जब मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई, तो इलाके में कोई महिला पहलवान नहीं थी।
कई लोगों ने सवाल उठाए कि लड़की पहलवान बनकर क्या करेगी?
पर मैं ठहरी जिद्दी लड़की। ठान लिया, पहलवान ही बनूंगी।
इस सफर में मां ने मेरा बहुत साथ दिया।
उनकी बदौलत ही यह सपना पूरा कर पाई।
हरियाणा के रोहतक जिले में एक गांव है, मोखरा खास। इसकी आबादी करीब 11 हजार है। यहां बेटियों के जन्म पर जश्न नहीं होते। इलाके में सरकारी स्कूल हैं, जहां लड़कियों के मुकाबले लड़के ज्यादा संख्या में पढ़ते हैं। खेती-किसानी पर निर्भर इस गांव में हर परिवार की एक ही ख्वाहिश होती है कि घर में बेटा पैदा हो। शायद इसलिए यहां प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 822 है। ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली पहलवान साक्षी इसी गांव की बेटी हैं।
साक्षी के जन्म के कुछ दिनों बाद उनके पापा सुखवीर को दिल्ली में बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई और मां सुदेश आंगनवाड़ी में काम करने लगीं। अब सवाल था, साक्षी की देखभाल कौन करेगा? घर चलाने के लिए नौकरी जरूरी थी, इसलिए मम्मी-पापा ने उन्हें दादी के पास छोड़ दिया। दादा बदलूराम पहलवान थे। इलाके में उनका बड़ा रुतबा था। जब भी घर पर कोई उनसे मिलना आता, तो अदब से उनसे कहता, पहलवान जी, नमस्ते! नन्ही साक्षी को यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता।
उनके दिमाग में बड़ा विचार आया, अगर मैं दादाजी की तरह पहलवान बन जाऊं, तो लोग मेरा भी इसी तरह सम्मान करेंगे। सात साल तक साक्षी दादा-दादी के पास रहीं। इसके बाद मम्मी उन्हें अपने संग घर ले आईं।साक्षी का पढ़ाई में खूब मन लगता था। कक्षा में हमेशा अच्छे नंबर आते थे। मगर बड़े होकर टीचर या डॉक्टर बनने का ख्याल मन में कभी नहीं आया। वह कुछ ऐसा करना चाहती थीं, जिससे उन्हें दादाजी की तरह रुतबा हासिल हो।
एक दिन उन्होंने मां से कहा, मैं पहलवान बनना चाहती हूं। सुनकर मां चौंक गईं। उन्होंने समझाया, लड़कियां पहलवानी नहीं करतीं। तुङो खेलना पसंद है, तो कोई और खेल सीख ले। एक दिन वह साक्षी को लेकर रोहतक के छोटूराम स्टेडियम गईं।साक्षी ने वहां पर बच्चों को जिमनास्टिक, बास्केटबॉल, वॉलीबॉल और बैडमिंटन खेलते हुए देखा। मगर उन्हें मजा नहीं आया।
इसके बाद मां उसी स्टेडियम में कुश्ती अखाड़े की तरफ ले गईं। उस समय वहां दो पहलवान एक-दूसरे को पटखनी देने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें देखते ही साक्षी चीख उठीं, मुङो यही गेम सीखना है। सुदेश कहती हैं, मैंने समझाया कि यह बड़ा कठिन खेल है। इसमें तेरे हाथ-पैर भी टूट सकते हैं। पर वह जिद पर अड़ गई। हमें उसकी जिद पूरी करनी पड़ी। जब बात उनके दादा और पापा को पता चली, तो वे ज्यादा खुश नहीं हुए। उन्हें चिंता थी कि कुश्ती में बेटी को कोई चोट न लग जाए। हालांकि बाद में दोनों राजी हो गए।
साक्षी के ताऊ सतबीर कहते हैं, हमारे पिताजी पहलवान थे। गांव के सरपंच और तमाम बड़े-बड़े लोग उनका सम्मान करते थे। शायद यहीं से साक्षी के मन में पहलवान बनने की इच्छा पैदा हुई।बारह साल की उम्र से साक्षी कुश्ती सीखने लगीं। ईश्वर सिंह दहिया उनके पहले कोच थे। दहिया बताते हैं, साक्षी जब मेरे पास आई, तो ऐसा नहीं लगा कि उसे किसी ने भेजा है। यह उसका अपना फैसला था। ऐसे बच्चों को तैयार करना आसान होता है।
उन दिनों गांव में एक भी लड़की पहलवान नहीं थी। अखाड़े में कोच ने लड़कों से उनका मुकाबला कराया। यह देखकर सबको अजीब लगा। सबने कहा, लड़की है, तो इसका मुकाबला लड़की से ही होना चाहिए। यह सुनकर साक्षी भड़क गईं। उन्होंने कहा, मुङो फर्क नहीं पड़ता। लड़का हो या लड़की, जो सामने आएगा, उसे पटक दूंगी। इस तरह उन्होंने लड़कों के साथ अभ्यास करके कुश्ती के दांव-पेच सीखे।उनका सफर आसान नहीं रहा।
जिन दिनों वह कुश्ती के अखाड़े में उतरीं, उस समय हरियाणा के सामाजिक ताने-बाने में लड़कियों को लड़कों के मुकाबले कमजोर माना जाता था। मगर वह डटी रहीं। धीरे-धीरे पूरे गांव में मशहूर हो गईं। जब भी रास्ते से गुजरतीं, तो लोग कमेंट करते, देखो, पहलवान जा रही है। कुश्ती के अखाड़े की तरह ही वह स्कूल में भी अव्वल रहीं।
मां सुदेश कहती हैं, साक्षी पढ़ाई में अच्छी थी। उसने अपनी इच्छा से पहलवान बनने का फैसला किया। मुङो खुशी है कि मैंने उसका साथ दिया।दिलचस्प बात यह है कि उनका भाई सचिन क्रिकेट का बड़ा फैन है। वह साक्षी को चिढ़ाता कि खेलना ही है, तो क्रिकेट खेलो। पहलवान बनकर क्या करोगी? मगर साक्षी ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।
देश में कई टूर्नामेंट जीतने के बाद उन्होंने 2014 में ग्लास्गो कॉमनवेल्थ खेलों में रजत पदक जीता और 2015 में एशियन चैंपियनशिप में कांस्य जीता। पापा सुखवीर कहते हैं, साक्षी की कामयाबी में उसकी मां का बड़ा हाथ है। मैं तो दिल्ली में नौकरी कर रहा था। उसकी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी मां पर ही थी।पिछले एक साल से साक्षी ओलंपिक की तैयारी में जुटी थीं। रोजाना आठ घंटे के अभ्यास के साथ खान-पान व फिटनेस को लेकर उन्होंने सख्त नियमों का पालन किया। इस दौरान साक्षी ने सब कुछ छोड़ दिया था- टीवी देखना, फोन पर बात करना और रिश्तेदारों से मिलना। उनका पूरा फोकस ओलंपिक पर था। साक्षी कहती हैं, यह सपना था कि ओलंपिक में तिरंगा लहराऊं। मैं ऐसा कर सकी, इसके लिए उन सभी का शुक्रिया, जिन्होंने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया।
Wining Moment at Rio Olympics
पर कहते है ना, मेहनत कभी बेकार नहीं जाता। इसी साल के अप्रैल में मंगोलियाँ में हुए ओलिम्पिक क्वालिफ़ाइंग टूर्नामेंट में ब्रोंज के लिए हुए बाऊट में देश की पहली महिला पहलवान गीता फ़ौगट नहीं उतरी। जिसके कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया।
चूंकि Sakshi Malik भी उसी 58 किलोग्राम के केटेगरी में खेलती है, इसलिए उन्हें रियो ओलिम्पिक में खेलने का मौका मिला।
18 अगस्त 2016 को हुए 58 किलोग्राम के फ्रीस्टाइल रेस्लिंग में साक्षी 4 मैच जीतने में कामयाब रही, पर उन्हें क्वार्टर फाइनल में हार का सामना करना पड़ा।
पर उनके पास ब्रोंज जीतने का एक मौका बचा हुआ था, वो रेपेचेज़ राउंड में किर्गिस्तान के रेसलर के खिलाफ मुक़ाबले में उतरी।
पर सबके उम्मीदों के विपरीत साक्षी 0-5 से पिछड़ गई, अब उनपर प्रेशर आ गया, लेकिन हौसला नहीं खोई। बस मन में एक ही बात चल रहा थी,
रेस्लिंग की बाज़ियाँ तो 2 सेकंड में बदल जाती है, मेरे पास तो 10 सेकंड है।
ठीक इसके कुछ सेकंड बाद वो 4 अंक अर्जित की और 4-5 पर आ गई और अगले पल में लगातार 4 पॉइंट हासिल कर Rio Olympic में भारत के मेडल-सूखे को खत्म कर दी।
इस शानदार जीत के बाद वो काफी खुश हुई, जो उनके आंसूओं के रूप में निकला। कोच उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर कर रियो के अखाड़े में घुमाने लगे और कहने लगे,
इस बच्ची ने मुझे जिंदगी का सबसे बेहतरीन तौहफा दे दिया है। मैं जिंदगी भर इसका कर्जदार रहूँगा।
और इस जीत के बाद लेडी सुल्तान कहती है,
आज पूरे दिन नेगेटिविटी नहीं आई। आखिरी पड़ाव पर मेरे पास 10 सेकंड ही थे। मैंने 2-2 सेकंड में कुश्ती बदलते देखी है, तो सोचा 10 सेकंड में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? लड़ना है, मेडल लाना है। यहीं दिमाग में था कि मेडल तो तेरा है।