Bhikhari thakur

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भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जाने वाले लोक कलावंत भिखारी ठाकुर की आज जन्मदिन है. वह भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार होने के साथ ही रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, नारी विमर्श और दलित विमर्श के उद्घोषक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक भी रहे हैं.

भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में एक निम्नवर्गीय नाई परिवार में हुआ था .उनकी मां का नाम शिवकली देवी और पिता का नाम  दल्सीसिंगर ठाकुर था . उनके परिवार के लोगो का मुख्य पेशा लोगो का बल काटना ,शादी या मौत का समाचार लोगो तक पहुचाना , शादी या मौत के विधि विधान में सहायता करना था . अपने कामों के बारे में  वे कहते हैं: “जति हज्ज अधिक कुतुबपुर मोकम। जाति पाशा बेट, बीड़ी नहिन बाट बाबुजी … (मैं जाति द्वारा नाई हूं और मैं कुतुबपुर से आ रहा हूं। मेरी जाति केवल मेरा काम है। यह मेरी शिक्षा जैसी नहीं है।) इसमें वह अपनी जाति के बारे में बोलता है और पछताता है कि उनका जाति के लोग पत्र, या वर्णों के महत्व को जानते हुए बिना सभी को पत्र वितरित कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से शिक्षा की शक्ति को समझ लिया था

जन्म लेने वाले भिखारी ठाकुर ने विमुख होती भोजपुरी संस्कृति को नया जीवन दिया. भोजपुरी के नाम पर सस्ता मनोरंजन परोसने की परंपरा भी उतनी ही पुरानी है, जितना भोजपुरी का इतिहास.

उनकी मां का नाम शिवकली देवी था और पिता दल्सीसिंगर ठाकुर थे। वह भारतीय समाज में सबसे पिछड़ी जातियों में से एक नाई (नाई जाति) का था। उनकी जाति का पारंपरिक काम बाल कटवाने और ट्रिम कर रहा था और शादी में ब्राह्मणों के साथ-साथ मौत के समारोहों में भी सहायता करता था। गांव और आसपास के इलाकों में औपचारिक (विवाहों और मौतों के मामलों) और अन्य संदेशों को भेजने और वितरित करने के लिए उनका उपयोग डिकस (गांव के दूत) द्वारा भी किया जाता था। उन्होंने पारंपरिक-सामंती गांव सेटअप में डाक मजदूरों की तरह काम किया।
अपने कामों में से एक में वे कहते हैं: “जति हज्ज अधिक कुतुबपुर मोकम। जाति पाशा बेट, बीड़ी नहिन बाट बाबुजी … (मैं जाति द्वारा नाई हूं और मैं कुतुबपुर से आ रहा हूं। मेरी जाति केवल मेरा काम है। यह मेरी शिक्षा जैसी नहीं है।) इसमें वह अपनी जाति के बारे में बोलता है और पछताता है कि उनका जाति के लोग पत्र, या वर्णों के महत्व को जानते हुए बिना सभी को पत्र वितरित कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से शिक्षा की शक्ति को समझ लिया और अपने लोगों को निरक्षर और जजमानी (संरक्षक)

इनका जन्म नाई परिवार में हुआ था जो लोगों के बाल काटने एवं अन्य कार्य करने के पेशेवर थे ! परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी जिसकी वजह से रोजी – रोजगार की तलाश में ए खड़गपुर चले गए वहां पर इन्होनें मजदूरी करके काफी पैसा कमाया किन्तु ये अपने द्वारा कमाए गये पैसों से संतुष्ट नहीं थे, यहाँ से ये जगन्नाथपुरी चले गए किन्तु वहां पर भी इनका मन नहीं लगा और पुनः अपने गाँव लौट आये, गाँव में आकर इन्होनें अपनी खुद की नाट्य मंडली और रामलीला में मंचन करने का कार्य आरम्भ किया, शुरुआत के दिनों में इनका नाट्य मंडली बहुत अच्छा नहीं चला किन्तु समय के साथ इनके नाटकों की लोकप्रियता बढती चली गयी, इनके नाटकों मेमें सामाजिक कुरीतियों को बहुत ही शानदार ढंग से पियोया जाता था, जिससे की समाज में व्याप्त तमाम प्रकार की सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सके, लोगों में इनके नाट्य प्रस्तुति की आकांक्षा सदैव बनी रहती थी कुछ लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोग इनके नाटक को मनोंरंजन की दृष्टि से देखने थे और समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के विषय में कुछ भी नहीं सोचने थे ! इनका सबसे प्रसिद्ध नाटक विदेसिया था जिसमें इन्होनें बेटी – बचाओं की बात कहीं क्योकि इस दौर के समाज में बेटी के जन्म लेने पर लोगों की मनोभावना कुंठित हो जाती थी ! इस लिए इन्होने लोगों की सोच में बदलाव लाने के लिए अपने इस नाटक का सृजन किया, पढाई के मामले में ये एकदम शून्य थे किन्तु उसके उपरांत भी इन्होनें भोजपुरी साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया, और कई नाटकों का सृजन, विभिन्न गीत संग्रह एवं अन्य पुस्तकों को इन्होनें पटना- बनारस और हावड़ा से प्रकाशित कराया, ये सदैव सामाजिक कार्यों से जुड़ें रहने वाले व्यक्ति थे ! ब्राह्मण वादी विचार धारा की वजह से इन्हें कई बार जातिगत आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, उसके बाद भी यह प्रसिद्ध लोक कलाकार अपनी कला के दम पर बहुत बड़ी ख्याति को अर्जित किया, विश्व के तमाम देशों में इन्होनें भोजपुरी साहित्य का परचम लहराया और विश्व साहित्य जगत में भोजपुरी साहित्य को एक ऊँचा इस महान लोक कलाकार का निधन 10 जुलाई 1971 को हो गया !

उन्होंने भोजपुरी संस्कृति को सामाजिक सरोकारों के साथ ऐसा पिरोया कि अभिव्यक्ति की एक धारा भिखारी शैली जानी जाने लगी. आज भी सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार का सशक्त मंच बन कर जहां-तहां भिखारी ठाकुर के नाटकों की गूंज सुनाई पड़ ही जाती है.

भिखारी ठाकुर लोक कलाकार ही नहीं थे, बल्कि जीवन भर सामाजिक कुरीतियों और बुराइयों के खिलाफ कई स्तरों पर जूझते रहे. उनके अभिनय और निर्देशन में बनी भोजपुरी फिल्म ‘बिदेसिया’ आज भी लाखों-करोड़ों दर्शकों के बीच पहले जितनी ही लोकप्रिय है. उनके निर्देशन में भोजपुरी के नाटक ‘बेटी बेचवा’, ‘गबर घिचोर’, ‘बेटी वियोग’ का आज भी भोजपुरी अंचल में मंचन होता रहता है. इन नाटकों और फिल्मों के माध्यम से भिखारी ठाकुर ने सामाजिक सुधार की दिशा में अदभुत पहल की. फिल्म बिदेसिया की ये दो पंक्तियां तो भोजपुरी अंचल में मुहावरे की तरह आज भी गूंजती रहती हैं.

“हंसि हंसि पनवा खीऔले बेईमनवा कि अपना बसे रे परदेश

कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गइले, मारी रे करेजवा में ठेस!

भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व में कई आश्चर्यजनक विशेषताएं थी. मात्र अक्षर ज्ञान के बावजूद पूरा रामचरित मानस उन्हें कंठस्थ था. शुरुआती जीवन में वह रोजी-रोटी के लिए अपना घर-गांव छोडकर खड़गपुर चले गए थे. कुछ वक्त तक वहां नौकरी की. तीस वर्षों तक पारंपरिक पेशे से जुड़े रहे. अपने गांव लौटे तो लोक कलाकारों की एक नृत्य मंडली बनाई. जिसके बाद वह रामलीला करने लगे. उनकी संगीत में भी गहरी अभिरुचि थी. वह कई स्तरों पर कला-साधना करने के साथ साथ भोजपुरी साहित्य की रचना में भी लगे रहे.

 

भिखारी ठाकुर ने कुल 29 पुस्तकें लिखीं. आगे चलकर वह भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के समर्थ प्रचारक और संवाहक बने. बिदेसिया फिल्म से उन्हें खूब प्रशंसा मिली.

पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित

भिखारी ठाकुर के नाटक ‘बेटी बेचवा’, ‘गबर घिचोर’, ‘बेटी वियोग’ सहित उनके सभी नाटकों में बदलाव को दिशा देने वाले एक सामाजिक चिंतक की व्यथा साफ दिखती है.

वह अक्सर अपने नाटकों में सूत्रधार बनते और अपनी बात बड़े चुटीले अंदाज़ में कह जाते. अपने अंतिम समय तक सामाजिक के लिए भी उन्होंने समाज के कल्याण के लिए बेहतरीन नाटक दिए.

कोई उन्हें भरतमुनि की परंपरा का पहला नाटककार मानता हैं तो कोई भोजपुरी का भारतेंदू हरिश्चंद्र. महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो उन्हें ‘भोजपुरी का ‘शेक्सपियर’ की उपाधि दे दी. इसके अलावा उन्हें कई और उपाधियां और सम्मान भी मिले. भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया. इतना सम्मान मिलने पर भी भिखारी गर्व से फूले नहीं, उन्होंने बस अपना नाटककार जिंदा रखा.

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