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गौरी सावंत
(सामाजिक कार्यकर्ता)
मेरी सबसे बड़ी पहचान यह है कि मैं गायत्री की मां हूं।
मुङो मां का प्यार नसीब नहीं हुआ,
लेकिन मैं अपनी बच्ची को यह कमी कभी महसूस नहीं होने दूंगी।
वह मेरा गुरूर है। मैं उसे खूब पढ़ाऊंगी।
मेरा सपना है कि वह एक आत्मनिर्भर इंसान बने।
गौरी का जन्म पुणो के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उनका नाम गणोश सुरेश सावंत रखा गया था। तब वह एक लड़का थीं। गौरी नौ साल की थीं, तभी मां चल बसीं। मां के जाने के बाद दादी ने पाला। वह लड़का थीं, लेकिन उनकी चाल-ढाल लड़कियों जैसी थी।स्कूल के दिनों में ही वह अपने अंदर अजीब-सा बदलाव महसूस करने लगीं। उन्हें एहसास होने लगा कि वह लड़का नहीं, लड़की हैं।
अक्सर घर में चुपके से दादी की साड़ी पहनकर चेहरे पर मेकअप लगा लेतीं। आईने में निहारतीं, तो खुद पर इतराना आता। मगर मन में खौफ रहता कि कहीं कोई देख न ले। पिताजी पुलिस में थे। उन्हें बेटे के तौर-तरीके बिल्कुल पसंद नहीं थे।
गौरी बताती हैं- घर में मां नहीं थी, स्कूल में दोस्त नहीं थे। ऐसा कोई करीबी न था, जिससे मन की बातें कर पातीं। पिताजी नफरत ही करते थे।जिंदगी बदतर होती जा रही थी। पड़ोस के बच्चे मजाक उड़ाते थे। कुछ तो उनको ‘हिजड़ा’ कहकर चिढ़ाने लगे। समय के साथ यह एहसास मजबूत होता गया कि वह लड़की हैं, लड़का नहीं। मुश्किलों से जूझते हुए स्कूली पढ़ाई पूरी कर वह कॉलेज में दाखिल हुईं। एमएसडब्ल्यू में स्नातक किया। घरवाले चाहते थे कि वह अच्छे बेटे की तरह नौकरी करें और परिवार की जिम्मेदारी संभालें। मगर वह तय कर चुकी थीं कि अब वह लड़के की जिंदगी नहीं जी सकतीं।
एक रात किसी से बिना कुछ कहे वह घर से निकल पड़ीं। वह रात उन्होंने दादर रेलवे स्टेशन पर गुजारी। अगले दिन चंपा नाम की एक किन्नर उन्हें अपने घर ले गई। फिर नौकरी के लिए संघर्ष शुरू हुआ, पर लोग एक किन्नर को नौकरी देने को तैयार नहीं थे। कुछ दिन भीख मांगकर काम चलाना पड़ा।इसी बीच गौरी एक गैर-सरकारी संगठन के संपर्क में आईं। मेडिकल काउंसलिंग के बाद उन्होंने सेक्स बदलने का फैसला किया। वह गणोश सावंत से गौरी सावंत बन गईं। इसके बाद उन्होंने इलाके के एक शेल्टर होम में अनाथ बच्चों की मदद करनी चाही, पर उसके संचालकों ने उन्हें ऐसा करने नहीं दिया।
गौरी बताती हैं- मैं बच्चों के पास न जाऊं, इसलिए उन्होंने मुङो काफी प्रताड़ित किया। बहुत निराशा हुई। आखिर लोग किन्नरों से इतनी नफरत क्यों करते हैं?
वर्ष 2000 में उन्होंने किन्नरों व ट्रांसजेंडर लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के मकसद से एक संगठन बनाया। जिंदगी पटरी पर आने लगी। बात साल 2001 की है। उनके जीवन में एक अहम पड़ाव आया।
मुंबई में एक सेक्स वर्कर की मौत हो गई। यह मौत उसकी नन्ही बेटी गायत्री पर कहर बनकर टूटी। बच्ची की दादी ने उसे एक दलाल को बेच दिया, मगर पड़ोसियों ने उसे बचा लिया। कुछ समय के लिए बच्ची को अनाथालय भेज दिया गया। गौरी को यह बात पता चली, तो वह उनसे मिलने पहुंची।
गौरी बताती हैं- पहली बार गायत्री से मिली, तो लगा कि वह मेरी बेटी है। मेरे अंदर ममता उमड़ पड़ी। मैंने तय किया कि इसे गोद लूंगी।गायत्री अपनी नई मां के संग उनके घराने में रहने लगीं। उस घराने में गौरी के गुरु और चेले रहते हैं। जाहिर है, वे सभी किन्नर व ट्रांसजेंडर हैं। नए घर में गायत्री को खूब प्यार मिला। कोई सिर में तेल की चंपी करता, तो कोई आइसक्रीम ले आता। काफी दिनों बाद उन्हें इतना दुलार मिला। जल्दी वह स्कूल जाने लगीं। गौरी अक्सर बेटी के संग घूमने जातीं। शॉपिंग करतीं और पार्क में सैर भी करतीं। वह आम महिला की तरह जीना चाहती थीं, लेकिन दुनिया वाले ताने मारने से नहीं चूकते।
गौरी बताती हैं- एक बार मैं और गायत्री कहीं जा रहे थे। रास्ते में ऑटोवाले ने पूछा, क्या यह भी तुम जैसी है? गायत्री ने चिल्लाकर कहा, मैं हिजड़ा नहीं हूं। हम मां-बेटी को अक्सर ऐसे सवालों का सामना करना पड़ता है। बेटी को अच्छे संस्कार मिले, इसलिए गौरी अक्सर शाम को उसे रामायण और महाभारत की कहानियां सुनातीं। गायत्री बड़े ध्यान से पौराणिक कहानियां सुनतीं और तमाम सवाल भी पूछतीं। गौरी बताती हैं- मेरी बेटी के मन में हर बात को लेकर उत्सुकता रहती है। मैं उसके हर सवाल का जवाब देने की कोशिश करती हूं, ताकि वह एक जागरूक नागरिक बने।
जल्द ही पूरे महाराष्ट्र में इस बात की चर्चा होने लगी कि एक किन्नर ने बच्ची को गोद लिया है। कुछ लोगों ने इसकी तारीफ की, तो कुछ ने सवाल उठाए। आजकल टीवी पर एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है। इस विज्ञापन में एक किन्नर अपनी बेटी को बोर्डिग स्कूल में छोड़ने जाती है। बेटी वकील बनकर अपनी मां को उनका हक दिलाने का संकल्प करती है। यह विज्ञापन गौरी के निजी जीवन पर आधारित है। दिलचस्प बात है कि इसमें किन्नर मां का किरदार खुद गौरी ने निभाया है। उन्हें उम्मीद है कि इस तरह के विज्ञापन किन्नरों के प्रति समाज का नजरिया बदलने में कारगर साबित होंगे।
गौरी बताती हैं- स्कूल में गायत्री की पढ़ाई ठीक नहीं चल रही थी, इसलिए मैंने उसे हॉस्टल में भेजने का फैसला किया। मैं उस पर अपने सपने थोपना नहीं चाहती, लेकिन मेरी तमन्ना है कि मेरी बेटी खूब पढ़े और आत्मनिर्भर बने। उसे बोर्डिग स्कूल भेजते समय मुङो बहुत रोना आया, मगर उसके बेहतर भविष्य के लिए शायद यही सही था।
साभार -हिंदुस्तान अख़बार
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