सुदामा पांडे ‘धूमिल’ का जीवन परिचय – Biography of Sudama Pandey Dhoomil

Amit Kumar Sachin

सुदामा पांडे ‘धूमिल’ का जीवन परिचय – Biography of Sudama Pandey Dhoomil

दोस्तों आज हम आपको बताने जा रहे है एक ऐसे कवी के बारे में जो अपने खास प्रकार के तंजो के लिए प्रसिद्ध थे . हिंदी कविता के एंग्री यंगमैन नाम से मशहूर सुदामा पांडे ‘धूमिल’ का रहन-सहन इतना साधारण था कि उनके निधन की खबर  रेडियो पर सुनने के बाद ही परिवार वालों ने जाना कि वे कितने बड़े कवि थे . उन्होंने अपनी कविता में बताया था – ” बाबूजी ! सच बताऊं मेरी निगाह में, न तो कोई छोटा है, और न कोई बड़ा है । मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है“. जलते हुए जनतंत्र के साथ आम आदमी की विवशता और उच्च मध्यवर्गों के आपराधिक चरित्रों को कविता के माध्यम से चित्रित करने में धूमिल का महत्वपूर्ण योगदान है . 

प्रारंभिक शिक्षा 

कवि धूमिल का वास्तविक नाम सुदामा पाण्डेय था, किन्तु वे धूमिल के रूप में अधिकतर पहचाने जाते हैं । सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ का जन्म 9 नवंबर 1936 उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट खेवली नामक गाँव में हुआ था। उनके पूर्वज कहीं दूर से खेवली में आ बसे थे। धूमिल के पिता शिवनायक पांडे एक मुनीम थे व इनकी माता रजवंती देवी घर-बार संभालती थी। जब उन्होंने हाई स्कूल उत्तीर्ण किया तो ये अपने गांव के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मैट्रिक पास की थी . अभी उन्होंने ठीक से होश भी नहीं संभाला था  कि ग्यारह वर्ष की उम्र में इनके सिर से पिता का साया उठ गया . जिसके कारण वाराणसी के एक इंटर कालेज में चल रही उनकी पढ़ाई छूट गयी.

12 साल की ही उम्र में शादी 

आर्थिक दबावों के रहते वे अपनी पढ़ाई जारी न रख सके। स्वाध्याय व पुस्तकालय दोनों के बल पर उनका बौद्धिक विकास होता रहा। 12 साल के होते-होते उनकी शादी मूरत देवी से कर दी गई और अपनी जिम्मेदारियां निभाने के लिए उन्हेंने रोजगार की तलाश शुरू कर दी .

पेट पलने के लिए लोहा ढोने का भी काम किया 

रोजगार की तलाश ‘धूमिल’ को कलकत्ता आ गए। कहीं ढँग का काम न मिला तो उन्होंने लोहा ढोने का काम किया . इस दौरान उन्होंने मजदूरों की ज़िंदगी को करीब से जाना। इस काम की जानकारी उनके सहपाठी मित्र तारकनाथ पांडे को मिली तो उन्होंने अपनी जानकारी में उन्हें एक लकड़ी की कम्पनी (मैसर्स तलवार ब्रदर्ज़ प्रा. लि०) में नौकरी दिलवा दी। वहाँ वे लगभग डेढ वर्ष तक एक अधिकारी के तौर पर कार्यरत रहे। इसी बीच अस्वस्थ होने पर स्वास्थ्य-लाभ हेतु घर लौट आए।

आई ऐम वर्किंग फॉर माई हेल्थ

बीमारी के दौरान मालिक ने उन्हें मोतीहारी से गुवाहाटी चले जाने को कहा। ‘धूमिल’ ने अपने अस्वस्थ होने का हवाले देते हुए इनकार कर दिया। मालिक का घमंड बोल उठा, “आई एम पेइंग फॉर माई वर्क, नॉट फॉर योर हेल्थ! “‘धूमिल’ के स्वाभिमान पर चोट लगी तो उन्होंने भी मालिक को खरी-खरी सुना दी,”बट आई ऐम वर्किंग फॉर माई हेल्थ, नॉट वोर योर वर्क।”

फिर क्या था साढ़े चार सौ की नौकरी, प्रति घन फुट मिलने वाला कमीशन व टी. ए, डी. ए….’धूमिल’ ने सबको लात लगा दी। इसी घटना से ‘धूमिल’ को समझ आ गया की  पूंजीपतियों और मज़दूरों के बिच कितनी बड़ी खाई है। अब उनके जीवन का संघर्ष उनकी कविता में दिखना शुरू हो गया था ।

विद्युत में किया डिप्लोमा

1957 में ‘धूमिल’ ने कांशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान में प्रवेश लिया। 1958 में  ‘विद्युत का डिप्लोमा’ प्रथम श्रेणी से पास किया । वहीं विद्युत-अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। फिर यही नौकरी व पदोन्नति पाकर वे बलिया, बनारस व सहारनपुर में कार्यरत रहे। लेकिन उनका मन बनारस में रमता था या फिर खेवली में, जिससे अपना जुड़ाव उन्होंने खत्म नहीं होने दिया था.

लोगो को कन्फ्यूजन न हो इसलिए “धूमिल” रखा नाम 

बनारस में उनके समकालीन एक और कवि थे- सुदामा तिवारी. वेे सांड बनारसी उपनाम से हास्य कविताएं लिखते हैं. धूमिल नहीं चाहते थे कि नाम की समानता के कारण दोनों की पहचान में कन्फ्यूजन हो. इसलिए उन्होंने अपने लिए उपनाम की तलाश शुरू की और चूंकि कविता के संस्कार उन्हें छायावाद के आधारस्तंभों में से एक जयशंकर ‘प्रसाद’ के घराने से मिले थे, जिससे उनके पुश्तैनी रिश्ते थे, अतएव उनकी तलाश ‘धूमिल’ पर ही खत्म हुई.

कम उम्र में ही हुए ब्रेन ट्यूमर का शिकार

स्पष्टवादि एवं अखड़पन होने के कारण उन्हें हमेशा अधिकारियों का कोपभाजन होना पड़ता था । उच्चाधिकारी अपना दबाव बनाए रखने के कारण उन्हें किसी न किसी ढँग से उत्पीड़ित करते रहते थे। यही दबाव ‘धूमिल’ के मानसिक तनाव का कारण बन गया। 1974  में जब वे सीतापुर में कार्यरत थे तो वे अस्वस्थ हो गये। अक्टूबर 1974 को असहनीय सिर दर्द के कारण ‘धूमिल’ को काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया।

डॉक्टरों ने उन्हें ब्रेन ट्यूमर बताया । नवंबर १९७४ को उन्हें लखनऊ के ‘किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया। यहाँ उनके मस्तिष्क का ऑपरेशन हुआ लेकिन उसके बाद वे ‘कोमा’ में चले गए और बेहोशी की इस अवस्था में ही 10 फरवरी, 1975  को वे काल के भाजक बन गए।

साधारण रहन सहन

उनका रहन-सहन इतना साधारण था कि ब्रेन ट्यूमर के शिकार होकर 10 फरवरी, 1975 को वे अचानक मौत से हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे.

जीवन काल में सिर्फ एक कविता का प्रकाशन 

धूमिल के जीवित रहते 1972 में उनका सिर्फ एक कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था- संसद से सड़क तक. ‘कल सुनना मुझे’ उनके निधन के कई बरस बाद छपा और उस पर 1979 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया.

धूमिल की साहित्यिक कृतियाँ:

  • संसद से सड़क तक (इसका प्रकाशन स्वयं ‘धूमिल ने किया था)
  • कल सुनना मुझे (संपादन – राजशेखर)
  • धूमिल की कविताएं (संपादन – डॉ शुकदेव)
  • सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (संपादन – रत्नशंकर। रत्नशंकर ‘धूमिल’ के पुत्र हैं।)

 

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