आज हम एक ऐसे शख्स की कहानी बताने जा रहे हैं जिसे शहीदों की चौखट चूमने का जुनून है । वह कारगिल जंग के बाद से ही शहीद के परिवारों की पावन यात्रा करते आ रहे हैं । अब तक वह 200 से भी अधिक दिवंगत वीरों के घर की माटी को चूम चुके हैं। हम बात कर रहे हैं विकास मन्हास कि जिन्होंने जम्मू यूनिवर्सिटी से बीएससी करने के बाद मुंबई विश्वविद्यालय से मैनेजमेंट स्टडीज में मास्टर की डिग्री हासिल की है।
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फौजियों और शहीदों के प्रति सम्मान का किस्सा
फौजियों और शहीदों के प्रति उनके गहरे सम्मान का किस्सा कारगिल से पहले का है । बात 1994 की एक रात की है गर्मी की छुट्टी में मन्हास अपने परिवार के शादी में शिरकत करने के लिए शहर आए थे। एक रात खाने के बाद उन्होंने घूमने की सोची। लेकिन उन्हें यह पता नहीं था कि सूरज ढलते ही वहां कर्फ्यू हो जाता है । मन्हास अभी कुछ ही कदम चले होंगे कि एक तेज रोशनी उनकी आंखों में पड़ी और कड़क की आवाज में पूछा – रुको। कुछ समय के लिए वह ठिठक गए। चंद सेकंड बाद उनकी चेतना लौटी और दौड़ते हुए अपने घर की तरफ भागे । घर में घुसते ही उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया और परिवार वाले लोगों के बीच आकर बैठ गए। कुछ समय बाद दरवाजा खटखटाया गया। फौजियों की एक टुकड़ी सामने थी। उन्होंने कहा हमने एक आतंकी को इस घर में घुसते देखा है। मन्हास के चाचा ने इनकार किया और बोला कि हमारे यहां कोई आतंकी नहीं है। मगर मन्हास ने और हिम्मत बटोर के कहा कि आप लोगों ने जिसे देखा है मैं वह मैं ही हूं और मैं दहशतगर्द नहीं हूं।
अकेले सैनिक ने बचायी चौकी
वह खुशकिस्मत थे कि भागते हुए जवानों ने उन पर गोलियां नहीं दागी थी । फौजी लौट गए लेकिन इसके कुछ देर बाद अचानक ही गोलियों की आवाज से पूरा इलाका थर्रा उठा। बहुत देर तक गोलियों की आवाजें गूंजती रही। सुबह खबर आई कि चौकी पर आतंकियों ने घात लगाकर हमला बोला जिसमें 8 में से 7 सैनिक शहीद हो गए। अकेला बचा सैनिक रात भर आतंकियों से लोहा लेते रहा मगर उसने चौकी को लूटते और लूटने नहीं दिया।
शहीदों के परिवार का दर्द सोचकर किया फैसला
उन दिनों फौजियों का शव उनके घर पर नहीं भेजा जाता था । बल्कि अंतिम संस्कार के बाद उनके अवशेष को अपनों तक पहुंचाया जाता था । विकास मन्हास यह सोचकर व्यथित हो गए की शहीद के परिजन अपने लाडलो का आखिरी दर्शन भी नहीं कर पाते हैं। वह उन 7 जवानों की अर्थियां जलते देख कर रो पड़े। तभी उनके मन में यह विचार आया कि क्यों न शाहिद के घर वालों का दर्द साझा करने के लिए उनके घर पर जाया जाए
शहीद परिवार से पहली मुलाकात
कारगिल के जंग के समय सरकार ने यह फैसला किया था कि शहीदों के शव उनके अपनों तक ससम्मान पहुंचाए जाएंगे। तब मीडिया में वीर जवानों की कहानियां भी आने लगी थी जिससे विकास मन्हास को शहीदों के घर पर पहुंचने में आसानी हो गई । पहली बार वे ग्रेनेडियर उदयमान सिंह के घर के तरफ बढ़े थे । जब वह कमरे में दाखिल हुए तो उनकी मां नीचे बिछी कालीन पर सर झुकाए हुए बैठी थी । कारगिल की जंग में 19 साल का उनका जांबाज टाइगर हिल पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर गया था। मन्हास को कुछ समझ नही आ रहा था कि वह उनकी मां को क्या कहें। 1 घंटे तक दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई । उसके बाद उदय भान सिंह की मां ने ही पूछ लिया क्या आप चाय पिएंगे। फिर शब्दों का सिलसिला चल पड़ा । हजार बातें हुई और फिर कमरे की एक तस्वीर पर जाकर दोनों की आंखें नम हो गई क्योंकि वह उदयभान से की आखिरी तस्वीर थी। ग्रेनेडियर उदय मानसिंह की गमजदा मां से हुई मुलाकात के लंबे मौन ने विकास मन्हास को जैसे हिला दिया था।
कंपनी ने भी दिया साथ
उसके बाद से विकास मन्हास शहीदों के परिवारों की पावन यात्रा करते आ रहे हैं। किसी किसी साल तो वह 11 महीने तक सफर में ही रहते हैं । अब तक वह 200 से भी अधिक दिवंगत वीरों के घर की माटी घूम चुके हैं। मन्हास जम्मू कश्मीर के भदेरवाह के हैं । साल 2007 से 2011 तक मन्हास बौद्धिक संस्थान से जुड़ी बेंगलुरु की एक कंपनी क्रॉसटीम कंसलटिंग प्राइवेट लिमिटेड से जुड़े थे। कंपनी के काम से उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों में जाना पड़ता था। लेकिन उनके जज्बे को देखते हुए कंपनी ने मन्हास को इजाजत दी थी की वह बिजनेस दौरे के दौरान भी शहीदों के घर घूम सकते है
पिछले बीस सैलून में 200 से भी ज्यादा परिवार से मिले
मन्हास 2011 में जब जम्मू लौटे उन्होंने अपनी एक ट्रेवल कंपनी शुरू कर दी । जिससे उन्हें काफी वक्त मिल जाता था कि वह अपनी इच्छा को आसानी से पूरी कर सके। उनके पास शहीदों के परिजनों की ऐसी ऐसी कहानियां है कठोर से कठोर इंसान का भी आंसू थामना मुश्किल हो जाए । मन्हास न सिर्फ उनकी कहानी एक दूसरे से साझा करते हैं बल्कि पिछले 20 वर्षों में अनेक शहीद परिवारों से उन्हें अपनापन सा हो चुका है।