गुनाहों  का देवता (उपन्यास) – भाग 14

Amit Kumar Sachin

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गुनाहों  के  देवता – धर्मवीर भारती

  भाग 14

 

चन्दर ने मन में कहा, यह कुछ इस रहस्यमय बँगले का असर है कि हरेक का दिमाग खराब ही मालूम देता है। दो मिनट बाद जब बर्टी लौटा तो उसके गले में गुलबन्द, ऊनी स्वेटर, ऊनी मोजे थे। वह हाँफता हुआ आकर बैठ गया।

”मिस्टर कपूर! तुम्हें मानना होगा कि यह लड़की, यह डाइन जेनी बहुत क्रूर है।”

”मानता हूँ, बर्टी! सोलहों आने मानता हूँ।” चन्दर ने मुसकराहट रोककर कहा, ”लेकिन यह झगड़ा क्या है?”

”झगड़ा क्या होता है? औरतों को समझना बहुत मुश्किल है।”

”इस औरत के फन्दे में फँसे कैसे तुम?” चन्दर ने पूछा।

”शी! शी!” होठ पर हाथ रखकर धीरे बोलने का इशारा करते हुए बर्टी ने कहा, ”धीरे बोलो। बात ऐसी हुई कि जब मैं तराई में शिकार खेल रहा था तो एक बार अकेले छूट गया! यह एक पेंशनर फॉरेस्ट गार्ड की अनब्याही लड़की थी। शिकार में बहुत होशियार। मैं भटकते हुए पहुँचा तो इसका बाप बीमार था। मैं रुक गया। तीसरे दिन वह मर गया। उसे जाने कौन-सा रोग था कि उसका चेहरा बहुत डरावना हो गया था और पेट फूल गया था। रात को इसे बहुत डर लगा तो यह मेरे पास आकर लेट गयी। बीच में बन्दूक रखकर हम लोग सो गये। रात को इसने बीच से बन्दूक हटा दी और अब वह कहती है कि मुझसे ब्याह करेगी और नहीं करूँगा तो मार डालेगी। पम्मी भी मुझसे बोली-तुम्हें अब ब्याह करना ही होगा। अब मजबूरी है, मिस्टर कपूर!”

चन्दर चुप बैठा सोच रहा था, कैसी विचित्र जिंदगी है इस अभागे की! मानो प्रकृति ने सारे आश्चर्य इसी की किस्मत के लिए छोड़ रखे थे। फिर बोला-

”यह आज क्या झगड़ा था?”

”कुछ नहीं। आज इसकी सालगिरह थी। यह बोली, ”मुझे कुछ उपहार दो।” मैं बहुत देर तक सोचता रहा। क्या दूँ इसे? कुछ समझ ही में नहीं आया। बहुत देर सोचने के बाद मैंने सोचा-मैं तो इसका पति होने जा रहा हूँ। इसे एक प्रेमी उपहार में दे दूँ। मैंने एक मित्र से कहा कि तुम मेरी भावी पत्नी से आज शाम को प्रेम कर सकते हो? वह राजी हो गया, मैं ले आया।”

चन्दर जोर से हँस पड़ा।

”हँसो मत, हँसो मत, मिस्टर कपूर!” बर्टी बहुत गम्भीर बनकर बोला, ”इसका मतलब यह है कि तुम औरतों को समझते नहीं। देखो, एक औरत उसी चीज को ज्यादा पसन्द करती है, उसी के प्रति समर्पण करती है जो उसकी जिंदगी में नहीं होता। मसलन एक औरत है जिसका ब्याह हो गया है, या होने वाला है, उसे यदि एक नया प्रेमी मिल जाये तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। वह अपने पति की बहुत कम परवा करेगी अपने प्रेमी के सामने। और अगर क्वाँरी लड़की है तो वह अपने प्रेमी की भावनाओं की पूरी तौर से हत्या कर सकती है यदि उसे एक पति मिल जाये तो! मैं तो समझता हूँ कि कोई भी पति अपनी पत्नी को यदि कोई अच्छा उपहार दे सकता है तो वह है एक नया प्रेमी और कोई भी प्रेमी अपनी रानी को यदि कोई अच्छा उपहार दे सकता है तो वह यह कि उसे एक पति प्रदान कर दे। तुम्हारी अभी शादी तो नहीं हुई?”

”न!”

”तो तुम प्रेम तो जरूर करते होंगे…न, सिर मत हिलाओ…मैं यकीन नहीं कर सकता…। मैं इतनी सलाह तुम्हें दे रहा हूँ, कि अगर तुम किसी लड़की से प्यार करते हो तो ईश्वर के वास्ते उससे शादी मत करना-तुम मेरा किस्सा सुन चुके हो। अगर दिल से प्यार करना चाहते हो और चाहते हो कि वह लड़की जीवन-भर तुम्हारी कृतज्ञ रहे तो तुम उसकी शादी करा देना…यह लड़कियों के सेक्स जीवन का अन्तिम सत्य है…! हा! हा! हा!” बर्टी हँस पड़ा।

चन्दर को लगा जैसे आग की लपट उसे तपा रही है। उसने भी तो यही किया है सुधा के साथ जिसे बर्टी कितने विचित्र स्वरों में कह रहा है। उसे लगा जैसे इस प्रेत-लोक में सारा जीवन विकृत दिखाई देता है। वहाँ साधना की पवित्रता भी कीचड़ और पागलपन में उलझकर गंदी हो जाती है। छिह, कहाँ बर्टी की बातें और कहाँ उसकी सुधा…

वह उठ खड़ा हुआ। जल्दी से विदा माँगकर इस तरह भागा जैसे उसके पैरों के नीचे अंगारे छिपे हों।

फिर उसे नींद नहीं आयी। चैन नहीं आया। रात को सोया तो वह बार-बार चौंक-सा उठा। उसने सपना देखा, एक बहुत बउ़ा कपूर का पहाड़ है। बहुत बड़ा। मुलायम कपूर की बड़ी-बड़ी चट्टानें और इतनी पवित्र खुशबू कि आदमी की आत्मा बेले का फूल बन जाये। वह और सुधा उन सौरभ की चट्टानों के बीच चढ़ रहे हैं। केवल वह है और सुधा…सुधा सफेद बादलों की साड़ी पहने है और चन्दर किरनों की चादर लपेटे है। जहाँ-जहाँ चन्दर जाता है, कपूर की चट्टानों पर इन्द्रधनुष खिल जाते हैं और सुधा अपने बादलों के आँचल में इन्द्रधनुष के फूल बटोरती चलती है।

सहसा एक चट्टïन हिली और उसमें से एक भयंकर प्रेत निकाला। एक सफेद कंकाल-जिसके हाथ में अपनी खोपड़ी और एक हाथ में जलती मशाल और उस मुंडहीन कंकाल ने खोपड़ी हाथ में लेकर चन्दर को दिखायी। खोपड़ी हँसी और बोली, ”देखो, जिंदगी का अन्तिम सत्य यह है। यह!” और उसने अपने हाथ की मशाल ऊँची कर दी। ”यह कपूर का पहाड़, यह बादलों की साड़ी, यह किरनों का परिधान, यह इन्द्रधनुष के फूल, यह सब झूठे हैं। और यह मशाल, जो अपने एक स्पर्श में इस सबको पिघला देगी।”

और उसने अपनी मशाल एक ऊँचे शिखर से छुआ दी। वह शिखर धधक उठा। पिघलती हुई आग की एक धार बरसाती नदी की तरह उमडक़र बहने लगी।

”भागो, सुधा!” चन्दर ने चीखकर कहा, ”भागो!”

सुधा भागी, चन्दर भागा और वह पिघली हुई आग की महानदी लहराते हुए अजगर की तरह उन्हें अपनी गुंजलिका में लपेटने के लिए चल पड़ी। शैतान हँस पड़ा, ”हा! हा! हा!” चन्दर ने देखा, सुधा शैतान की गोद में थी।

चन्दर चौंककर जाग गया। पानी बंद था लेकिन घनघोर अँधेरा था। और पिशाचनी की तरह पागल हवा पेड़ों को झकझोर रही थी जैसे युग के जमे हुए विश्वासों को उखाड़ फेंकना चाहती हो। चन्दर काँप रहा था, उसका माथा पसीने से तर था।

वह उठकर नीचे आया। उसके कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। बरामदे की बत्ती जलायी। महराजिन उठी-”का है भइया!” उसने पूछा।

”कुछ नहीं, अन्दर सोऊँगा।” चन्दर ने कहा और सुधा के कमरे में जाकर बत्ती जलायी। सुधा की चारपाई पर लेट गया। फिर उठा, चारों ओर के दरवाजे बन्द कर दिये कि कहीं कोई फिर ऐसा सपना बाहर के भयंकर अँधेरे में से न चला आये।

लेकिन बर्टी की बातों से अन्दर-ही-अन्दर उसके मन में जाने कहाँ क्या टूट गया जो फिर बन नहीं पाया। अभी तक उसे अपने पर गर्व था, विश्वास था, अब कभी-कभी वह अपने व्यक्तित्व का विश्लेषण करने लगा था। अब वह कभी-कभी अपने विश्वासों पर सिर ऊँचा करने के बजाय उन्हें सामने फेंक देता और एक निरपेक्ष वैज्ञानिक की तरह उनकी चीर-फाड़ करता, उनकी शव-परीक्षा किया करता। अभी तक उसके विश्वास का सम्बल था, अब किसी ने उसे तर्क का अस्त्र-शस्त्र दे दिया था। जाने किस राक्षसी प्रेरणा से उसने अपनी आत्मा को चीरना शुरू किया। और इस तर्क-वितर्क और अविश्वास के भयंकर जल-प्रलय की एक लहर ने उसे एक दिन नरक के किनारे ले जा पटका।

सुधा का खत आया था। दिल्ली में पापा अपने कुछ काम से रुके थे और सुधा की तबीयत खराब हो गयी थी। अब वह दो-तीन रोज में आ जाएगी।

लेकिन चन्दर के मन पर एक अजब-सा असर हुआ था इस खत का। सुधा का पत्र नहीं आया था, सुधा दूर थी तब वह खुश था, वह उल्लसित था। सुधा का पत्र आते ही सहसा वह उदास हो गया। उदास तो क्या उसे उबकाई-सी आने लगी। उसे यह सब सहसा, पता नहीं एक नाटक-सा लगने लगा था, एक बहुत सस्ता, नीचे स्तर का नाटक। उसे लगता था-ये सब चारों ओर का त्याग, साधन, सौन्दर्य, यह सब झूठ है। सुधा भी अन्ततोगत्वा वही साधारण लड़की है जो क्वाँरे जीवन में पति और विवाहित जीवन में प्रेमी की भूखी होती है।

वह भी शैतान से पूर्णतया हारा नहीं था। वह लड़ने की कोशिश करता था। लेकिन वह हार रहा था, यह भी उसे मालूम था। और चन्दर के जिस गर्व ने उसकी जीत में साथ दिया था, वही गर्व उसकी हार में साथ दे रहा था। उसने मन में सोच लिया कि वह सुधा से, सभी लड़कियों से, इस सारे नाटक से नफरत करता है। सुधा का विवाह होना ही था, सुधा को विवाह करना था, सुधा के आँसू झूठे थे, अगर चन्दर सुधा को न भी समझाता तो घूम-फिर सुधा विवाह करती ही।

तब फिर विश्वास काहे का? त्याग काहे का?

विश्वास टूट चुका था, गर्व जिंदा था, गर्व घमंड में बदल गया था, घमंड नफरत में, और नफरत नसों को चूर-चूर कर देने वाली उदासी में।

सुधा जब आयी तो उसने चन्दर को बिल्कुल बदला हुआ पाया। एक बात और हुई जिसने और भी आग सुलगा दी। यह लोग दोपहर को एक बजे के लगभग आये जबकि चन्दर कॉलेज गया था। पापा तो आते ही नहा-धोकर सोने चले गये। सुधा और बिनती ने आते ही अपने कमरे की सफाई शुरू की; कमरे की सारी किताबों झाड़ीं, कपड़े ठीक किये, मेजें साफ कीं और उसके बाद कमरा धोने में लग गयीं। बिनती बाल्टी में पानी भर-भर लाने लगी और सुधा झाड़ू से फर्श धोने लगी। हाथों में चूड़े अब भी थे, पाँव में बिछिया और माँग में सिन्दूर-चेहरा बहुत पीला पड़ गया था सुधा का; चेहरे की हड्डिïयाँ निकल आयी थीं और आँखों की रोशनी भी मैली पड़ गयी थी। वह जाने क्यों कमजोर भी हो गयी थी।

झाड़ू लगाते-लगाते सुधा बिनती से बोली, ”आज मालूम पड़ता है कि मैं आदमी हूँ! कल तक तो हैवान थी। पापा को भी जाने क्या सूझा कि इन्हें भी साथ दिल्ली ले गये। मैं तो शरम से मरी जाती थी।”

थोड़ी देर बाद चन्दर आया। बाहर ही उसे मालूम हो गया था कि सब लोग आ गये हैं। उसे जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वह उलटे लौट जाये, वह अगर इस घर में गया तो जाने उससे क्या अनर्थ हो जाएगा, लेकिन वह बढ़ता ही गया। स्टडी-रूम में डॉक्टर साहब सो रहे थे। वह लौटा और अपने कपड़े उतारने के लिए ड्राइंग-रूम की ओर चला। सुधा ने ज्यों ही आहट पायी, वह फौरन झाड़ू फेंककर भागी, सिर खुला, धोती कमर में खुँसी हुई, हाथ गन्दे, बाल बिखरे और बेतहाशा दौड़कर चन्दर से लिपट गयी और बच्चों की भोली हँसी हँसकर बोली, ”चन्दर, चन्दर! हम आ गये, अब बताओ!” और चन्दर को इस तरह कस लिया कि अब कभी छोड़ेगी नहीं।

”छिह, दूर हटो, सुधा! यह क्या नाटक करती हो! आज तुम बच्ची नहीं हो!” और सुधा को बड़ी रुखाई से परे हटाकर अपने कोट पर से सुधा के हाथ से लगी हुई मिट्टी झाड़ते हुए चन्दर चुपचाप अपने कमरे में चला गया।

सुधा पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो। वह पत्थर की तरह खड़ी रही। फिर जैसे लडख़ड़ाती हुई अपने कमरे में गयी और चारपाई पर लेटकर फूट-फूटकर रोने लगी। चन्दर सुधा से नहीं ही बोला। डॉक्टर साहब के जगते ही उनसे बातें करने लगा, शाम को वह साइकिल लेकर घूमने निकल गया। लौटकर ऊपर छत पर चला गया और बिनती को पुकारकर कहा, ”अगर तकलीफ न हो तो जरा ऊपर खाना दे जाओ।” बिनती ने थाली लगायी और सुधा से कहा, ”लो दीदी! दे आओ!” सुधा ने सिर हिलाकर कहा, ”तू ही दे आ! मैं अब कौन रह गयी उनकी।” बिनती के बहुत समझाने पर सुधा ऊपर खाना ले गयी। चन्दर लेटा था गुमसुम। सुधा ने स्टूल खींचकर खाना रखा। चन्दर कुछ नहीं बोला। उसने पानी रखा। चन्दर कुछ नहीं बोला।

”खाओ न!” सुधा ने कहा और एक कौर बनाकर चन्दर को देने लगी।

”तुम जाओ!” चन्दर ने बड़े रूखे स्वर में कहा, ”मैं खा लूँगा!”

सुधा ने कौर थाली में रख दिया और चन्दर के पायताने बैठकर बोली, ”चन्दर, तुम क्यों नाराज हो, बताओ हमसे क्या पाप हो गया है? पिछले डेढ़ महीने हमने एक-एक क्षण गिन-गिनकर काटे हैं कि कब तुम्हारे पास आएँ। हमें क्या मालूम था कि तुम ऐसे हो गये हो। मुझे जो चाहे सजा दे लो लेकिन ऐसा न करो। तुम तो कुछ भी नहीं समझते।” और सुधा ने चन्दर के पैरों पर सिर रख दिया। चन्दर ने पैर झटक दिये, ”सुधा, इन सब बातों से फायदा नहीं है। अब इस तरह की बातें करना और सुनना मैं भूल गया हूँ। कभी इस तरह की बातें करते अच्छा लगता था। अब तो किसी सोहागिन के मुँह से यह शोभा नहीं देता!”

सुधा तिलमिला उठी, ”तो यह बात है तुम्हारे मन में! मैं पहले से समझती थी। लेकिन तुम्हीं ने तो कहा था, चन्दर! अब तुम्हीं ऐसे कह रहे हो? शरम नहीं आती तुम्हें।” और सुधा ने हाथ से ब्याह वाले चूड़े उतारकर छत पर फेंक दिये, बिछिया उतारने लगी-और पागलों की तरह फटी आवाज में बोली, ”जो तुमने कहा, मैंने किया, अब जो कहोगे वह करूँगी। यही चाहते हो न!” और अन्त में उसने अपनी बिछिया उतारकर छत पर फेंक दी।

चन्दर काँप गया। उसने इस दृश्य की कल्पना भी नहीं की थी। ”बिनती! बिनती!” उसने घबराकर पुकारा और सुधा से बोला, ”अरे, यह क्या कर रही हो! कोई देखेगा तो क्या सोचेगा! पहनो जल्दी से।”

”मुझे किसी की परवा नहीं। तुम्हारा तो जी ठंडा पड़ जाएगा!”

चन्दर उठा। उसने जबरदस्ती सुधा के हाथ पकड़ लिये। बिनती आ गयी थी।

”लो, इन्हें चूड़े तो पहना दो!” बिनती ने चुपचाप चूड़े और बिछिया पहना दी। सुधा चुपचाप उठी और नीचे चली गयी।

चन्दर अपनी खाट पर सिर झुकाये लज्जित-सा बैठा था।

”लीजिए, खाना खा लीजिए।” बिनती बोली।

”मैं नहीं खाऊँगा।” चन्दर ने रुँधे गले से कहा।

”खाइए, वरना अच्छी बात नहीं होगी। आप दोनों मिलकर मुझे मार डालिए बस किस्सा खत्म हो जाए। न आप सीधे मुँह से बोलते हैं, न दीदी। पता नहीं आप लोगों को क्या हो गया है?”

चन्दर कुछ नहीं बोला।

”खाइए, आपको हमारी कसम है। वरना दीदी खाना नहीं खाएँगी! आपको मालूम नहीं, दीदी की तबीयत इधर बहुत खराब है। उन्हें सुबह-शाम बुखार रहता है। दिल्ली में तबीयत बहुत खराब हो गयी थी। आप ऐसे कर रहे हैं। बताइए, उनका क्या हाल होगा। आप समझते होंगे यह बहुत सुखी होंगी लेकिन आपको क्या मालूम!…पहले आप दीदी के एक आँसू पर पागल हो उठते थे, अब आपको क्या हो गया है?”

चन्दर ने सिर उठाया-और गहरी साँस लेकर बोला, ”जाने क्या हो गया है, बिनती! मैं कभी नहीं सोचता था कि सुधा को मैं इतना दु:ख दे सकूँगा। इतना अभागा हूँ कि मैं खुद भी इधर घुलता रहा और सुधा को भी इतना दुखी कर दिया। और सचमुच चन्दर की आँखों में आँसू भर आये। बिनती चन्दर के पीछे खड़ी थी। चन्दर का सिर अपनी छाती में लगाकर आँसू पोंछती हुई बोली, ”छिह, अब और दु:खी होइएगा तो दीदी और भी रोएँगी। लीजिए, खाइए!”

”जाओ, दीदी को बुला लो और उन्हें भी खिला दो!” चन्दर ने कहा। बिनती गयी। फिर लौटकर बोली, ”बहुत रो रही हैं। अब आज उनका नशा उतर जाने दीजिए, तब कल बात कीजिएगा।”

”फिर सुधा ने न खाया तो?”

”नहीं, आप खा लीजिएगा तो वे खा लेंगी। उनको खिलाए बिना मैं नहीं खाऊँगी।” बिनती बोली और अपने हाथ से कौर बनाकर चन्दर को देने लगी। चन्दर ने खाना शुरू किया और धीरे-से गहरी साँस-लेकर बोला, ”बिनती! तुम हमारी और सुधा की उस जनम की कौन हो?”

सुबह के वक्त चन्दर जब नाश्ता करने बैठा तो डॉक्टर साहब के साथ ही बैठा। सुधा आयी और प्याला रखकर चली गयी। वह बहुत उदास थी। चन्दर का मन भर आया। सुधा की उदासी उसे कितना लज्जित कर रही थी, कितना दुखी कर रही थी। दिन-भर किसी काम में उसकी तबीयत नहीं लगी। उसने क्लास छोड़ दिये। लाइब्रेरी में भी जाकर किताबें उलट-पलटकर चला आया। उसके बाद प्रेस गया जहाँ उसे अपनी थीसिस छपने को देनी थी, उसके बाद ठाकुर साहब के यहाँ गया। लेकिन कहीं भी वह टिक नहीं पाया। जब तक वह सुधा को हँसा न ले, सुधा के आँसू सुखा न दे; उसे चैन नहीं मिलेगा।

शाम को वह लौटा तो खाना तैयार था। बिनती से उसने पूछा, ”कहाँ है सुधा?” ”अपनी छत पर।” बिनती ने कहा। चन्दर ऊपर गया। पानी परसों से बंद था और बादल भी खुले हुए थे लेकिन तेज पुरवैया चल रही थी। तीज का चाँद शरमीली दुल्हन-सा बादलों में मुँह छिपा रहा था। हवा के तेज झकोरों पर बादल उड़ रहे थे और कचनार बादलों में तीज का धनुषाकार चाँद आँखमिचौली खेल रहा था। सुधा ने अपनी खाट बरसाती के बाहर खींच ली थी। छत पर धुँधला अँधेरा था और रह-रहकर सुधा पर चाँदनी के फूल बरस जाते थे। सुधा चुपचाप लेटी हुई बादलों को देखती हुई जाने क्या सोच रही थी।

चन्दर गया। चन्दर को देखते ही सुधा उठ खड़ी हुई और उसने बिजली जला दी और चुपचाप बैठ गयी। चन्दर बैठ गया। वह कुछ भी नहीं बोली। बगल में बिछी हुई बिनती की खाट पर सुधा बैठ गयी।

चन्दर को समझ नहीं आता था कि वह क्या कहे। सुधा को इतना दु:ख दिया उसने। सुधा उससे कल शाम से बोली तक नहीं।

”सुधा, तुम नाराज हो गयी! मुझे जाने क्या हो गया था। लेकिन माफ नहीं करोगी?” चन्दर ने बहुत काँपती हुई आवाज में कहा। सुधा कुछ नहीं बोली-चुपचाप बादलों की ओर देखती रही।

”सुधा?” चन्दर ने सुधा के दो कबूतरों जैसे उजले मासूम पैरों को लेकर अपनी गोद में रख लिया और भरे हुए गले से बोला, ”सुधा, मुझे जाने क्या हो जाता है कभी-कभी! लगता है वह पहले वाली ताकत टूट गयी। मैं बिखर रहा हूँ। तुम आयी और तुम्हारे सामने मन का जाने कौन-सा तूफान फूट पड़ा! तुमने उसका इतना बुरा मान लिया। बताओ, अगर तुम ही ऐसा करोगी तो मुझे सँभालने वाला फिर कौन है, सुधा?” और चन्दर की आँखों से एक बूँद आँसू सुधा के पाँवों पर चू पड़ा। सुधा ने चौंककर अपने पाँव खींच लिये। और उठकर चन्दर की खाट पर बैठ गयी और चन्दर के कन्धे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़ी। बहुत रोयी…बहुत रोयी। उसके बाद उठी और सामने बैठ गयी।

”चन्दर! तुमने गलत नहीं किया। मैं सचमुच कितनी अपराधिन हूँ। मैंने तुम्हारी जिंदगी चौपट कर दी है। लेकिन मैं क्या करूँ? किसी ने तो मुझे कोई रास्ता नहीं बताया था। अब हो ही क्या सकता है, चन्दर! तुम भी बर्दाश्त करो और हम भी करें।” चन्दर नहीं बोला। उसने सुधा के हाथ अपने होठों से लगा लिये। ”लेकिन मैं तुम्हें इस तरह बिखरने नहीं दूँगी! तुमने अब अगर इस तरह किया तो अच्छी बात नहीं होगी। फिर हम तो बराबर हर पल तुम्हारे ही बारे में सोचते रहे और तुम्हारी ही बातें सोच-सोचकर अपने को धीरज देते रहे और तुम इस तरह करोगे तो…”

”नहीं सुधा, मैं अपने को टूटने नहीं दूँगा। तुम्हारा प्यार मेरे साथ है। लेकिन इधर मुझे जाने क्या हो गया था!”

”हाँ, समझ लो, चन्दर! तुम्हें हमारे सुहाग की लाज है, हम कितने दुखी हैं, तुम समझ नहीं सकते। एक तुम्हीं को देखकर हम थोड़ा-सा दुख-दर्द भूल जाते हैं, सो तुम भी इस तरह करने लगे! हम लोग कितने अभागे हैं!” और वह फिर चुपचाप लेटकर ऊपर देखती हुई जाने क्या सोचने लगी। चन्दर ने एक बार धुँधली रेशमी चाँदनी में मुरझाये हुए सोनजुही के फूल-जैसे मुँह की ओर देखा और सुधा के नरम गुलाबी होठों पर ऊँगलियाँ रख दीं। थोड़ी देर वह आँसू में भीगे हुए गुलाब की दुख-भरी पंखरियों से उँगलियाँ उलझाये रहा और फिर बोला-

”क्या सोच रही थीं?” चन्दर ने बहुत दुलार से सुधा के माथे पर हाथ फेरकर कहा। सुधा एक फीकी हँसी हँसकर बोली-

”जैसे आज लेटी हुई बादलों को देख रही हूँ और पास तुम बैठे हो, उसी तरह एक दिन कॉलेज में दोपहर को मैं और गेसू लेटे हुए बादलों को देख रहे थे। उस दिन उसने एक शेर सुनाया था। ‘कैफ बरदोश बादलों को न देख, बेखबर तू कुचल न जाए कहीं।’ उसका कहना कितना सच निकला! भाग्य ने कहाँ ले जा पटका मुझे!”

”क्यों, वहाँ तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं?” चन्दर ने पूछा।

”हाँ, समझते तो सब यही हैं, लेकिन जो तकलीफ है वह मैं जानती हूँ या बिनती जानती है।” सुधा ने गहरी साँस लेकर कहा, ”वहाँ आदमी भी बने रहने का अधिकार नहीं।”

”क्यों?” चन्दर ने पूछा।

”क्या बताएँ तुम्हें चन्दर! कभी-कभी मन में आता है कि डूब मरूँ। ऐसा भी जीवन होगा मेरा, यह कभी मैं नहीं सोचती थी।” सुधा ने कहा।

”क्या बात है? बताओ न!” चन्दर ने पूछा।

”बता दूँगी, देवता! तुमसे भला क्या छिपाऊँगी लेकिन आज नहीं, फिर कभी!”

सुधा ने कहा, ”तुम परेशान मत हो। कहाँ तुम, कहाँ दुनिया! काश कि कभी तुम्हारी गोद से अलग न होती मैं!” और सुधा ने अपना मुँह चन्दर की गोद में छिपा लिया। चाँदनी की पंखरियाँ बरस पड़ीं।

उल्लास और रोशनी का मलय पवन फिर लौट आया था, फिर एक बार चन्दर, सुधा और बिनती के प्राणों को विभोर कर गया था कि सुधा को महीने-भर बाद ही जाना है और सुधा भूल गयी थी कि शाहजहाँपुर से भी उसका कोई नाता है। बिनती का इम्तहान हो गया था और अकसर चन्दर और सुधा बिनती के ब्याह के लिए गहने और कपड़े खरीदने जाते। जिंदगी फिर खुशी के हिल्कोरों पर झूलने लगी थी। बिनती का ब्याह उतरते अगहन में होने वाला था। अब दो-ढाई महीने रह गये थे। सुधा और चन्दर जाकर कपड़े खरीदते और लौटकर बिनती को जबरदस्ती पहनाते और गुडिय़ा की तरह उसे सजाकर खूब हँसते। दोनों के बड़े-बड़े हौसले थे बिनती के लिए। सुधा बिनती को सलवार और चुन्नी का एक सेट और गरारा और कुरते का एक सेट देना चाहती थी। चन्दर बिनती को एक हीरे की अँगूठी देना चाहता था। चन्दर बिनती को बहुत स्नेह करने लगा था। वह बिनती के ब्याह में भी जाना चाहता था लेकिन गाँव का मामला, कान्यकुब्जों की बारात। शहर में सुधा, बिनती और चन्दर को जितनी आजादी थी उतनी वहाँ भला क्योंकर हो सकती थी! फिर कहने वालों की जबान, कोई क्या कह बैठे! यही सब सोचकर सुधा ने चन्दर को मना कर दिया था। इसीलिए चन्दर यहीं बिनती को जितने उपहार और आशीर्वाद देना चाहता था, दे रहा था। सुधा का बचपन लौट आया था और दिन-भर उसकी शरारतों और किलकारियों से घर हिलता था। सुधा ने चन्दर को इतनी ममता में डुबो लिया था कि एक क्षण वह चन्दर को अपने से अलग नहीं रहने देती थी। जितनी देर चन्दर घर में रहता, सुधा उसे अपने दुलार में, अपनी साँसों की गरमाई में समेटे रहती थी, चन्दर के माथे पर हर क्षण वह जाने कितना स्नेह बिखेरती रहती थी!

एक दिन चन्दर आया तो देखा कि बिनती कहीं गयी है और सुधा चुपचाप बैठी हुई बहुत-से पुराने खतों को सँभाल रही है। एक गम्भीर उदासी का बादल घर में छाया हुआ है। चन्दर आया। देखा, सुधा आँख में आँसू भरे बैठी है।

”क्या बात है, सुधा?”

”रुखसती की चिठ्ठी आ गयी चन्दर, परसों शंकर बाबू आ रहे हैं।”

चन्दर के हृदय की धडक़नों पर जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया। वह चुपचाप बैठ गया। ”अब सब खत्म हुआ, चन्दर!” सुधा ने बड़ी ही करुण मुस्कान से कहा, ”अब साल-भर के लिए विदा और उसके बाद जाने क्या होगा?”

चन्दर कुछ नहीं बोला। वहीं लेट गया और बोला, ”सुधा, दु:खी मत हो। आखिर कैलाश इतना अच्छा है, शंकर बाबू इतने अच्छे हैं। दुख किस बात का? रहा मैं तो अब मैं सशक्त रहूँगा। तुम मेरे लिए मत घबराओ!”

सुधा एकटक चन्दर की ओर देखती रही। फिर बोली, ”चन्दर! तुम्हारे जैसे सब क्यों नहीं होते? तुम सचमुच इस दुनिया के योग्य नहीं हो! ऐसे ही बने रहना, चन्दर मेरे! तुम्हारी पवित्रता ही मुझे जिन्दा रख सकेगी वर्ना मैं तो जिस नरक में जा रही हूँ…”

”तुम उसे नरक क्यों कहती हो! मेरी समझ में नहीं आता!”

”तुम नहीं समझ सकते। तुम अभी बहुत दूर हो इन सब बातों से, लेकिन…” सुधा बड़ी देर तक चुप रही। फिर खत सब एक ओर खिसका दिये और बोली, ”चन्दर, उनमें सबकुछ है। वे बहुत अच्छे हैं, बहुत खुले विचार के हैं, मुझे बहुत चाहते हैं, मुझ पर कहीं से कोई बन्धन नहीं, लेकिन इस सारे स्वर्ग का मोल जो देकर चुकाना पड़ता है उससे मेरी आत्मा का कण-कण विद्रोह कर उठता है।” और सहसा घुटनों में मुँह छिपाकर रो पड़ी।

चन्दर उठा और सुधा के माथे पर हाथ रखकर बोला, ”छिह, रोओ मत सुधा! अब तो जैसा है, जो कुछ भी है, बर्दाश्त करना पड़ेगा।”

”कैसे करूँ, चन्दर! वह इतने अच्छे हैं और इसके अलावा इतना अच्छा व्यवहार करते हैं कि मैं उनसे क्या कहूँ? कैसे कहूँ?” सुधा बोली।

”जाने दो सुधी, जैसी जिंदगी हो वैसा निबाह करना चाहिए, इसी में सुन्दरता है। और जहाँ तक मेरा खयाल है वैवाहिक जीवन के प्रथम चरण में ही यह नशा रहता है, फिर किसको यह सूझता है। आओ, चलो चाय पीएँ! उठो, पागलपन नहीं करते। परसों चली जाओगी, रुलाकर नहीं जाना होता। उठो!” चन्दर ने अपने मन की जुगुप्सा पीकर ऊपर से बहुत स्नेह से कहा।

सुधा उठी और चाय ले आयी। चन्दर ने अपने हाथ से एक कप में चाय बनायी और सुधा को पिलाकर उसी में पीने लगा। चाय पीते-पीते सुधा बोली-

”चन्दर, तुम ब्याह मत करना! तुम इसके लिए नहीं बने हो।”

चन्दर सुधा को हँसाना चाहता था-”चल स्वार्थी कहीं की! क्यों न करूँ ब्याह? जरूर करूँगा! और जनाब, दो-दो करूँगा! अपने आप तो कर लिया और मुझे उपदेश दे रही हैं!”

सुधा हँस पड़ी। चन्दर ने कहा-

”बस ऐसे ही हँसती रहना हमेशा, हमारी याद करके और अगर रोयी तो समझ लो हम उसी तरह फिर अशान्त हो उठेंगे जैसे अभी तक थे!…” फिर प्याला सुधा के होठों से लगाकर बोला, ”अच्छा सुधी, कभी तुम सुनो कि मैं उतना पवित्र नहीं रहा जितना कि हूँ तो तुम क्या करोगी? कभी मेरा व्यक्तित्व अगर बिगड़ गया, तब क्या होगा?”

”होगा क्या? मैं रोकने वाली कौन होती हूँ! मैं खुद ही क्या रोक पायी अपने को! लेकिन चन्दर, तुम ऐसे ही रहना। तुम्हें मेरे प्राणों की सौगन्ध है, तुम अपने को बिगाडऩा मत।”

चन्दर हँसा, ”नहीं सुधा, तुम्हारा प्यार मेरी ताकत है। मैं कभी गिर नहीं सकता जब तक तुम मेरी आत्मा में गुँथी हुई हो।”

तीसरे दिन शंकर बाबू आये और सुधा चन्दर के पैरों की धूल माथे पर लगाकर चली गयी…इस बार वह रोयी नहीं, शान्त थी जैसे वधस्थल पर जाता हुआ बेबस अपराधी।

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