अशोक कुमार
अशोक कुमार हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता-निर्देशक थे।उनका जन्म 13 अक्तूबर, 1911 को हुआ था | अशोक कुमार को सन् 1999 में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। हिन्दी सिनेमा के युगपुरुष कुमुद कुमार गांगुली उर्फ अशोक कुमार को ऐसे अभिनेता के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने उस समय प्रचलित थियेटर शैली को समाप्त कर अभिनय को स्वाभाविकता प्रदान की और छह दशकों तक अपने बेहतरीन काम से सिनेप्रेमियों को रोमांचित किया। अशोक कुमार का असली नाम कुमुद गांगुली है। इन्हें दादा मुनी के नाम से जाना जाता है। अशोक कुमार ने 300 से ज़्यादा फ़िल्मों में अभिनय किया।
अशोक कुमार का जन्म बिहार के भागलपुर शहर के आदमपुर मोहल्ले के एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। अशोक कुमार सभी भाई-बहनों में बड़े थे। उनके पिता कुंजलाल गांगुली मध्य प्रदेश के खंडवा में वकील थे।गायक एवं अभिनेता किशोर कुमार एवं अभिनेता अनूप कुमार उनके छोटे भाई थे। दरअसल इन दोनों को फ़िल्मों में आने की प्रेरणा भी अशोक कुमार से ही मिली। अशोक कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में प्राप्त की थी और बाद में अशोक कुमार ने अपनी स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की थी। अशोक कुमार ने अभिनय की प्रचलित शैलियों को दरकिनार कर दिया और अपनी स्वाभाविक शैली विकसित की थी। वह कभी भी जोखिम लेने में नहीं घबराए और पहली बार हिन्दी सिनेमा में एंटी हीरो की भूमिका की थी। अशोक कुमार ने सन् 1934 में न्यू थिएटर में बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट के रूप में काम किया था।
अशोक, अनूप और किशोर कुमार ने ‘चलती का नाम गाड़ी’ में काम किया। इस कॉमेडी फ़िल्म में भी अशोक कुमार ने बड़े भाई की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में मधुबाला ने भी काम किया था। किशोर कुमार ने अपने कई साक्षात्कारों में यह बात स्वीकार की थी कि उन्हें न केवल अभिनय बल्कि गाने की प्रेरणा भी अशोक कुमार से मिली थी क्योंकि अशोक कुमार ने बचपन में उनके भीतर बालगीतों के जरिए गायन के संस्कार डाले थे।
फ़िल्म जगत में दादामुनी के नाम से लोकप्रिय अशोक कुमार के अभिनय सफर की शुरुआत किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं थी। 1936 में बांबे टॉकीज स्टूडियो की फ़िल्म ‘जीवन नैया’ के अभिनेता अचानक बीमार हो गए और कंपनी को नए कलाकार की तलाश थी। ऐसी स्थिति में स्टूडियो के मालिक हिमांशु राय की नज़र आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लैबोरेटरी असिस्टेंट अशोक कुमार पर पड़ी और उनसे अभिनय करने का प्रस्ताव दिया था। यहीं से उनके अभिनय का सफ़र शुरू हो गया। उनकी अगली फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ थी। 1937 में प्रदर्शित फ़िल्म अछूत कन्या में देविका रानी उनकी नायिका थीं। यह फ़िल्म कामयाब रही और उसने दादामुनी को बड़े सितारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। उस ज़माने के लिहाज़ से यह महत्त्वपूर्ण फ़िल्म थी और इसी के साथ सामाजिक समस्याओं पर आधारित फ़िल्मों की शुरुआत हुई। देविका रानी के साथ उन्होंने आगे भी कई फ़िल्में की जिनमें ‘इज्जत’, ‘सावित्री’, ‘निर्मला’ आदि शामिल हैं। इसके बाद उनकी जोड़ी लीला चिटनिस के साथ बनी
एक स्टार के रूप में अशोक कुमार की छवि 1943 में आई ‘क़िस्मत’ फ़िल्म से बनी। पर्दे पर सिगरेट का धुँआ उड़ाते अशोक कुमार ने राम की छवि वाले नायक के उस दौर में इस फ़िल्म के जरिए एंटी हीरो के पात्र को निभाने का जोखिम उठाया। यह जोखिम उनके लिए बेहद फ़ायदेमंद साबित हुआ और इस फ़िल्म ने सफलता के कई कीर्तिमान बनाए। उसी दशक में उनकी एक और फ़िल्म महल आई, जिसमें मधुबाला थीं। रोमांचक फ़िल्म महल को भी बेहद कामयाबी मिली। बाद के दिनों में जब हिन्दी सिनेमा में दिलीप, देव और राज की तिकड़ी की लोकप्रियता चरम पर थी, उस समय भी उनका अभिनय लोगों के सर चढ़कर बोलता रहा और उनकी फ़िल्में कामयाब होती रहीं। अपने दौर की अन्य अभिनेत्रियों के साथ-साथ अशोक कुमार ने मीना कुमारी के साथ भी कई फ़िल्मों में अभिनय किया जिनमें पाकीज़ा, बहू बेगम, एक ही रास्ता, बंदिश, आरती आदि शामिल हैं। अशोक कुमार के अभिनय की चर्चा उनकी आशीर्वाद फ़िल्म के बिना अधूरी ही रहेगी। इस फ़िल्म में उन्होंने एकदम नए तरह के पात्र को निभाया। इस फ़िल्म में उनका गाया गीत रेलगाड़ी रेलगाड़ी.. काफ़ी लोकप्रिय हुआ था।
अशोक कुमार ने बाद के जीवन में चरित्र अभिनेता की भूमिकाएँ निभानी शुरू कर दी थीं। इन भूमिकाओं में भी अशोक कुमार ने जीवंत अभिनय किया। अशोक कुमार गंभीर ही नहीं हास्य अभिनय में भी महारथ रखते थे। विक्टोरिया नंबर 203 फ़िल्म हो या शौक़ीन, अशोक कुमार ने हर किरदार में कुछ नया पैदा करने का प्रयास किया। उम्र बढ़ने के साथ ही उन्होंने सहायक और चरित्र अभिनेता का किरदार निभाना शुरू कर दिया लेकिन उनके अभिनय की ताजगी क़ायम रही। ऐसी फ़िल्मों में क़ानून, चलती का नाम गाड़ी, छोटी सी बात, मिली, ख़ूबसूरत, गुमराह, एक ही रास्ता, बंदिनी, ममता आदि शामिल हैं।[1] उन्होंने विलेन की भी भूमिका की। देव आनंद की ज्वैल थीफ़ में उन्होंने विलेन की भूमिका की थी।
पचास के दशक मे बाम्बे टॉकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू की और जूपिटर थिएटर को भी ख़रीद लिया। अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहली फ़िल्म समाज का निर्माण किया, लेकिन यह फ़िल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह असफल रही। इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फ़िल्म परिणीता भी बनाई। लगभग तीन वर्ष के बाद फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में घाटा होने के कारण उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी। 1953 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘परिणीता’ के निर्माण के दौरान फ़िल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन हो गई थी। जिसके कारण उन्होंने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया, लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमल रॉय के साथ 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी में काम किया। यह फ़िल्म हिन्दी फ़िल्म के इतिहास में आज भी क्लासिक फ़िल्मों में शुमार की जाती है। 1967 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘ज्वैलथीफ़’ में अशोक कुमार के अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला। इस फ़िल्म में वह अपने सिने कैरियर मे पहली बार खलनायक की भूमिका में दिखाई दिए। इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। अभिनय में आई एकरुपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए अशोक कुमार ने खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इनमें 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘आर्शीवाद’ ख़ास तौर पर उल्लेखनीय है। फ़िल्म में बेमिसाल अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म में उनका गाया गाना रेल गाड़ी-रेल गाड़ी बच्चों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ।
‘दादामुनी’ मतलब बड़े भाई के नाम से मशहूर अशोक कुमार एक बेहतरीन चित्रकार, शतरंज खिलाड़ी, एक होम्योपैथ व कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने कई फ़िल्मों में स्वयं गाने भी गाए। फ़िल्म ही नहीं अशोक कुमार ने टीवी में भी काम किया। भारत के पहले सोप ओपेरा ‘हम लोग’ में उन्होंने सूत्रधार की भूमिका निभाई। सूत्रधार के रूप में अशोक कुमार ‘हम लोग’ के एक अभिन्न अंग बन गए। दर्शक आख़िर में की जाने वाली उनकी टिप्पणी का इंतज़ार करते थे क्योंकि वह टिप्पणी को हर बार अलग तरीके से दोहराते थे। इसके अलावा उन्होंने आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के जीवन पर आधारित धारावाहिक में भी बेहतरीन भूमिका निभाई।
अशोक कुमार को फ़िल्मी सफर में कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया और क़रीब छह दशक तक बेमिसाल अभिनय से दर्शकों को रोमांचित किया।
1959 संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1962 राखी फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था।
1967 अफ़साना फ़िल्म के लिए सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था।
1969 आशीर्वाद फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था।
1969 आशीर्वाद फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला था।
1988 दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1994 स्टार स्क्रीन लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1995 फ़िल्मफ़ेयर लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।
1999 पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
2001 उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अवध सम्मान दिया गया।
2007 स्टार स्क्रीन की तरफ़ से “विशेष पुरस्कार” पुरस्कार से सम्मान दिया गया।
क़रीब छह दशक तक बेमिसाल अभिनय से दर्शकों को रोमांचित करने वाले दादामुनी अशोक कुमार 10 दिसंबर 2001 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। वह आज भले ही हमारे बीच नहीं हो लेकिन वह क़रीब 275 फ़िल्मों की ऐसी विरासत छोड़ गए हैं जो हमेशा-हमेशा के लिए दर्शकों को सोचने, गुदगुदाने और रोमांचित करने के लिए पर्याप्त हैं।