कल्पवृक्ष -एक बेटी की सोच
(कहानी)
“पापा चाय”
बेटी के इन शब्दों से जैसे मेरी तंद्रा भंग हुई।
बगीचे में पौधों को पानी देते हुए मैं बेटी के बारे में ही सोच रहा था। अच्छा-सा घर और अच्छा सा वर देखकर शादी कर दी है , लेकिन सुंदर, सुशील गुड़िया, जो घर-परिवार और दोस्तों सभी में बहुत प्रिय है, उसे जैसे किस्मत के ही हवाले कर रहा हूं, ऐसा लग रहा था।किंतु फिर भी…
इस ‘फिर भी’ को सिर्फ एक पिता ही समझ सकता है …।
मेंरे विचारों ने करवट ली, मैंने बहुत प्यार से बेटी की तरफ़ देखा, उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में कुछ अजीब-सा भाव देखा,
और पूछ ही लिया
“हाँ पापा।”
फिर उसने ही बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “पापा ये पेड़ हम यहाँ से उखाड़ कर पीछे वाले बगीचे में लगा दें तो? ”
मैं कुछ असमंजस में पड़ गया और बोला, “बेटे ये चार साल पुराना पेड़ है अब कैसे उखड़ेगा और अगर उखड़ भी गया तो दुबारा नई जगह, नई मिट्टी को बर्दाश्त कर पाएगा क्या ?
बेटी मुस्कराई,
*“पापा एक पौधा और भी तो है, आपके आँगन का,…*
*है ना…।”*
कहकर बेटी अंदर जाने लगी इधर मैं सोच रहा था, ऐसी शक्ति पूरी क़ायनात में सिर्फ़ नारी के पास है जो यह पौधा नए परिवेश में भी ना सिर्फ़ पनपता है, बल्कि, खुद नए माहौल में ढलकर औरों को सब कुछ देता है, ता उम्र औरों के लिए जीता है।
और आज महसूस हो रहा है कि 26 साल के पेड़ भी दूसरी जगह उगे रह सकते हैं,हरे भरे रह सकते हैं और यही नहीं…..
क्या सच में, यही *’कल्पवृक्ष*’ है?