मणिपुर में जन्मीं सैखोम मिराबाई चानू ने अमेरिका के आनाहिम में हुई चैम्पियनशिप में नया विश्व कीर्तिमान स्थापित करते हुए स्नैच में कुल 194 किलोग्राम- 85 किग्रा और क्लिन एण्ड जर्क में 109 किग्रा वजन उठा कर वर्ल्ड चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल किया। उन्होंने देश को इस स्पर्धा में दूसरी बार गोल्ड दिलवाया है। पोडियम पर खड़े होकर तिरंगा देख कर चानू के आँखों में खुशी के आँसू आ गए थे। परंतु यह सब इतना आसान नहीं था। रियो अोलंपिक के अवसाद से उबरने और तीन प्रयासों में विफल होने के बाद उनके नाम के आगे DNF (Did Not Finish) लिखा जाना उनके सपनों का चकनाचूर हो जाने जैसा था।
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बचपन आभाव में बिता
मणिपुर के छोटे से गांव की चानू का बचपन अभाव में बीता। परिवार के लिए भरपेट खाना मिलना बड़ी बात थी। मेहनत-मजूदरी करके किसी तरह गुजारा चल रहा था। उन दिनों गांव में भारोत्तोलन चैंपियन कुंजरानी देवी की बड़ी चर्चा थी। दरअसल, कुंजरानी भी मणिपुर की ही हैं। साधारण परिवार से ताल्लुक रखने वाली इस खिलाड़ी ने कई रिकॉर्ड बनाए। चानू उनके किस्से सुनते हुए बड़ी हुईं।
कुंजरानी के किस्से सुन सुनकर बड़ी हुयी
एक बार पिता किसी काम से इंफाल गए। चानू उनके साथ थीं। वहां भारोत्तोलन प्रतियोगिता चल रही थी। मैदान में भार उठाती महिलाएं और चारों तरफ शोर मचाती भीड़। नजारा अद्भुत था। तभी एक महिला की ओर इशारा करते हुए पापा ने बताया, ये कुंजरानी हैं। चानू को खेल दिलचस्प लगा। बड़ी मासूमियत से पूछा, क्या मैं भी उनकी तरह वजन उठा सकती हूं? पापा हंस पड़े। नन्ही चानू के मन में लगातार यह सवाल उठता रहा कि एक औरत इतना वजन कैसे उठा सकती है? तब वह मात्र 13 साल की थीं। कक्षा पांच पास कर चुकी थीं। एक दिन पापा से बोलीं, मैं भी वजन उठाने वाले खेल में हिस्सा लेना चाहती हूं। पापा ने यह कहकर बात टाल दी कि इसके लिए काफी ट्र्रेंनग लेनी पड़ती है। चानू के मन में भारोत्तोलक बनने का सपना बस चुका था।
घर की आर्थिक स्थिति थी ख़राब
पिता पढ़े-लिखे तो नहीं थे, पर खेल की अहमियत समझते थे। मणिपुर की तमाम लड़कियां खेल में नाम कमा चुकी थीं। इसलिए जब बेटी ने जिद पकड़ी, तो उन्होंने सोचा, चलो उसे मौका दिया जाए। गांव से 60 किमी दूरी पर एक ट्रेनिंग सेंटर था। वहीं 2007 में ट्र्रेंनग शुरू हुई। शुरुआत से ही प्रदर्शन अच्छा रहा। ट्र्रेंनग के पहले ही दिन उन्हें समझाया गया कि वजन उठाने के लिए व्यायाम और खान-पान पर ध्यान देना होगा। कोच ने उन्हें डाइट चार्ट दिया। फल-सब्जी के अलावा रोज दूध और चिकन खाना जरूरी था। डाइट चार्ट देखते ही होश उड़ गए। घर में चिकन पूरे साल में कभी-कभार ही बनने की नौबत आती थी। घर के हालात ऐसे नहीं थे कि यह सब खाने-पीने का खर्च उठाया जा सके। घर में बिना किसी से कुछ कहे चानू ट्र्रेंनग करती रहीं। रोजाना 60 किमी का सफर तय करके सेंटर पहुंचतीं। दो घंटे व्यायाम के बाद वजन उठाने का अभ्यास करतीं। शाम को लौटतीं, तो तेज भूख लगती। जो सबके लिए बनता, वही खाकर सो जातीं। पर्याप्त डाइट नहीं मिलने के कारण सेहत बिगड़ने लगी। चानू बताती हैं, हमारे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि रोज एक गिलास दूध मिल सके। मैंने तय कर लिया था कि चाहे जो हो, खेल तो नहीं छोड़ूंगी।
घरवालो ने कहा खेल छोड़ दो
एक दौर ऐसा भी आया, जब घरवालों ने कहा कि खेल छोड़ दो। पर चानू नहीं मानीं। डटी रहीं। ट्र्रेंनग के पहले ही वर्ष में स्थानीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मौका मिल गया। तब तक सब मान चुके थे कि यह लड़की अच्छा खेलेगी। खेल के कारण पढ़ाई के लिए बहुत कम समय मिलता था। किसी तरह 10वीं पास किया। बड़ी कामयाबी मिली साल 2011 में, जब चानू ने दक्षिण एशियाई जूनियर खेल में गोल्ड मेडल जीता। अब पूरा देश उन्हें पहचानने लगा था। कुंजरानी देवी बनने का सपना हकीकत बन चुका था। खेल कोटे से रेलवे में नौकरी भी मिल गई। हालात बदलने लगे। 2013 में जूनियर नेशनल चैंपियनशिप में सर्वश्रेष्ठ भारोत्तोलक का खिताब अपने नाम किया। मेडल जीतकर लौटीं, तो गांव में बड़ा जश्न हुआ। जूनियर र्चैंपयनशिप के बाद बारी राष्ट्रमंडल खेलों की थी। नए कोच ने कहा कि मुकाबला कड़ा होगा, और मेहनत करो। 2014 में ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में चानू ने सिल्वर मेडल जीता। इसके बाद तो हौसले और बुलंद हो गए।
चानू कहती हैं,
‘खिलाड़ी का जीवन अलग होता है। हमारे लिए हर खेल के बाद एक नई चुनौती आती है। हमारे काम के घंटे तय नहीं होते। हर मैच के बाद और ज्यादा मेहनत करनी होती है।’
साल 2016 करियर का सबसे बड़ा लक्ष्य लेकर आया। बारी थी रियो ओलंपिक की। वह मौका गंवाना नहीं चाहती थीं। कई महीने घर से दूर रहीं। पूरी शिद्दत से तैयारी की। परंतु उतने बड़े मंच पर वे अवाक रह गई और दो प्रतिभागीयों, जिन्होंने बारबेल से तीन क्लिन एण्ड जर्क प्रयास को भी पूरा न कर पायी उनमें से एक मिराबाई चानू थी। चानू बताती हैं, ओलंपिक में जाना मेरा सपना था। मैंने क्वालिफाई भी कर लिया, पर मेडल नहीं जीत पाई। इससे बड़ी मायूसी हुई।
“वह इतनी अवसादग्रस्त हो गई थी कि हमलोंगो के लिए उसे नियंत्रित कर पाना कठिन था। हमलोग लगभग 2 सालों से तैयारी कर रहे थे और मेडल की आशा कर रहे थे। रियो से लौटकर वह पाँच दिनों के लिए घर गई फिर पटियाला (नेशनल ट्रेनिंग सेंटर) आ गई और फिर 14 महिनों तक वह घर वापस नहीं गई” ,शर्मा ने बताया।
निराशाजनक प्रदर्शन पर उठे सवाल
रियो में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद सवाल भी उठे। कुछ लोगों ने कहा कि तैयारी ठीक से नहीं की थी। चानू ने लोगों को जवाब देने की बजाय चूक तलाशने पर ध्यान केंद्रित किया, ताकि अगले लक्ष्य के लिए बेहतर तैयारी की जा सके।
“ओलंपिक एक दुर्भाग्य था, उसके बाद मैं कई हफ्तों तक न ठीक से खाना खा पाती या फिर सो पाती। यहाँ तक की आज भी उन दिनों को सोचकर मैं अवसादित हो जाती हूँ।” आनाहिम से एक साक्षात्कार में बात करते हुए उन्होंने कहा, “सौभाग्यवश, मेरे उस बुरे पल के वक्त देशवासी सो रहे थे।” और बुधवार की रात उनके बेहतरीन प्रदर्शन के वक्त भी जनता नींद में थी।
वो मेरे ख़ुशी के आंसू थे
ओलंपिक के बाद एक साल तक कोच विजय शर्मा के नेतृत्व में ट्रेनिंग ली। पिछले सप्ताह ही विश्व चैंपियनशिप में 194 किलोग्राम वजन उठाकर चानू ने गोल्ड मेडल अपने नाम किया है। गर्व से भरे उस क्षण का नजारा पूरे देश ने देखा। वह नजारा, जब चानू अमेरिका के ऐनाहिम शहर में तिरंगा ओढ़कर पोडियम पर खड़ी थीं और उनकी आंखों से अनवरत आंसू बह रहे थे। चानू बड़ी विनम्रता से कहती हैं- देश के लिए मेडल जीतना गर्व की बात होती है। वे तो मेरी खुशी के आंसू थे।