0
8

मैं कस्बे के सरकारी हाईस्कूल के, अपने सेक्शन “10D” में खड़ा था, कि अचानक मेरे फेंकू मित्र ठाकुर साहब बोले, “वो देखो, वो मेरी गर्लफ्रेंड” कंचन त्रिपाठी’ है।”

वहां खड़े कुछ और सहपाठियों के साथ मैंने भी उधर देखा, जिधर 10 A की लड़कियां चली जा रही थीं, पर मैं पहचान नहीं पाया। जीवन में पहली बार अपने सामने मुझे ये नया शब्द सुनाई दिया “गर्लफ्रेंड”..!! मैं ठहरा 15 km दूर से साईकिल चला के आने वाला गाँव का एक “अंतर्मुखी लड़का, मैंने ये शब्द केवल इक्का दुक्का फिल्मों में ही सुना था, वो भी जो कभी कभार गलती से “दूरदर्शन” पर आ जाती थीं। लड़कियां, हमारे स्कूल में सिर्फ A में ही पाई जाती थीं। B, C और D में हमारे जैसे “पिछड़े” लड़के ही पाए जाते थे। पता नहीं कैसे, ये ठाकुर साहब भी हमारे सेक्शन में आ गए थे, और बताते थे कि उस लड़की के घर उनका रोज का उठना बैठना है। उन्होंने ही बताया कि इस कस्बे के बैंक के मेनेजर हैं “मेरी कन्नू” के पापा।

उसके बाद मैं उनकी कहानियों से दूर रहने लगा, क्योंकि किसी लड़की के बारे में इस तरह सरेआम बोलना मुझे अच्छा नहीं लगता था, वैसे कुछ लोगों ने ये भी बताया कि हर मामले की तरह ठाकुर साहब इस मामले में भी फेंक ही रहे हैं, और वो लड़की इनको सिर्फ एक “परिचित” ही समझती है।

मुझे एक लड़की अच्छी लगती थी, जो मेरे ही स्कूल की थी। जाने क्या नाम था, जाने किस क्लास की थी। लेकिन आते जाते वो मुझे पैदल चलते हुए दिख जाती थी, और मैं उसके बगल से साईकिल खूब तेजी से आगे निकाल ले जाया करता था। मैं पता नहीं क्यों ऐसा करता था, शायद यही सोचता था कि ऐसे ही इम्प्रैशन जमता है। लेकिन वो एक नजर देखती भी नहीं थी। बस अपनी बुक्स को दोनों हाथों से सीने पे चिपकाये चली जाती थी। इतना तो मुझे पता चल गया था कि स्कूल से थोड़ी ही दूर पर उसका घर है, इसलिए वो पैदल आती थी।
स्कूल की कुछ लड़कियां सलवार कुरते की यूनिफार्म में आती थीं, तो कुछ शर्ट और स्कर्ट में। ये लड़की भी स्कर्ट में ही आती थी। सुन्दरता की अति, लेकिन लगता था कि जैसे इसको अपनी सुन्दरता का पता ही ना हो। गोरा सा, गोल सा लेकिन भोला सा चेहरा, सिंगल वाली सिंपल सी चोटी,.. और उसकी चाल ऐसी थी कि,.. शायद थोड़ा उचक उचक के चलती थी, स्पोर्ट्स वालों की तरह या क्या? पर जब वो चलती थी तो उसकी गर्दन हिलती थी, और उसकी वो सिंगल चोटी ऊपर नीचे होती रहती थी। और उसकी चोटी जब ऐसे ऊपर नीचे होती थी, तो मुझे बहुत प्यारी लगती थी। उसको देखकर मुझे अच्छा लगता था। पूरे दिन भर की पढाई, आना जाना मिलाकर 30 km से ऊपर का साईकिल चलाने की थकान, सब उसको एक नजर देख के जैसे वसूल सा हो जाता था। जिस दिन ना दिखे, वो दिन बेकार गए जैसा लगता था।

मैंने अपनी क्लास के सारे टीचरों से कह रखा था, कि “मुझे मेरिट में आना है, तो चाहे मारिये या चिढ़ाइए, लेकिन मुझपर ध्यान दीजिये।” तो मेरे इंग्लिश के टीचर ने कहा कि,.. “यहाँ क्लास में 60-65 लड़के हैं, और मुझे सब पर ध्यान देना रहता है, इसलिए अगर चाहो तो टयूशन पढ़ लो, और पैसे की दिक्कत हो तो मत देना फीस ।”
मैं ट्यूशन के खिलाफ था, और इतनी दूर से भी आता था। लेकिन इंग्लिश में मैं खुद को कमजोर समझता था, इसलिए मैंने ट्यूशन के लिए हामी भर दिया, वो भी ऐसे सर्दियों के वक़्त।

मैं पहले दिन ही ट्यूशन लेट पहुंचा, तो ग्लानी तो थी ही। जब वहां पहुंचा तो 15-16 बच्चे थे, मैं सिर नीचे किये ही बैठ गया, सबसे पीछे। लेकिन तभी माटसाब ने मुझे बुलाकर अपने पास बुलाया और कड़कती आवाज में कहा,.. “तुम्हारी साफ़गोई से मैं बहुत खुश हूँ, अब से तुम मेरे पास आगे वाली रो (क़तार) में ही बैठोगे।”

मैंने चोरी-चोरी नजर डाल के इधर उधर देखा, तो ठाकुर साहब भी मेरी ही बेंच पर थे। और दाहिने तरफ की बेंचों पर आगे कुछ 4-5 लड़कियां भी बैठीं महसूस हुईं, नीची नजर से ही देखने पर। लेकिन अचानक मेरा दिल धक्क से रह गया, उन लड़कियों की जूतियों में से, एक जानी पहचानी सी लगीं। मैं काँप सा उठा, और धीरे-धीरे, चुपके चुपके स्लो मोसन में नजर ऊपर सरकाते हुए, मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि,.. “हे भगवान, ये “वो” ना हो। काहे से कि अपनी अंग्रेजी का हाल हमहीं बूझते हैं, बड़ी बेइज्जती हो जाएगी।” लेकिन भगवान ने हमरी एक ना सुनी, और ये वही लड़की थी, अपनी कॉपी में नजर गड़ाये हुए।

अब हम समझ चुके थे, कि हमरा बेड़ा गर्क हो चुका है। फिर कुछ दिन की क्लास से, और लोग भी ये जान गए, साथ में “वो भी” कि हमको कुछ नहीं आता है। अंग्रेजी से हमारा छत्तीस का आंकड़ा है। एक दिन, मैं टयूसन की छुट्टी कर गया, और अगले दिन पहुंचा। माटसाहब ने अपनी कड़क वाली आवाज में हमसे कहा,.. “चलो पोएम सुनाओ।” मेरे मुंह से अचकचा के निकला,.. “कौन सी पोएम?, मैं कल आया नहीं था।” माट साहब ने गुर्रा के कहा,. “अगर तुम्हारे मन में सीखने की ललक होती, तो कल

Leave a Reply