सुनिधि चौहान

0
16

पापा ने मेरे लिए करियर छोड़ दिया

सुनिधि चौहान
हम दिल्ली में रहते थे। पापा थियेटर कलाकार थे। वह स्टेज शो किया करते थे। दिल्ली की प्रतिष्ठित रामलीला में उन्होंने 12  साल तक श्रीराम का रोल किया। कुछ लोग तो उन्हें असल में श्रीराम समझते थे। तब मैं बहुत छोटी थी। आज भी याद हैं मुझे वे दिन। लोग मेरे पापा का बड़ा सम्मान करते थे। अखबारों में उनके फोटो छपते,  तमाम लोग उनके पैर छूते थे। मैं मम्मी और बहन के संग रामलीला देखने जाया करती थी। वाकई बड़ा मजा आता था। बहुत खूबसूरत थे वे दिन। एक बार मुझे रामलीला में माता गौरी का रोल मिला। यह सब पापा की वजह से ही संभव हुआ। उस दिन जिस कलाकार को गौरी का रोल करना था,  वह किसी वजह से नहीं आ पाई। लिहाजा वह रोल मुझे मिल गया। उस समय मैं सिर्फ चार साल की थी। आयोजकों को एक ऐसे बच्चे की तलाश थी,  जो एक दिन में सारे डायलॉग याद कर ले। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी थी। पापा ने कहा- सुनिधि माता गौरी के डायलॉग आसानी से याद कर लेगी। उन्होंने मुझे इस रोल के लिए तैयार किया। उनकी मदद से मैंने डायलॉग याद किए। वह मेरा पहला स्टेज शो था। सबने मेरे अभिनय की खूब तारीफ की। उस दिन पापा की खुशी का ठिकाना नहीं था। उस कार्यक्रम के बाद तो मुझे शो में मौके मिलने लगे। पांच साल की उम्र से मैं स्टेज शो करने लगी।

अभिनय के अलावा पापा को गाने का भी शौक था। वह रामलीला में चौपाई और धार्मिक गीत गाते थे। उनको सुनकर मैं भी गाने लगी। मैं लता जी और आशा जी की दीवानी थी। पापा ने नोटिस किया कि मेरी आवाज अच्छी है। वह मुझे प्रोत्साहित करने लगे। मैं स्कूल की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगी। पापा को मुझ पर बहुत नाज था। उनकी कोशिश रहती थी कि पढ़ाई के अलावा मैं स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लूं। मम्मी तो कभी-कभार डांट देती थी,  पापा को मेरी हर शैतानी मंजूर थी। दिल्ली के एक कार्यक्रम के दौरान अभिनेत्री तबस्सुम से मुलाकात हुई। उस समय टीवी पर उनका एक शो चल रहा था। उन्होंने मुझे अपने शो में मौका दिया। मेरा गीत सुनने के बाद उन्होंने पापा से कहा,  आपकी बेटी की आवाज में कुछ खास है। इसे मुंबई ले आइए। इसे मौका मिलना चाहिए।

यह सुनकर पापा जैसे उछल पड़े। उन्हें मेरी तारीफ सुनना बहुत अच्छा लगता था। फिर तबस्सुम जैसी अभिनेत्री तारीफ करें,  तो उसका अपना महत्व होता है। तब उनका अपना करियर अच्छा चल रहा था। पर मेरे लिए वह कुछ भी करने को तैयार थे। वह अपनी बेटी को बड़े मंच पर गाते हुए देखना चाहते थे। पापा मुझे लेकर मुंबई आ गए। यह फैसला आसान नहीं था। दिल्ली के थियेटर जगत में उनकी पहचान थी। ऐसे मोड़ पर दिल्ली छोड़कर मुंबई में बसना एक बड़ा फैसला था। लेकिन अब उनके मन में बस एक ही सपना था। वह मुझे मौका देना चाहते थे। उस समय मैं 11  साल की थी। हम मुंबई आ गए। मुंबई में आने के बाद सबसे बड़ी दिक्कत थी रहने की व्यवस्था।

दिल्ली के मुकाबले मुंबई काफी महंगा शहर है। यहां के खर्चे हमारी हैसियत से बाहर थे। पर पापा ने मुझ पर इन परेशानियों का असर नहीं पड़ने दिया। उन्होंने मुझसे कहा,  तुम सब कुछ भूलकर सिर्फ गाने पर ध्यान दो। मुंबई में हमारा संघर्ष शुरू हुआ। हम तबस्सुम जी से मिलने गए। उन्होंने संगीतकार कल्याण जी से हमारी मुलाकात कराई। मैं दो साल तक उनकी एकेडेमी में रही। मैं उनकी लिटिल वंडर्स टीम में शामिल हो गई। इस टीम में 32  नन्हे गायक थे। जल्दी ही मैं इस टीम की मुख्य गायिका बन गई। हमारे बहुत शो आयोजित होते थे। मुझे पहचान मिल रही थी। लोग मेरी आवाज पसंद कर रहे थे,  लेकिन पापा का सपना कुछ और था। वह चाहते थे कि मुझे बॉलीवुड में गाने का मौका मिले।

कक्षा दस पास करने के बाद मैंने कहा,  अब मैं आगे नहीं पढ़ना चाहती। मैं सिर्फ गाने पर ध्यान देना चाहती हूं। मम्मी-पापा ने कुछ खास विरोध नहीं किया। वे जानते थे कि पढ़ाई के साथ गाने के लिए समय निकालना मुश्किल होगा। लिहाजा उन्होंने मुझे पढ़ाई छोड़ने की इजाजत दे दी। चूंकि मैंने गाने की कोई प्रोफेशनल ट्रेनिंग नहीं ली थी, सो मेरा कोई गुरु नहीं था। बस मैं लता जी, आशा जी, मन्ना डे जैसे बड़े गायकों के गीत सुनकर सीखने की कोशिश करने लगी। शुरुआत में मुझे स्टेज पर जाने में झिझक होती थी। मगर धीरे-धीरे मेरा डर खत्म होने लगा और मैं गीतों में डूबकर गाने लगी। समय के साथ मेरी आवाज में निखार आने लगा। उन दिनों स्टेज शो के लिए अक्सर बाहर जाना पड़ता था। पापा मेरे संग जाते थे,  जबकि मम्मी घर पर रहकर मेरी हर जरूरत का ख्याल रखती थीं।

40वें फिल्म फेयर अवॉर्ड समारोह में मुझे अकेले गाने का मौका मिला। कार्यक्रम में मौजूद आदेश श्रीवास्तव ने मेरी आवाज सुनी और उन्होंने मुझे उदित नारायण के साथ एक गाने में मौका दिया। बॉलीवुड में यह मेरा पहला ब्रेक था। उस समय मैं 11  साल की थी। इसके बाद तो अगले दो साल तक मुझे कोई अच्छा मौका नहीं मिला। मुझे असली पहचान टीवी शो मेरी आवाज सुनो से मिली। यह एक संगीत प्रतियोगिता थी। यह शो 1996  में दूरदर्शन पर दिखाया गया। शो में जीत के बाद बतौर इनाम मुझे एचएमवी कंपनी के एलबम ऐरा गैरा नत्थू खैरा में गाने का मौका मिला।

13 वर्ष की उम्र में मुझे हिंदी फिल्म शस्त्र में गाने का मौका मिला। पर सबसे बड़ा मौका मुझे फिल्म मस्त में मिला। यह फिल्म रामगोपाल वर्मा ने बनाई थी। मस्त फिल्म में मैंने रुकी-रुकी सी जिंदगी गाना गया। इस गाने को काफी पसंद किया गया। इसके बाद तो मुझे एक के बाद दूसरी बड़ी फिल्म के गाने मिले। मेरे गाने हिट भी होने लगे। ढेर सारे अवॉर्ड मिले। आज मैं जहां भी हूं,  अपने पापा की वजह से हूं। यह सब उनके त्याग का नतीजा है कि मैं इस मुकाम को हासिल कर पाई। जीवन में कुछ पाने के लिए आत्मविश्वास बहुत जरूरी है। हालांकि जब आप छोटे होते हैं, तो परिवार खासकर माता-पिता का सहयोग बहुत मायने रखता है। मैं भाग्यशाली रही हूं कि मुझे ऐसे माता-पिता मिले,  जिन्होंने मेरे लिए न केवल बड़े सपने देखे, बल्कि उन्हें पूरा करने में मेरी भरपूर मदद की। उन्होंने सही समय पर सही फैसले करने में मेरी मदद की। मेरी कामयाबी उनकी तपस्या और मेहनत का नतीजा है।  
प्रस्तुति:  मीना त्रिवेदी

Leave a Reply