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BIRBAL JHA BIOGRAPHY IN HINDI
बीरबल झा जीवन परिचय
आपके जीवन का लक्ष्य क्या है? आप अपने जीवन में क्या बनना चाहते हैं? ये जीवन के कुछ ऐसे बुनियादी सवाल हैं जिससे हम सब कभी-न-कभी जरूर गुजरते हैं। अपने जीवन को ऊंचाई देने के लिए हम बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाते हैं, बड़े-बड़े सपने देखते हैं। लेकिन सच तो यह है कि कई बार हमारी ज़िंदगी किसी छोटी-सी बात से भी अपनी मंज़िल तय कर लेती है। यह कहानी उसी की मिशाल है।
अंग्रेजी शेरनी के दूध की तरह है
कहानी की शुरुआत बिहार के मधुबनी ज़िले के एक छोटे-से गांव से होती है। गांव के निर्धन परिवार का एक बच्चा दूसरे बच्चों की तरह ही रोज़ स्कूल जाता है और स्कूल से लौटकर खेती-बाड़ी के कामों में वह अपने परिवार का हाथ बंटाता है। लेकिन स्वाभाव से यह बच्चा कहीं-न-कहीं जिज्ञासु जरूर है और शायद तभी एक दिन स्कूल में गुरूजी की कही बात को वह अपने दिल से लगा लेता है। गुरूजी बच्चों को अंग्रेजी भाषा पढ़ाते हुए भारत के संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के कथन का ज़िक्र करते हैं कि “अंग्रेजी शेरनी के दूध की तरह है और जो इसे पीता है, वह शेर बन जाता है।” बस, यही वह घटना है जहाँ से उस छोटे से बालक के जीवन में एक नए सपने का जन्म होता है। अंग्रेजी पढ़ने और उसमें महारत हासिल करने की ज़िद्द ही अब उस बच्चे की ज़िंदगी का आखिरी मकसद बन जाता है।
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ढाबे पर किया वेटर का काम
कहते हैं कि जीवन के सपने को साकार करने के लिए सोना नहीं बल्कि जागना पड़ता है। इस कहानी के बच्चे के साथ भी यही हुआ। जिस तरह कुंदन को अपनी सुंदरता पाने के लिए पहले आग में तपना पड़ता है ठीक उसी तरह छोटी-सी उम्र में ही गांव से निकलकर पटना आना और फिर अपने सपने को आगे बढ़ाने के लिए ज़द्दोज़हद करने की कहानी कुछ ऐसी ही है। केवल 27 रूपये लेकर घर से निकले इस बच्चे को पटना के मुसल्लहपुर मोहल्ले में एक ढाबे पर वेटर का काम मिल गया। ज़िंदगी को सहारा मिला तो धीरे-धीरे सहयोगी भी मिलने लगे। प्रदीप झा ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी जान-पहचान से एक प्रिंटिंग प्रेस जिसका नाम ‘मुरलीधर प्रेस’ था, में चपरासी की नौकरी दिला दी। बेशक, ज़िंदगी कुछ आसान हुई मगर रास्ते उतने ही मुश्किलों से भरे थे। पढ़ना, आजीविका के लिए काम करना और अपने सपने को लेकर आगे बढ़ते जाना यही दिनचर्या बन गया। इस राह में न जाने कितनी ठोकरें मिलीं, भटकाव आया, भूखा सोया, सड़क किनारे सोया, कितने रास्ते बदले बगैरह-बगैरह के पाई-पाई का हिसाब अब भी उसके पास है। मगर खास बात यह कि वह कभी थका नहीं, हारा नहीं। इस बच्चे ने अपने सपने को अपनी आँखों से कभी ओझल न होने दिया। फिर सवाल तो यह भी है कि अगर ऐसा हो जाता तो यह कहानी भला मुकम्मल कैसी होती?
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‘ब्रिटिश लिंगुआ की स्थापना
संघर्षों के साथ पढ़ाई करते हुए डबल मास्टर्स की डिग्री और फिर बिहार के प्रतिष्ठित पटना विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल करके अंग्रेजी भाषा के माध्यम से देश-दुनिया में अपनी पहचान बनाने वाला वह बच्चा आगे चलकर डॉ. बीरबल झा के नाम से जाना गया। आज डॉ. बीरबल झा को बिहार ही नहीं बल्कि समूचे देश में अंग्रेजी भाषा में काम करने और उनके नवीन प्रयोगों के लिए बखूबी जाना जाता है। उन्होंने 1993 में सोशल एंटरप्राइज ‘ब्रिटिश लिंगुआ’ की स्थापना की और तब से ‘इंग्लिश फॉर ऑल’ के नाम समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चों को अंग्रेजी सिखाने की जो मुहिम शुरू की उसका लाभ लाखों बच्चों तक पहुंचा। आज वो बच्चे देश के विभिन्न क्षेत्रों में काम करते हुए न केवल अपनी ज़िंदगी को बल्कि अपने समाज की ज़िंदगी को भी बदलने में कामयाब -हुए हैं।
अंग्रेजी भाषा के प्रति जुनून
डॉ. बीरबल झा का यह अंग्रेजी भाषा के प्रति जुनून था है कि उन्होंने इसे समाज बदलने का जरिया बनाया अनेक बच्चों और युवाओं को गरीबी के अंधे कुएं से बाहर निकाला। अंग्रेजी भाषा पर अबतक लगभग 25 किताबें लिख चुके डॉ. बीरबल झा के काम की प्रशंसा देश-विदेश की कई पत्र-पत्रिकाओं में हुई है और उन्हें अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित जा चुका है। हाल ही में उन्होंने एक मौलिक शिक्षण-प्रणाली ‘स्ट्रक्चरल-कम-इंटरेक्टिव मैथड’ (सिम) को भी विकसित किया है जो शिक्षा के क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय हो रहा है। अंग्रेजी भाषा को सफलता का पर्याय बनाने वाले और मिशन में सक्रिय 47 वर्षीय डॉ झा वर्तमान में ‘लिंगुआ मल्टीसर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड’ के प्रबंध निदेशक हैं। आज उनकी पहचान वर्ल्ड सेलिब्रिटी के रूप में है ।
राष्ट्रिय समाचार पत्रों में स्तंभकार के रूप में भी किया काम
डॉ झा की लिखी ‘इंग्लिशिया बोली‘ नाटक, जिसमें देश में अंग्रेजी शिक्षा की आवश्यकता को दर्शाया गया है, 2013 प्रकाशित हुआ। वे एक प्रसिद्ध लेखक, सोशल ऑन्टरप्रेनर, सामाजिक उद्यमी, सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता, गीतकार और भाषाविद भी हैं। वे दैनिक जागरण के काॅलम ‘सीखें सही अंग्रेजी‘ और हिन्दुस्तान के ‘जानो इंग्लिश‘ के स्तंभकार रहें हैं। साथ हीं वे विभिन्न दैनिक समाचार पत्रों में स्तंभों के माध्यम से पाठकों और शिक्षार्थियों की मदद भी करते रहे हैं।
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विदेशों में भी लहराया परचम
कई अन्य हस्तियों के अलावा, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एलिजाबेथ शॉएल ने डॉ झा की किताब ‘सेलिब्रेट योर लाइफ‘ की भूरी-भूरी प्रशंशा की। उनकी विशेषज्ञता, दक्षता और मेधा को मानते हुए, बिहार सरकार ने डॉ झा के संगठन को 2009 में पहली बार बिहार के सरकारी उच्च विद्यालयों के शिक्षकों के लिए ‘स्पोकेन इंग्लिश एंड कैपेसिटी बिल्डिंग‘ प्रशिक्षण का काम भी सौंपा, जो काफ़ी सफल रहा । हजारों दलित युवक- युवती को अंग्रेजी का सफल प्रशिक्षण देकर जीवन शैली बदली।
2010 में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स में ब्रिटिश लिंगुआ ने प्रशिक्षण दल का सफल नेतृत्व किया। इस अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में दिल्ली के प्रथम संपर्क सूत्र के रूप में काम करने बाले लोगों को अंग्रेजी और व्यवहार कौशल का प्रशिक्षण देने का काम उनकी संस्था ने किया था।
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पाग बचाओ अभियान
2016 में मिथिलालोक फाउंडेशन द्वारा शुरू किए गए ‘पाग बचाओ अभियान‘ एक आंदोलन के रूप में प्रसिद्ध रहा जिसकी अगुवाई डॉ झा ने अध्यक्ष के रूप में की। जिसके परिणामस्वरूप 2017 में केंद्र सरकार ने ‘पाग‘ जो मिथिलांचल की सांस्कृतिक प्रतीक चिन्ह है पर डाक टिकट जारी किया। उन्होंने बाल सुरक्षा को लेकर अभियान चलाया और ‘चाइल्ड सेफ्टी‘ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी। सांस्कृतिक मूल्यों, देश प्रेम एवं बालहित में दर्जनों गानों के बोल भी लिखे। उनमें से एक गाने के बोल ‘क्या गुनाह था मेरे बच्चे का’ जिसे यूट्यूब पर पोस्ट किया गया। उसे अब तक 80 लाख से अधिक लोगो ने देखा व सुना है।
सक्रीय सामाजिक कार्यकर्त्ता
2017 में जाने माने लेखक विवेकानंद झा की पुस्तक ‘द लिविंग लीजेंड्स ऑफ मिथिला‘ प्रकाशित हुई, जिसमें सामाजिक क्षेत्र में योगदान देने वाले 25 प्रमुख हस्तियों के नाम एवं उनकी कृति को भी अंकित किया गया। इस किताब में डॉ बीरबल झा को ‘यंगेस्ट लिविंग लीजेंड ऑफ मिथिला‘ का दर्जा दिया गया। डॉ झा ने एक सामजिक कार्यकर्त्ता होने के नाते ‘आदर्श विवाह अभियान‘ चलाया जिसके तहत उन्होंने 365 जोड़ियों की शादियां बिना दहेज़ के हीं करबाये।
संचार कौशल के विकास और अन्य सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में उनके योगदान से प्रभावित होकर उन्हें ‘स्टार ऑफ एशिया’ के खिताब से नवाज़ा गया इसके अलावा भी कई पुरस्कार और प्रशंसा पत्र से उन्हें सम्मानित किया गया। उनकी विद्वता एवं वैचारिक प्रतिबद्धता ने न्यूयॉर्क टाइम्स का ध्यान इस ओर आकर्षित किया और 2003 में उन पर एक कहानी भी चलाई।