क्या आपने कभी क्रोएशिया ( Croatia ) का नाम सुना था ? बहुत सारे लोगो का जवाब होगा नहीं | क्रोएशिया यूरोप का एक छोटा सा देश है। यह 1991 में दुनिया के नक्शे पर आया। लेकिन क्रोएशिया ने फीफा फुटबॉल विश्वकप 2018 के फाइनल में पहुचकर सभी लोगो को चकित कर दिया | तो चलिए हम आपको बताते है क्रोएशिया फुटबॉल टीम के कप्तान लूका मोड्रिक की कहानी की कैसे उन्होंने शरणार्थी से क्रोएशिया टीम के कप्तान तक का सफ़र तय किया |
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लुका मेड्रिक जीवन परिचय – Biography Of Luka Modric
1991 में यूगोस्लोवाकिया से क्रोएशिया अलग हुआ
क्रोएशिया पहले यह यूगोस्लोवाकिया का हिस्सा हुआ करता था। यूगोस्लोवाकिया में जदर नाम का एक इलाका था जिसमे 9 सितंबर, 1985 को लूका का जन्म हुआ। अब जदर क्रोएशिया में है। क्रोएशिया को आजादी इतनी आसानी से नहीं मिली बल्कि एस्वके लिए लाखो लोगो को अपनी क़ुरबानी देनी पड़ी | देश ने भारी खून खराबा झेला जिसमे लुका का परिवार भी शामिल था
देश ने झेला हिंसा का कहर
मुल्क को आजादी आसानी से नसीब नहीं हुई। देश ने भारी खून-खराबा झेला। लाखों लोग मारे गए। हजारों घर जलाए गए। लूका के परिवार पर भी हिंसा का कहर टूटा।
लुका के दादा को गोलियों से भुन दिया
लुका के माता-पिता एक फैक्टरी में काम करते थे। उस दिन वे काम पर गए थे। दादा जी घर पर थे। अचानक विद्रोही लड़ाकों ने गांव पर धावा बोल दिया। उन्होंने तमाम घरों में आग लगा दी। इनमें लूका का घर भी शामिल था। विद्रोही लोगों को घर से निकालकर मारने भी लगे। लूका के दादा को भी गोलियों से भून दिया गया। चारों तरफ तांडव मचा था। कोई किसी को बचाने वाला नहीं था। मासूम लूका को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्यों हो रहा है। माता-पिता की आंखों में दहशत देख वह भी सहम गए।
शरणार्थी कैंप में लेनी पड़ी शरण
घर जलाए जाने के बाद लुका के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अपनी जान बचाने के लिए उन्हें शरणार्थी कैंप में शरण लेनी पड़ी । कैंप के हालात भी बदतर थे। खाने-पीने की चीजों का संकट था। यहां तक कि पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं था। तमाम मुश्किलों के बावजूद भी लोग अपनी जान बचाने के लिए शरणार्थीं कैंप में रहने को मजबूर थे।
लूका बताते हैं,
हमें महीनों बिना बिजली और पानी के रहना पड़ा। बीमार लोगों के इलाज का इंतजाम नहीं था। मगर हम मजबूर थे। हमारे सिर पर मौत का खतरा मंडरा रहा था।
बचपन दहशत के साये में बिता
इस तरह से उनका बचपन दहशत के साये में बीता। गोलियों और ग्रेनेड की आवाजें रोजमर्रा की बात थी। कोई नहीं जानता था कि क्या होने वाला है? लूका जब भी माता-पिता से पूछते, अब क्या होगा? हम कहां जाएंगे?, तो वह उन्हें हर बार यह कहकर तसल्ली देते कि बेटा, जल्द सब कुछ ठीक हो जाएगा। हिंसा ने लोगों से रोजगार छीन लिया। तमाम फैक्टरी और कारखाने बंद हो गए। उनके माता-पिता के पास भी अब कमाई का कोई जरिया नहीं था। घर जल चुका था। नया घर बनाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। रोजगार की तलाश में उन्हें काफी भटकना पड़ा। कई शरणार्थी कैंप बदले।
लुका के पढाई लिखाई का रखा गया ध्यान
लेकिन इन तमाम मुश्किलों के बीच भी माता-पिता ने लुका की पढ़ाई का पूरा ख्याल किया। कैंप के करीब ही एक प्राइमरी स्कूल में उनका दाखिला करवा दिया गया।
लूका बताते हैं,
हमारे घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। हम लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहे। हमने कई साल शरणार्थी शिविर में गुजारे। वह दौर वाकई बहुत मुश्किल था। हम नहीं जानते थे कि कब तक जिंदा रहेंगे।
बचपन में लगा फुटबॉल का शौख
कुछ समय बाद उन्हें एक होटल में शरण मिली। वहां कई और शरणार्थी परिवार थे। माता-पिता अच्छी तरह समझते थे कि मासूम बच्चों के दिल हिंसा का गहरा असर पड़ा रहा है। इसलिए उन्होंने बच्चों के मन से खौफ निकलने के लिए उनकी खेल कूद का भी ध्यान रखा । लुका 10 साल की उम्र में होटल के लॉन में फुटबॉल खेलने लगे। कई और शरणार्थी बच्चे उनके संग खेलते थे।
लूका बताते हैं,
बचपन से मुझे फुटबॉल का शौक लग गया। मैंने तय कर लिया कि मैं फुटबॉलर बनूंगा। घरवालों ने मेरा साथ दिया।
कोच ने कहा कि तुम फुटबॉल नहीं खेल पाओगे
इस बीच उनके पिता सेना में शामिल हो गए। बेटे के शौक को देखते हुए उन्होंने उसे कोच के पास भेजा। पर कोच ने उन्हें ट्र्रेंनग देने से मना कर दिया। कोच ने कहा कि तुम फुटबॉल नहीं खेल पाओगे। तुम बहुत कमजोर और शर्मीले हो। फुटबॉल के लिए ऐसा लड़का चाहिए, जो स्मार्ट हो और गेंद के पीछे तेज भाग सके। यह सुनकर लूका बहुत निराश हुए। पर उन्होंने हार नहीं मानी। साल 2002 में एक स्थानीय कोच की मदद से उन्हें डायनामो जेग्रेब क्लब में जाने का मौका मिला। तब वह 17 साल के थे। वहां के ट्रेनर ने ट्रायल लिया। उम्मीद के मुताबिक लूका का प्रदर्शन शानदार था। उन्हें क्लब में दाखिला मिला गया। इसी साल उन्हें शहर की युवा टीम की तरफ से खेलने का मौका मिला।
अपनी टीम को विश्वकप के फाइनल तक पहुचाया
समय के साथ उनके खेल में जबर्दस्त निखार आया। मार्च 2006 में वह पहली बार अर्जेंटीना के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मैदान में उतरे। 2007 में उन्हें प्लेयर ऑफ द ईयर का तमगा मिला। 2012 में वह स्पैनिश क्लब रियाल मैड्रिड से जुड़े। चार साल इंग्लैंड में क्लब फुटबॉल खेला। अब वह क्रोएशिया की फुटबॉल टीम के कप्तान हैं। हाल में क्रोएशियाई टीम ने फीफा वल्र्ड कप केफाइनल में पहुंचकर रिकॉर्ड बना दिया। इससे पहले आज तक वह ऐसा नहीं कर सकी थी। उन्हें इस टूर्नामेंट में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का खिताब मिला।
लूका कहते हैं,
युद्ध ने मुझे एक मजबूत इंसान बनाया। मगर मैं उस वक्त को हमेशा अपने साथ लेकर जीना नहीं चाहता। अब मैं फुटबॉल के जरिए अपने देश को सबसे आगे देखना चाहता हूं।