Srila Prabhupada Biography – जानिए उस शख्स के बारे में जिसकी वजह से पूरी दुनिया करने लगी भगवान कृष्ण की पूजा

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दोस्तों आज हम बात करने वाले हैं एक ऐसे सन्यासी की, जिसने प्रेम, श्रद्धा और अपनी पूरे लगन से लोगो का मन परिवर्तित कर के विश्व में अपना एक नया कीर्तिमान कायम किया, और भारतीय सभ्यता को विश्व के कोने कोने में सबके सामने लाकर उजागर किया है |

Srila Prabhupada कौन है

उनका नाम है अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (Srila Prabhupada)। जिसको इस्कोन मंदिर के संस्थापक के रूप में भी जाना जाता है. आज जानेंगे की कैसे इन्होंने अकेले पूरे विश्व में अपने ज्ञान को फैला कर लोगो को नई जिंदगी एवं प्रेरणा दी, और लोगो के जीवन से अंधकार निकालकर ज्ञान का प्रकाश भरा।

Bhaktivedanta Swami Prabhupada Biography in Hindi
नाम(name) Srila Prabhupada
पूरा नाम (Full Name ) अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद
अन्य नाम अभय चरणारविंद, अभय चरण डे, श्रील महाप्रभु, प्रभुपाद
जन्म (Birth) 1 सितंबर 1896
मृत्यु(Death) 14 नवंबर 1977
पिता (Father) गौर मोहन डे
माता (Mother) रजनी
विवाह राधा रानी देवी
व्यवसाय
  1. गौरी वैष्णव गुरु
  2. धर्म प्रचारक
स्थापना इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की
प्रसिद्धि कृष्ण भक्त के रूप में
कर्मभूमि भारत व अमेरिका
इस्कॉन की स्थापना 1966 मे इस्कॉन की स्थापना किया
इनके गुरु का नाम श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर
योगदान
  1. इस्कॉन की स्थापना व प्रचार
  2. श्रीमद्भगवद्गीता का यथारूप में हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद
  3. वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन व संपादन
  4. संपूर्ण विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण

 

Srila Prabhupada Biography – प्रारम्भिक जीवन

Srila Prabhupada का पूरा नाम अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद है . इनका जन्म 1 सितम्बर 1896 को जन्माष्टमी के दूसरे दिन कलकत्ता के एक बंगाली परिवार में हुआ था| इन्हे  स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है, बीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। उन्होंने वेदान्त, कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इन्होने इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की और कई वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन और संपादन स्वयं है और

इनका पूर्व नाम “अभयचरण डे” था और  सन् 1922 में कलकत्ता में अपने गुरुदेव श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिलने के बाद उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता पर एक Line  लिखी और गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा 1944 में बिना किसी की सहायता के एक अंग्रेजी आरंभ की जिसके संपादन, टंकण और परिशोधन (Proof Reading) का काम स्वयं किया। निःशुल्क प्रतियाँ बेचकर भी इसके प्रकाशन क जारी रखा। सन् 1947में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया, Srila Prabhupada सहज भक्ति के द्वारा वेदान्त को सरलता से हृदयंगम करने का एक परंपरागत मार्ग फिर से प्रतिस्थापित किया जोकि लोग यह भूल चुके थे ।

सन् 1959 में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने वृंदावन में श्रीमदभागवतपुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन् 1965 में यह अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को पूरा करने के लिए यह 70 years  की आयु में ही बिना धन के और बिना किसी सहायता के अमेरिका जाने के लिए निकल पड़े जहाँ इन्होंने सन् 1966 में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) की स्थापना की

Srila Prabhupada Biography – ‘इस्कॉनकी स्थापना

Srila Prabhupada सन 1959 में संन्यास ग्रहण के बाद भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने वृन्दावन, मथुरा में ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ का अनेक खंडों में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन 1965 में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने अमेरिका को निकले। जब वे मालवाहक जलयान द्वारा पहली बार न्यूयॉर्क नगर में आए तो उनके पास एक पैसा भी नहीं था। अत्यंत कठिनाई भरे क़रीब एक वर्ष के बाद जुलाई, 1966 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (‘इस्कॉन’ ISKCON) की स्थापना की। वर्जीनिया और अमेरिका की पहाड़ियों में  सन 1968 में प्रयोग के तौर पर नव-वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की इन्होंने स्थापना की। Srila Prabhupada ने 1972 में टेक्सस के डलास में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात भी किया। 14 November 1977 मे ‘कृष्ण-बलराम मंदिर’, वृन्दावन धाम में अप्रकट होने के पूर्व तक श्रील प्रभुपाल ने अपने कुशल मार्ग निर्देशन के कारण ‘इस्कॉन’ को विश्व भर में सौ से अधिक मंदिरों के रूप में विद्यालयों, मंदिरों, संस्थानों और कृषि समुदायों का वृहद संगठन बना दिया। उन्होंने ‘अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ’ अर्थात्‌ ‘इस्कॉन’ की स्थापना कर संसार को कृष्ण भक्ति का अनुपम उपचार प्रदान किया। आज विश्व भर में इस्कॉन के आठ सौ से ज्यादा केंद्र, मंदिर, गुरुकुल एवं अस्पताल आदि प्रभुपाद की दूरदर्शिता और अद्वितीय प्रबंधन क्षमता के जीते जागते साक्ष्य हैं।

त्याग

श्री रूप गौड़िया मठ Uttar Pradesh के Allahabad वह जगह थी जहां भक्तिवेदांत जीने के लिए इस्तेमाल किया था, इन्होंने इस इमारत के पुस्तकालय में लिखी और पढ़ाई की थी, यहां उन्होंने गौड़ा «पत्र पत्रिका को संपादित किया और यह वह जगह है जहां उन्होंने मूर्तिकरण भगवान चैतन्य का जो राधा कृष्ण के देवताओं के बगल में वेदी पर खड़ा है ।‌‌ September  1959  में इनके यात्रा के दौरान उन्होंने अभय बाबू के रूप में सफेद कपड़े पहन कर इस मठ के दरवाज़े में प्रवेश किया, लेकिन भगवा, एक संन्यासी में तैयार रहना होगा। उन्होंने संन्यास नाम स्वामी को प्राप्त किया (शीर्षक से), शीर्षक स्वामी के साथ भ्रमित होने के लिए नहीं। इस मठ में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में अभय चरण भक्तिविदांत ने वैष्णव को अपने मित्र और गॉडब्रदर भक्ति प्रज्ञाना केशव से प्रतिज्ञा की और  वैष्णव को त्याग दिया। इसके बाद उन्होंने अकेले भागवत की पहली पुस्तक के 17 अध्यायों को कवर करने वाले पहले 3 खंडों को प्रकाशित किया। पुराण, एक विस्तृत टिप्पणी के साथ चार सौ पन्नों के तीन खंडों को भरना। प्रथम खंड का परिचय चैतन्य महाप्रभाव का एक जीवनी स्केच था। उन्होंने भारत छोड़ दिया, जलदूट नामक माल ढुलाई जहाज पर मुफ्त मार्ग प्राप्त करना, उद्देश्य और दुनिया भर के चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए अपने गुरु की शिक्षा को पूरा करने की आशा के साथ-साथ उनके पास एक सूटकेस और एक छाता और शुष्क अनाज की आपूर्ति, लगभग आठ डॉलर मूल्य भारतीय मुद्रा और किताबों के कई बक्से थे।

ग्रंथों की प्रामाणिकता

श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों की प्रामाणिकता की गहराई और उनमें झलकता उनका अध्ययन अत्यंत मान्य है। कृष्ण को सृष्टि के सर्वेसर्वा के रूप में स्थापित करना और अनुयायियों के मुख पर “हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे” का उच्चारण सदैव रखने की प्रथा इनके द्वारा स्थापित हुई। सन् 1950 में  Srila Prabhupada ने अपने गृहस्थ जीवन से अवकाश लिया और फिर Srila Prabhupada ने वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करने लगे और जिससे वे अपने अध्ययन और लेखन के लिए अधिक समय दे सके। वे वृन्दावन धाम आकर बड़ी ही सात्त्विक परिस्थितियों में मध्यकालीन ऐतिहासिक श्रीराधा दामोदर मन्दिर में रहे। वहाँ वे अनेक वर्षों तक गंभीर अध्ययन एवं लेखन में संलग्न रहे। ‌‌Srila Prabhupada ने‌ 1959‌ में संन्यास ग्रहण कर लिया और श्रीराधा दामोदर मन्दिर में Srila Prabhupada ने अपने जीवन के सबसे श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का आरंभ किया और उनका ग्रंथ‌ कुछ इस प्रकार से है “अठारह हज़ार श्लोक संख्या के श्रीमद्भागवत पुराण का अनेक खण्डों में अंग्रेज़ी में अनुवाद और व्याख्या”।

मृत्यु

श्रील प्रभुपाद जी का मृत्यु 14 नवम्बर 1977 प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के वृन्दावन धाम  में हुआ था ।

FAQ – Srila Prabhupada Biography

 

  1. श्रील प्रभुपाद जी का पूरा नाम क्या है

Ans. इनका पूरा नाम अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद

Q.श्रील प्रभुपाद जी का शादी कब और किससे हुई थी

Ans. श्रील प्रभुपाद जी का शादी राधा रानी से 1918 मे हुई थी

  1. श्रील प्रभुपाद जी का मृत्यु कब हुई थी

Ans. इनका मृत्यु 14 नवंबर 1977 में हुई थी

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