालूम करने का प्रयास किया कि सुधा मरती है या जीती!
घंटा-भर तक दोनों सुधा के बारे में बातें करते रहे। इतने में रिक्शावाला लौट आया। गेसू ने उसे ठहरने का इशारा किया और बोली, ”अच्छा, जरा सुधा का पता लिख दीजिए।” चन्दर ने एक कागज पर पता लिख दिया। गेसू ने उठने का उपक्रम किया तो चन्दर बोला, ”बैठिए अभी, आपसे बातें करके आज जाने कितने दिनों की बातें याद आ रही हैं!”
गेसू हँसी और बैठ गयी। चन्दर बोला, ”आप अभी तक कविताएँ लिखती हैं?”
”कविताएँ…” गेसू फिर हँसी और बोली, ”जिंदगी कितनी हमगीर है, कितनी पुरशोर, और इस शोर में नगमों की हकीकत कितनी! अब हड्डियाँ, नसें, प्रेशर-प्वाइंट, पट्टियाँ और मरहमों में दिन बीत जाता है। अच्छा चन्दर भाई, सुधा अभी उतनी ही शोख है? उतनी ही शरारती है!”
”नहीं।” चन्दर ने बहुत उदास स्वर में कहा, ”जाओ, कभी देख आओ न!”
”नहीं, जब तक कहीं जगह नहीं मिल जाती, तब तक तो इतनी आजादी नहीं मिलेगी। अभी यहीं हूँ। उसी को बुलवाऊँगी और उसके पति देवता को लिखूँगी। कितना सूना लग रहा है घर जैसे भूतों का बसेरा हो। जैसे परेत रहते हों!”
”क्यों ‘परेत’ बना रही हैं आप? मैं रहता हूँ इसी घर में।” चन्दर बोला।
”अरे, मेरा मतलब यह नहीं था!” गेसू हँसते हुए बोली, ”अच्छा, अब मुझे तो अम्मीजान नहीं भेजेंगी, आज जाने कैसे अकेले आने की इजाजत दे दी। आपको किसी दिन बुलवाऊँ तो आइएगा जरूर!”
”हाँ, आऊँगा गेसू, जरूर आऊँगा!” चन्दर ने बहुत स्नेह से कहा।
”अच्छा भाईजान, सलाम!”
”नमस्ते!”
गेसू जाकर रिक्शा पर बैठ गयी और परदा तन गया। रिक्शा चल दिया। चन्दर एक अजीब-सी निगाह से देखता रहा जैसे अपने अतीत की कोई खोयी हुई चीज ढूँढ़ रहा हो, फिर धीरे-धीरे लौट आया। सूरज डूब गया था। वह गुसलखाना बन्द कर नहाने बैठ गया। जाने कहाँ-कहाँ मन भटक रहा था उसका। चन्दर मन का अस्थिर था, मन का बुरा नहीं था। गेसू ने आज उसके सामने अचानक वह तस्वीर रख दी थी जिसमें वह स्वर्ग की ऊँचाइयों पर मँडराया करता था। और जाने कैसा दर्द-सा उसके मन में उठ गया था, गेसू ने अपने अजाने में ही चन्दर के अविश्वास, चन्दर की प्रतिहिंसा को बहुत बड़ी हार दी थी। उसने सिर पर पानी डाला तो उसे लगा यह पानी नहीं है जिंदगी की धारा है, पिघले हुए अंगारों की धारा जिसमें पडक़र केवल वही जिन्दा बच पाया है, जिसके अंगों में प्यार का अमृत है। और चन्दर के मन में क्या है? महज वासना का विष…वह सड़ा हुआ, गला हुआ शरीर मात्र जो केवल सन्निपात के जोर से चल रहा है। उसने अपने मन के अमृत को गली में फेंक दिया है…उसने क्या किया है?
वह नहाकर आया और शीशे के सामने खड़ा होकर बाल काढऩे लगा-फिर शीशे की ओर एकटक देखकर बोला, ”मुझे क्या देख रहे हो, चन्दर बाबू! मुझे तो तुमने बर्बाद कर डाला। आज कई महीने हो गये और तुमने एक चिट्ठी तक नहीं लिखी, छिह!” और उसने शीशा उलटकर रख दिया।
महराजिन खाना ले आयी। उसने खाना खाया और सुस्त-सा पड़ रहा। ”भइया, आज घूमै न जाबो?”
”नहीं!” चन्दर ने कहा और पड़ा-पड़ा सोचने लगा। पम्मी के यहाँ नहीं गया।
यह गेसू दूसरे कमरे में बैठी थी। इस कमरे में बिनती उसे कैलाश का चित्र दिखा रही थी।…चित्र उसके मन में घूमने लगे…चन्दर, क्या इस दुनिया में तुम्हीं रह गये थे फोटो दिखाकर पसन्द कराने के लिए…चन्दर का हाथ उठा। तड़ से एक तमाचा…चन्दर, चोट तो नहीं आयी…मान लिया कि मेरे मन ने मुझसे न कहा हो, तुमसे तो मेरा मन कोई बात नहीं छिपाता…तो चन्दर, तुम शादी कर क्यों नहीं लेते? पापा लड़की देख आएँगे…हम भी देख लेंगे…तो फिर तुम बैठो तो हम पढ़ेंगे, वरना हमें शरम लगती है…चन्दर, तुम शादी मत करना, तुम इस सबके लिए नहीं बने हो…नहीं सुधा, तुम्हारे वक्ष पर सिर रखकर कितना सन्तोष मिलता है…
आसमान में एक-एक करके तारे टूटते जा रहे थे।
वह पम्मी के यहाँ नहीं गया। एक दिन…दो दिन…तीन दिन…अन्त में चौथे दिन शाम को पम्मी खुद आयी। चन्दर खाना खा चुका था और लॉन पर टहल रहा था। पम्मी आयी। उसने स्वागत किया लेकिन उसकी मुस्कराहट में उल्लास नहीं था।
”कहो कपूर, आये क्यों नहीं? मैं समझी, तुम बीमार हो गये!” पम्मी ने लॉन पर पड़ी एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ”आओ, बैठो न!” उसने चन्दर की ओर कुर्सी खिसकायी।
”नहीं, तुम बैठो, मैं टहलता रहूँगा!” चन्दर बोला और कहने लगा, ”पता नहीं क्यों पम्मी, दो-तीन दिन से तबीयत बहुत उदास-सी है। तुम्हारे यहाँ आने को तबीयत नहीं हुई!”
”क्यों, क्या हुआ?” पम्मी ने पूछा और चन्दर का हाथ पकड़ लिया। चन्दर पम्मी की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया। पम्मी ने चन्दर के दोनों हाथ पकडक़र अपने गले में डाल लिये और अपना सिर चन्दर से टिकाकर उसकी ओर देखने लगी। चन्दर चुप था। न उसने पम्मी के गाल थपथपाये, न हाथ दबाया, न अलकें बिखेरीं और न निगाहों में नशा ही बिखेरा।
औरत अपने प्रति आने वाले प्यार और आकर्षण को समझने में चाहे एक बार भूल कर जाये, लेकिन वह अपने प्रति आने वाली उदासी और उपेक्षा को पहचानने में कभी भूल नहीं करती। वह होठों पर होठों के स्पर्शों के गूढ़तम अर्थ समझ सकती है, वह आपके स्पर्श में आपकी नसों से चलती हुई भावना पहचान सकती है, वह आपके वक्ष से सिर टिकाकर आपके दिल की धड़कनों की भाषा समझ सकती है, यदि उसे थोड़ा-सा भी अनुभव है और आप उसके हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, कोई याचना कर रहे हैं, सान्त्वना दे रहे हैं या सान्त्वना माँग रहे हैं। क्षमा माँग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का प्रारम्भ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं। स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं। यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमनी का।
पम्मी चन्दर के हाथों को छूते ही जान गयी कि हाथ चाहे गरम हों, लेकिन स्पर्श बड़ा शीतल है, बड़ा नीरस। उसमें वह पिघली हुई आग की शराब नहीं है जो अभी तक चन्दर के होठों पर धधकती थी, चन्दर के स्पर्शों में बिखरती थी।
”कुछ तबीयत खराब है कपूर, बैठ जाओ!” पम्मी ने उठकर चन्दर को जबरदस्ती बिठाल दिया, ”आजकल बहुत मेहनत पड़ती है, क्यों? चलो, तुम हमारे यहाँ रहो!”
पम्मी में केवल शरीर की प्यास थी, यह कहना पम्मी के प्रति अन्याय होगा। पम्मी में एक बहुत गहरी हमदर्दी थी चन्दर के लिए। चन्दर अगर शरीर की प्यास को जीत भी लेता तो उसकी हमदर्दी को वह नहीं ठुकरा पाता था। उस हमदर्दी का तिरस्कार होने से पम्मी दु:खी होती थी और उसे वह तभी स्वीकृत समझती थी जब चन्दर उसके रूप के आकर्षण में डूबा रहे। अगर पुरुषों के होठों में तीखी प्यास न हो, बाहुपाशों में जहर न हो तो वासना की इस शिथिलता से नारी फौरन समझ जाती है कि सम्बन्धों में दूरी आती जा रही है। सम्बन्धों की घनिष्ठता को नापने का नारी के पास एक ही मापदंड है, चुम्बन का तीखापन!
चन्दर के मन में ही नहीं वरन स्पर्शों में भी इतनी बिखरती हुई उदासी थी, इतनी उपेक्षा थी कि पम्मी मर्माहत हो गयी। उसके लिए यह पहली पराजय थी! आजकल पम्मी जान जाती थी कि चन्दर का रोम-रोम इस वक्त पम्मी की साँसों में डूबा हुआ है।
लेकिन पम्मी ने देखा कि चन्दर उसकी बाँहों में होते हुए भी दूर, बहुत दूर न जाने किन विचारों में उलझा हुआ है। वह उससे दूर चला जा रहा है, बहुत दूर। पम्मी की धड़कनें अस्त-व्यस्त हो गयीं। उसकी समझ में नहीं, आया वह क्या करे! चन्दर को क्या हो गया? क्या पम्मी का जादू टूट रहा है? पम्मी ने अपनी पराजय से कुंठित होकर अपना हाथ हटा लिया और चुपचाप मुँह फेरकर उधर देखने लगी। चन्दर चाहे जितना उदास हो लेकिन पम्मी की उदासी वह नहीं सह सकता था। बुरी या भली, पम्मी इस वक्त उसकी सूनी जिंदगी का अकेला सहारा थी और पम्मी की हमदर्दी का वह बहुत कृतज्ञ था। वह समझ गया, पम्मी क्यों उदास है! उसने पम्मी का हाथ खींच लिया और अपने होठ उसकी हथेलियों पर रख दिये और खींचकर पम्मी का सिर अपने कंधे पर रख लिया…
पुरुष के जीवन में एक क्षण आता है जब वासना उसकी कमजोरी, उसकी प्यास, उसका नशा, उसका आवेश नहीं रह जाती। जब वासना उसकी हमदर्दी का, उसकी सान्त्वना का साधन बन जाती है। जब वह नारी को इसलिए बाँहों में नहीं समेटता कि उसकी बाँहें प्यासी हैं, वह इसलिए उसे बाँहों में समेट लेता है कि नारी अपना दुख भूल जाए। जिस वक्त वह नारी की सीपिया पलकों के नशे में नहीं वरन उसकी आँखों के आँसू सुखाने के लिए उसकी पलकों पर होठ रख देता है, जीवन के उस क्षण में पुरुष जिस नारी से सहानुभूति रखता है, उसके मन की पराजय को भुलाने के लिए वह नारी को बाहुपाश के नशे में बहला देना चाहता है! लेकिन इन बाहुपाशों में प्यास जरा भी नहीं होती, आग जरा भी नहीं होती, सिर्फ नारी को बहलावा देने का प्रयास मात्र होता है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि चन्दर के मन पर छाया हुआ पम्मी के रूप का गुलाबी बादल उचटता जा रहा था, नशा उखड़ा-सा रहा था। लेकिन चन्दर पम्मी को दु:खी नहीं करना चाहता था, वह भरसक पम्मी को बहलाये रखता था…लेकिन उसके मन में कहीं-न-कहीं फिर अंतर्द्वंद्व का एक तूफान चलने लगा था…
गेसू ने उसके सामने उसकी साल-भर पहले की जिंदगी का वह चित्र रख दिया था, जिसकी एक झलक उस अभागे को पागल कर देने के लिए काफी थी। चन्दर जैसे-तैसे मन को पत्थर बनाकर, अपनी आत्मा को रूप की शराब में डुबोकर, अपने विश्वासों में छलकर उसको भुला पाया था। उसे जीता पाया था। लेकिन गेसू ने और गेसू की बातों ने जैसे उसके मन में मूर्च्छित पड़ी अभिशाप की छाया में फिर प्राण-प्रतिष्ठा कर दी थी और आधी रात के सन्नाटे में फिर चन्दर को सुनाई देता था कि उसके मन में कोई काली छाया बार-बार सिसकने लगती है और चन्दर के हृदय से टकराकर वह रुदन बार-बार कहता था, ”देवता! तुमने मेरी हत्या कर डाली! मेरी हत्या, जिसे तुमने स्वर्ग और ईश्वर से बढ़कर माना था…” और चन्दर इन आवाजों से घबरा उठता था।
विस्मरण की एक तरंग जहाँ चन्दर को पम्मी के पास खींच लायी थी, वहाँ अतीत के स्मरण की दूसरी तरंग उसे वेग में उलझाकर जैसे फिर उसे दूर खींच ले जाने के लिए व्याकुल हो उठी। उसको लगा कि पम्मी के लिए उसके मन में जो मादक नशा था, उस पर ग्लानि का कोहरा छाता जा रहा है और अभी तक उसने जो कुछ किया था, उसके लिए उसी के मन में कहीं-न-कहीं पर हल्की-सी अरुचि झलकने लगी थी। फिर भी पम्मी का जादू बदस्तूर कायम था। वह पम्मी के प्रति कृतज्ञ था और वह पम्मी को कहीं, किसी भी हालत में दुखी नहीं करना चाहता था। भले वह गुनाह करके अपनी कृतज्ञता जाहिर क्यों न कर पाये, लेकिन जैसे बिनती के मन में चन्दर के प्रति जो श्रद्धा थी, वह नैतिकता-अनैतिकता के बन्धन से ऊपर उठकर थी, वैसे ही चन्दर के मन में पम्मी के प्रति कृतज्ञता पुण्य और पाप के बन्धन से ऊपर उठकर थी। बिनती ने एक दिन चन्दर से कहा था कि यदि वह चन्दर को असन्तुष्ट करती है, तो वह उसे इतना बड़ा गुनाह लगता है कि उसके सामने उसे किसी भी पाप-पुण्य की परवा नहीं है। उसी तरह चन्दर सोचता था कि सम्भव है कि उसका और पम्मी का यह सम्बन्ध पापमय हो, लेकिन इस सम्बन्ध को तोड़कर पम्मी को असन्तुष्ट और दु:खी करना इतना बड़ा पाप होगा जो अक्षम्य है।
लेकिन वह नशा टूट चुका था, वह साँस धीमी पड़ गयी थी…अपनी हर कोशिश के बावजूद वह पम्मी को उदास होने से बचा न पाता था।
एक दिन सुबह जब वह कॉलेज जा रहा था कि पम्मी की कार आयी। पम्मी बहुत ही उदास थी। चन्दर ने आते ही उसका स्वागत किया। उसके कानों में एक नीले पत्थर का बुन्दा था, जिसकी हल्की छाँह गालों पर पड़ रही थी। चन्दर ने झुककर वह नीली छाँह चूम ली।
पम्मी कुछ नहीं बोली। वह बैठ गयी और फिर चन्दर से बोली, ”मैं लखनऊ जा रही हूँ, कपूर!”
”कब? आजï?”
”हाँ, अभी कार से।”
”क्यों?”
”यों ही, मन ऊब गया! पता नहीं, कौन-सी छाँह मुझ पर छा गयी है। मैं शायद लखनऊ से मसूरी चली जाऊँ।”
”मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा, पहले तो तुमने बताया नहीं!”
”तुम्हीं ने कहाँ पहले बताया था!”
”क्या?”
”कुछ भी नहीं! अच्छा, चल रही हूँ।”
”सुनो तो!”
”नहीं, अब रोक नहीं सकते तुम…बहुत दूर जाना है चन्दर…” वह चल दी। फिर वह लौटी और जैसे युगों-युगों की प्यास बुझा रही हो, चन्दर के गले में झूल गयी और कस लिया चन्दर को…पाँच मिनट बाद सहसा वह अलग हो गयी और फिर बिना कुछ बोले अपनी कार में बैठ गयी। ”पम्मी…तुम्हें हुआ क्या यह?”
”कुछ नहीं, कपूर।” पम्मी कार स्टार्ट करते हुए बोली, ”मैं तुमसे जितनी ही दूर रहूँ उतना ही अच्छा है, मेरे लिए भी, तुम्हारे लिए भी! तुम्हारे इन दिनों के व्यवहार ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया है?”
चन्दर सिर से पैर तक ग्लानि से कुंठित हो उठा। सचमुच वह कितना अभागा है! वह किसी को भी सन्तुष्ट नहीं रख पाया। उसके जीवन में सुधा भी आयी और पम्मी भी, एक को उसके पुण्य ने उससे छीन लिया, दूसरी को उसका गुनाह उससे छीने लिये जा रहा है। जाने उसके ग्रहों का मालिक कितना क्रूर खिलाड़ी है कि हर कदम पर उसकी राह उलट देता है। नहीं, वह पम्मी को नहीं खो सकता-उसने पम्मी का कॉलर पकड़ लिया, ”पम्मी, तुम्हें हमारी कसम है-बुरा मत मानो! मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।”
पम्मी हँसी-बड़ी ही करुण लेकिन सशक्त हँसी। अपने कॉलर को धीमे-से छुड़ाकर चन्दर की अँगुलियों को कपोलों से दबा दिया और फिर वक्ष के पास से एक लिफाफा निकालकर चन्दर के हाथों में दे दिया और कार स्टार्ट कर दी…पीछे मुडक़र नहीं देखा…नहीं देखा।
कार कड़ुवे धुएँ का बादल चन्दर की ओर उड़ाकर आगे चल दी।
जब कार ओझल हो गयी, तब चन्दर को होश आया कि उसके हाथ में एक लिफाफा भी है। उसने सोचा, फौरन कार लेकर जाये और पम्मी को रोक ले। फिर सोचा, पहले पढ़ तो ले, यह है क्या चीज? उसने लिफाफा खोला और पढऩे लगा-
”कपूर, एक दिन तुम्हारी आवाज और बर्टी की चीख सुनकर अपूर्ण वेश में ही अपने शृंगार-गृह से भाग आयी थी और तुम्हें फूलों के बीच में पाया था, आज तुम्हारी आवाज मेरे लिए मूक हो गयी है और असन्तोष और उदासी के काँटों के बीच मैं तुम्हें छोडक़र जा रही हूँ।
जा रही हूँ इसलिए कि अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं रही। झूठ क्यों बोलूँ, अब क्या, कभी भी तुम्हें मेरी जरूरत नहीं रही थी, लेकिन मैंने हमेशा तुम्हारा दुरुपयोग किया। झूठ क्यों बोलें, तुम मेरे पति से भी अधिक समीप रहे हो। तुमसे कुछ छिपाऊँगी नहीं। मैं तुमसे मिली थी, जब मैं एकाकी थी, उदास थी, लगता था कि उस समय तुम मेरी सुनसान दुनिया में रोशनी के देवदूत की तरह आये थे। तुम उस समय बहुत भोले, बहुत सुकुमार, बहुत ही पवित्र थे। मेरे मन में उस दिन तुम्हारे लिए जाने कितना प्यार उमड़ आया! मैं पागल हो उठी। मैंने तुम्हें उस दिन सेलामी की कहानी सुनायी थी, सिनेमा घर में, उसी अभागिन सेलामी की तरह मैं भी पैगम्बर को चूमने के लिए व्याकुल हो उठी।
देखा, तुम पवित्रता को प्यार करते हो। सोचा, यदि तुमसे प्यार ही जीतना है, तो तुमसे पवित्रता की ही बातें करूँ। मैं जानती थी कि सेक्स प्यार का आवश्यक अंग है। लेकिन मन में तीखी प्यास लेकर भी मैंने तुमसे सेक्स-विरोधी बातें करनी शुरू कीं। मुँह पर पवित्रता और अन्दर में भोग का सिद्धान्त रखते हुए भी मेरा अंग-अंग प्यासा हो उठा था…तुम्हें होठों तक खींच लायी थी, लेकिन फिर साहस नहीं हुआ।
फिर मैंने उस छोकरी को देखा, उस नितान्त प्रतिभाहीन दुर्बलमना छोकरी मिस सुधा को। वह कुछ भी नहीं थी, लेकिन मैं देखते ही जान गयी थी कि तुम्हारे भाग्य का नक्षत्र है, जाने क्यों उसे देखते ही मैं अपना आत्मविश्वास खो-सा बैठी। उसके व्यक्तित्व में कुछ न होते हुए भी कम-से-कम अजब-सा जादू था, यह मैं भी स्वीकार करती हूँ, लेकिन थी वह छोकरी ही!
तुम्हें न पाने की निराशा और तुम्हें न पाने की असीम प्यास, दोनों के पीस डालने वाले संघर्ष से भागकर, मैं हिमालय में चली आयी। जितना तीखा आकर्षण होता है कपूर कभी-कभी नारी उतनी ही दूर भागती है। अगर कोई प्याला मुँह से न लगाकर दूर फेंक दे, तो समझ लो कि वह बेहद प्यासा है, इतना प्यासा कि तृप्ति की कल्पना से भी घबराता है। दिन-रात उस पहाड़ी की धवल चोटियों में तुम्हारी निगाहें मुस्कराती थीं, पर मैं लौटने का साहस न कर पाती थी।
लौटी तो देखा कि तुम अकेले हो, निराश हो। और थोड़ा-थोड़ा उलझे हुए भी हो। पहले मैंने तुम पर पवित्रता की आड़ में विजय पानी चाही थी, अब तुम पर वासना का सहारा लेकर छा गयी। तुम मुझे बुरा समझ सकते हो, लेकिन काश कि तुम मेरी प्यास को समझ पाते, कपूर! तुमने मुझे स्वीकार किया। वैसे नहीं जैसे कोई फूल शबनम को स्वीकार करे। तुमने मुझे उस तरह स्वीकार किया जैसे कोई बीमार आदमी माफिया (अफीम) के इन्जेक्शन को स्वीकार करे। तुम्हारी प्यासी और बीमार प्रवृत्तियाँ बदली नहीं, सिर्फ बेहोश होकर सो गयीं।
लेकिन कपूर, पता नहीं किसके स्पर्श से वे एकाएक बिखर गयीं। मैं जानती हूँ, इधर तुममें क्या परिवर्तन आ गया है। मैं तुम्हें उसके लिए अपराधी नहीं ठहराती, कपूर ! मैं जानती हूँ तुम मेरे प्रति अब भी कितने कृतज्ञ हो, कितने स्नेहशील हो लेकिन अब तुममें वह प्यास नहीं, वह नशा नहीं। तुम्हारे मन की वासना अब मेरे लिए एक तरस में बदलती जा रही है।
मुझे वह दिन याद है, अच्छी तरह याद है चन्दर, जब तुम्हारे जलते हुए होठों ने इतनी गहरी वासना से मेरे होठों को समेट लिया था कि मेरे लिए अपना व्यक्तित्व ही एक सपना बन गया था। लगता था, सभी सितारों का तेज भी इसकी एक चिनगारी के सामने फीका है। लेकिन आज होठ होठ हैं, आग के फूल नहीं रहे-पहले मेरी एक झलक से तुम्हारे रोम-रोम में सैकड़ों इच्छाओं की आँधियाँ गरज उठती थीं…आज तुम्हारी नसों का खून ठंडा है। तुम्हारी निगाहें पथरायी हुई हैं और तुम इस तरह वासना मेरी ओर फेंक देते हो, जैसे तुम किसी पालतू बिल्ली को पावरोटी का टुकड़ा दे रहे हो।
मैं जानती हूँ कि हम दोनों के सम्बन्धों की उष्णता खत्म हो गयी है। अब तुम्हारे मन में महज एक तरस है, एक कृतज्ञता है, और कपूर, वह मैं स्वीकार नहीं कर सकूँगी। क्षमा करना, मेरा भी स्वाभिमान है।
लेकिन मैंने कह दिया कि मैं तुमसे छिपाऊँगी नहीं! तुम इस भ्रम में कभी मत रहना कि मैंने तुम्हें प्यार किया था। पहले मैं भी यही सोचती थी। कल मुझे लगा कि मैंने अपने को आज तक धोखा दिया था। मैंने इधर तुम्हारी खिन्नता के बाद अपने जीवन पर बहुत सोचा, तो मुझे लगा कि प्यार जैसी स्थायी और गहरी भावना शायद मेरे जैसे रंगीन बहिर्मुख स्वभावशाली के लिए है ही नहीं। प्यार जैसी गम्भीर और खतरनाक तूफानी भावना को अपने कन्धों पर ढोने का खतरा देवता या बुद्धिहीन ही उठा सकते हैं-तुम उसे वहन कर सकते हो (कर रहे हो। प्यार की प्रतिक्रिया भी प्यार की ही परिचायक है कपूर), मेरे लिए आँसुओं की लहरों में डूब जाना सम्भव नहीं। या तो प्यार आदमी को बादलों की ऊँचाई तक उठा ले जाता है, या स्वर्ग से पाताल में फेंक देता है। लेकिन कुछ प्राणी हैं, जो न स्वर्ग के हैं न नरक के, वे दोनों लोकों के बीच में अन्धकार की परतों में भटकते रहते हैं। वे किसी को प्यार नहीं करते, छायाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं, या शायद प्यार करते हैं या निरन्तर नयी अनुभूतियों के पीछे दीवाने रहते हैं और प्यार बिल्कुल करते ही नहीं। उनको न दु:ख होता है न सुख, उनकी दुनिया में केवल संशय, अस्थिरता और प्यास होती है…कपूर, मैं उसी अभागे लोक की एक प्यासी आत्मा थी। अपने एकान्त से घबराकर तुम्हें अपने बाहुपाश में बाँधकर तुम्हारे विश्वास को स्वर्ग से खींच लायी थी। तुम स्वर्ग-भ्रष्ट देवता, भूलकर मेरे अभिशप्त लोक में आ गये थे।
आज मालूम होता है कि फिर तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें पुकारा है। मैं अपनी प्यास में खुद धधक उठूँ, लेकिन तुम्हें मैंने अपना मित्र माना था। तुम पर मैं आँच नहीं आने देना चाहती। तुम मेरे योग्य नहीं, तुम अपने विश्वासों के लोक में लौट जाओ।
मैं जानती हूँ तुम मेरे लिए चिन्तित हो। लेकिन मैंने अपना रास्ता निश्चित कर लिया है। स्त्री बिना पुरुष के आश्रय के नहीं रह सकती। उस अभागी को जैसे प्रकृति ने कोई अभिशाप दे दिया है।…मैं थक गयी हूँ इस प्रेमलोक की भटकन से।…मैं अपने पति के पास जा रही हूँ। वे क्षमा कर देंगे, मुझे विश्वास है।
उन्हीं के पास क्यों जा रही हूँ? इसलिए मेरे मित्र, कि मैं अब सोच रही हूँ कि स्त्री स्वाधीन नहीं रह सकती। उसके पास पत्नीत्व के सिवा कोई चारा नहीं। जहाँ जरा स्वाधीन हुई कि बस उसी अन्धकूप में जा पड़ती है जहाँ मैं थी। वह अपना शरीर भी खोकर तृप्ति नहीं पाती। फिर प्यार से तो मेरा विश्वास जैसे उठा जा रहा है, प्यार स्थायी नहीं होता। मैं ईसाई हूँ, पर सभी अनुभवों के बाद मुझे पता लगता है कि हिन्दुओं के यहाँ प्रेम नहीं वरन धर्म और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर विवाह की रीति बहुत वैज्ञानिक और नारी के लिए सबसे ज्यादा लाभदायक है। उसमें नारी को थोड़ा बन्धन चाहे क्यों न हो लेकिन दायित्व रहता है, सन्तोष रहता है, वह अपने घर की रानी रहती है। काश कि तुम समझ पाते कि खुले आकाश में इधर-उधर भटकने के बाद, तूफानों से लड़ने के बाद मैं कितनी आतुर हो उठी हूँ बन्धनों के लिए, और किसी सशक्त डाल पर बने हुए सुखद, सुकोमल नीड़ में बसेरा लेने के लिए। जिस नीड़ को मैं इतने दिनों पहले उजाड़ चुकी थी, आज वह फिर मुझे पुकार रहा है। हर नारी के जीवन में यह क्षण आता है और शायद इसीलिए हिन्दू प्रेम के बजाय विवाह को अधिक महत्व देते हैं।
मैं तुम्हारे पास नहीं रुकी। मैं जानती थी कि हम दोनों के सम्बन्धों में प्रारम्भ से इतनी विचित्रताएँ थीं कि हम दोनों का सम्बन्ध स्थायी नहीं रह सकता था, फिर भी जिन क्षणों में हम दोनों एक ही तूफान में फँस गये थे, वे क्षण मेरे लिए अमूल्य निधि रहेंगे। तुम बुरा न मानना। मैं तुमसे जरा भी नाराज नहीं हूँ। मैं न अपने को गुनहगार मानती हूँ, न तुम्हें, फिर भी अगर तुम मेरी सलाह मान सको तो मान लेना। किसी अच्छी-सी सीधी-सादी हिन्दू लड़की से अपना विवाह कर लेना। किसी बहुत बौद्धिक लड़की, जो तुम्हें प्यार करने का दम भरती हो, उसके फन्दे में न फँसना कपूर, मैं उम्र और अनुभव दोनों में तुमसे बड़ी हूँ। विवाह में भावना या आकर्षण अकसर जहर बिखेर देता है। ब्याह करने के बाद एक-आध महीने के लिए अपनी पत्नी सहित मेरे पास जरूर आना, कपूर। मैं उसे देखकर वह सन्तोष पा लूँगी, जो हमारी सभ्यता ने हम अभागों से छीन लिया है।
अभी मैं साल भर तक तुमसे नहीं मिलूँगी। मुझे तुमसे अब भी डर लगता है लेकिन इस बीच में तुम बर्टी का खयाल रखना। कभी-कभी उसे देख लेना। रुपये की कमी तो उसे न होगी। बीवी भी उसे ऐसी मिल गयी है, जिसने उसे ठीक कर दिया है…उस अभागे भाई से अलग होते हुए मुझे कैसा लग रहा है, यह तुम जानते, अगर तुम बहन होते।
अगला पत्र तुम्हें तभी लिखूँगी जब मेरे पति से मेरा समझौता हो जाएगा…नाराज तो नहीं हो?
-प्रमिला डिक्रूज।”