यह साधारण कामवाली बाई कैसे बन गई एक मशहूर लेखिका !

Amit Kumar Sachin

कहते है की जब तक आपके अन्दर हिम्मत और आत्मविश्वास नहीं है तभी तक आप कमजोर है . जिस दिन आपके अन्दर मेहनत करने की हिम्मत और आत्मविश्वास आ जायेगा उस दिन आपको आसमान में उड़ने से कोई नहीं रोक सकता है . हम आज ऐसी ही एक महिला की कहानी बताने जा रहे है जो आपको अन्दर तक हिलाकर रख देगी . कभी नरक से भी बदतर जिंदगी जीने वाली मामूली-सी नौकरानी बेबी हालदार कैसे लेखिका बन गई ,यह बेहद प्रेरणादायक और संघर्षपूर्ण दास्तान है। पढ़िए अंगारों पर चलते हुए अपने कहानी के द्वारा बेबी हालदार ने लाखो लोगो के दिलो में जगह कैसे बनायीं .

Baby Haldar Biography in hindi – बेबी हालदार का जीवन परिचय

बचपन

बेबी हालदार का जन्म 1973 में कश्मीर में हुआ था . उनके पिता नरेन्द्रनाथ मुर्शिदाबाद में छोड़कर नौकरी करने चले गए . शुरू में बेबी के पिता घर खर्च के लिए पैसे समय पर भेज देते थे लेकिन कुछ समय बाद कई कई महीने तक पैसे नहीं आते थे . जिससे उनके इनलोगों को आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा . लेकिन इन सारे कष्टों के बाद भी बेबी की माँ ने बच्चों को पढाना लिखाना जारी रखा . रिटायर होने के बाद नरेन्द्रनाथ कई कई दिनों तक घर से गायब रहते थे जिसको लेकर घर में अक्सर झगडा हुआ करता था .

माँ उनको अकेला छोड़कर चली गयी

एक दिन बेबी के पिता कहीं गए और उसके कुछ दिन बाद उनकी मां इतनी दुखी हुयी की गोद में छोटे बेटे को लेकर यह कह कर चली गई कि बाज़ार जा रही हैं. इसके बाद उनकी मां घर नहीं लौटीं. लेकिन तमाम कठिनाइयों के बावजूद बेबी ने स्कूल जाना नहीं छोड़ा। कभी-कभी तो बिना कुछ खाए स्कूल जाना पड़ता। एक दिन सहेली के सामने उसके मुंह से निकल गया कि खाने के लिए कुछ नहीं है। नरेंद्रनाथ ने यह बात सुन ली। बेबी जब स्कूल से लौटी तो उन्होंने उसे इतना मारा कि तीन दिन वह उठ नहीं सकी और कई दिन स्कूल नहीं जा सकी।

उनके पिता ने की तीसरी शादी


नरेंद्रनाथ ने दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी मां उनकी कोई बात नहीं सुनती, समय पर खाना नहीं देती, बिना कारण बच्चों को पिटवाती।नरेंद्रनाथ को दुर्गापुर में एक फैक्टरी में नौकरी मिल गई। वहां उन्होंने तीसरी शादी कर ली। वह दूसरी बीवी से झूठ बोलकर बच्चों को साथ ले गए। दुर्गापुर जाने के बाद नरेंद्रनाथ ने बच्चों की पढ़ाई शुरू नहीं करवाई। लेकिन बेबी में पढऩे की इच्छा देखकर उन्होंने कुछ दिन बाद उसे पढऩे के लिए जेठा (ताऊ) के पास भेज दिया। बेबी को ताऊ पास जाने के कारण उनकी तीसरी माँ को घर के कामकाज में दिक्कत लगी और उसने बेबी की पढाई छुड़ाकर घर पर बुला लिया .

तीसरी माँ उनको देती थी दुःख

पढाई बंद होने के कारण बेबी को इतनी चिंता हुयी को वो बीमार पड़ गयी और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा . अस्पताल में एक दिन वह सवेरे सोकर उठी तो उसने देखा कि उसका बिस्तर रक्त से लाल हो गया है। वह भय से रोने लगी। उसका रोना सुनकर नर्स आई तो वो समझ गयी की यह खून देखकर रो रही है . उसने बेबी को समझाया की लड़की जब बड़ी हो जाती है तो उसके साथ ऐसा ही होता है . इस घटना के बाद नरेन्द्रनाथ का बेबी के प्रति व्यवहार बदल गया . अब उन्होंने बेबी को डांटना बंद कर दिया . ये देखकर बेबी की तीसरी माँ को जलन होने लगी और उसने अपने पति और बेबी से किसी न किसी बात को लेकर झगडा करने लगी . जिससे सारा घर अशांत रहने लगा .

12 साल के उम्र में कर दी गयी शादी

तीसरी माँ के ही इशारे पर बेबी के पिता ने उनकी शादी 12 साल की उम्र में ही उनसे दुगने उम्र के एक क्रूर आदमी से कर दी . दुल्हन बनते समय हालदार ने अपनी सहेली से कहा था –

‘ चलो, अच्छा हुआ, मेरी शादी हो रही है। अब कम से कम पेट भरकर खाना तो मिलेगा।’ लेकिन उनका यह सोचना भी कितना दुर्भाग्यपूर्ण रहा था। 

शादी के बाद हुआ वैवाहिक रेप

शादी की रात पति ने उनके साथ रेप किया।  चौदह वर्ष से भी कम उम्र में बेबी गर्भवती हो गई। बेबी के पेट में दर्द उठना शुरू हो गया। छह दिन पूरे होने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। सभी लोग उसे अकेला छोड़कर वापस आ गए।बेबी अकेली पड़ी-पड़ी दर्द से रोने-चिल्लाने लगी। इससे आसपास के रोगियों को असुविधा होने लगी तो उसे दूसरे कमरे में ले जाकर एक टेबिल पर लिटा दिया गया और उसके हाथ-पैर बांध दिए गए।

14 से भी कम उम्र में बनी माँ

अचानक उसके पेट में इतने जोर से दर्द उठा कि पागल सी हो गई। नर्स दौड़कर डॉक्टर को बुला लायी। डॉक्टर ने बेबी के पेट को बेल्ट से बांध दिया और फिर पेट में कुछ टटोलने के बाद बताया कि बच्चा उलट गया है। नर्स एक और डॉक्टर को बुला लायी। दर्द के मारे बेबी इतनी जोर से हाथ-पैर झटक रही थी कि सब बंधन खुल गए। चारों लोगों ने मिलकर उसे फिर बांध दिया। डॉक्टर ने बच्चे को सर से पकड़कर बाहर निकाल दिया। बेबी का रोना-चिल्लाना बंद हो गया और वह बिलकुल शांत हो गई। अगले दिन उसका पति उसे घर ले आया।

कुत्ते बिल्ली की तरह जिंदगी

एक दिन बेबी को पता चला कि उसकी दीदी नहीं रही। दीदी को जीजा ने गला घोंट कर मार डाला था। वह अपनी दीदी को देखने जाना चाहती थी। लेकिन पति ने उसे नहीं जाने दिया। उसे लगा- वह एक आदमी की बंदिनी है इसलिए नहीं जा पायी। वह जो कहे वही उसे सुनना होगा, जो कहे वही करना होगा, लेकिन क्यों? जीवन तो उसका है, न कि पति का। फिर उसे पति के कहे अनुसार सिर्फ इसलिए चलना होगा कि वह पति के पास है? कि वह मुट्ठी भर भात देता है। पति उसे जिस तरह रखता है, उस तरह तो कुत्ते-बिल्ली को रखा जाता है। जब वहां उसे सुख-शांति नहीं मिलती तो क्या जरूरी है कि वह पति के पास रहे?

पति ने पत्थर मरकर सर फोड़ा

एक दिन पति ने गांव के किसी आदमी से बात करते देखकर उनके सिर पर पत्थर मारकर लहूलुहान कर दिया।  वह बच्चे को गोद में उठाकर घर आ गई। उसने अपने पति से पूछा कि उसकी क्या गलती थी, जो उसे इस तरह मारा? इतना सुनते ही उसके पति ने एक मोटा बांस उठाया और उसके पीछे दे मारा। इसके कुछ देर बाद ही बेबी के पेट में भयंकर दर्द होने लगा। दर्द इतना ज्यादा हो रहा था की दर्द के मारे वह न उठ सकती थी, न कुछ खा सकती थी और न ही सो सकती थी। रात को भी वह चीखती-चिल्लाती रही लेकिन उसका पति आराम से सोता रहा।

पति की मार से पेट का बच्चा गिरा

तब बेबी अपने बच्चे को साथ ले, अपना पेट पकड़े, मां-रे, बाबा-रे चिल्लाती हुई सामने रहने वाले महादेव के पास गई। बेबी ने महादेव को भेजकर अपने घर से भाई को बुलवाया। बेबी का बड़ा भाई उसे ठेले में लादकर अपने साथ ले गया। उस समय रात के करीब दो बज रहे थे। पति की मार से पेट का बच्चा गिर गया।

पति से तंग आकर घर छोड़ा

लगभग रोजाना ही उम्रदराज पति की गालियां सुनते सुनते और उसके हाथों पिटते रहने के कारण बेबी की जिंदगी नर्क हो चली थी । इस तरह बर्दाश्त कर गुजर-बसर करते उनके ससुराल में ढाई दशक बीत गए। आखिरकार, वर्ष 1999 में एक दिन वह अपनी अज्ञात मंजिल की तरफ निकल ही पड़ीं। तीनो बच्चों को साथ लेकर वह रेलवे स्टेशन पहुंचीं और एक ट्रेन के शौचालय में बैठे-बैठे दिल्ली, फिर वहां से गुड़गांव पहुंच गईं। गुड़गांव में उनका कोई भी परिचित नहीं। अपना और बच्चों का पेट पालने के लिए वो बाई का कम करने के लिए हर दरवाजे की कुंडिया खटकाने लगी . लेकिन जब लोगो को पता चलता की वह पति का घर छोड़कर आई है तो किसी ने उसे काम नहीं दिया .

जीवन को मिली नयी दिशा

एक दिन उन्होंने उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के प्रौत्र एवं रिटायर्ड प्रोफेसर प्रबोध कुमार के दरवाजे पर दस्तक दी। यही वो दस्तक थी, जिसने उनके जीवन की दिशा मोड़ दी। यहां से वह उस मंजिल की तरफ कूच करने वाली थी, जिसके बारे में उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था .

प्रबोध कुमार ने उसके अन्दर छुपे दर्द को पहचाना

एक दिन डस्टिंग करते समय वह कोई किताब उलट-पलट रही थी, तभी गृहस्वामी प्रबोध कुमार आ गए। उन्होंने उसे किताबें उलटते-पलटते देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं। अगले दिन वह चाय लेकर आई तो प्रबोध कुमार ने पूछा, ”तुम कुछ लिखना-पढऩा जानती हो?”
बेबी ऊपरी हंसी हंसकर जाने लगी तो उन्होंने फिर पूछा, ”बिलकुल भी नहीं जानतीं?”
बेबी ने बोला – ”छठी तक।” अगले दिन प्रबोध कुमार ने पूछा, ” तुमने स्कूल में जो किताबें पढ़ीं, उनमें किन लेखकों व कवियों को पढ़ा? कुछ याद है?”
बेबी ने झट से कहा, ”हां, कई तो हैं। जैसे- रवींद्रनाथ ठाकुर, काजी नजरुल इस्लाम, शरतचंद्र, सत्येंद्रनाथ दत्त, सुकुमार राय।”

बेबी को अपनी कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया


नजरुल का नाम सुनकर प्रबोध कुमार के चेहरे पर चमक आ गई। उन्होंने पूछा, “नजरुल का कोई गीत याद है?” तो सुनाओ . बेबी ने सहजता से नजरुल के एक-दो गीत सुना दिए।
प्रबोध कुमार सोचने लगे- चौबीस घंटे पेट के लिए व्यस्त रहने के बावजूद इसे गीत याद है। इसमें कुछ तो है। एक दिन प्रबोध कुमार ने उनको तसलीमा नसरीन की एक किताब पढ़ने के लिए दी। जब वह पूरी किताब पढ़कर खत्म कर चुकीं तो प्रबोध कुमार ने उनसे कहा कि तुम्हारे ऊपर अब तक जो कुछ बीता है, उसे रोज इस कॉपी में थोडा थोडा लिखो ।

बेबी को अपनी कहानी लिखने का धुन चढ़ा

यह बात पहले तो उनको बड़ी अटपटी लगी लेकिन जब कलम उठा लिया तो इस काम में उनको मजा आने लगा। अब बेबी को लिखने की धुन लग चुकी थी। खाने की मेज पर, रसोई में काम करते हुए और घर में काम करते जहां भी समय मिलता, वह लिखने बैठ जाती। बेबी को सहजता से लिखते हुए देखते प्रबोध कुमार सोचते- हम जब लिखते हैं तो मेज-कुर्सी लगाकर, सिगरेट पीकर मूड बनाना पड़ता है। यह कितनी सहजता से लिखे जा रही है। जिसके अंदर कुछ कहने को है, वह तो कहेगा ही, उसे इन सब चीजों की जरूरत नहीं रहती है।

अपना लिखा पढ़कर खुद रोती थी बेबी

बांग्ला में वह अपना ही लिखा पढ़कर रोती रहतीं। यह उनके जीवन का चमत्कृत कर देने वाला अनुभव था। स्कूल के दिनों के बाद उन्होंने दूसरी बार कलम थामा था। वह कहती हैं- ‘जब मैंने हाथ में पेन थामा तो घबरा गई थी। मैंने स्कूली दिनों के बाद कभी पेन नहीं थामा था। जैसे ही मैंने लिखना शुरू किया तो मुझमें नई ऊर्जा आ गई। किताब लिखना अच्छा एक्सपीरियंस रहा।’ बाद में प्रबोध कुमार ने स्वयं उनकी रचना को बांग्ला से हिंदी में अनूदित किया। बताया जाता है कि अनुवाद करते समय वह भी बार-बार रोए। 

उनकी पुस्तक आलो आंधारी को मिला भरपूर प्यार

आखिरकार उनकी पुस्तक ‘आलो-आंधारि जो की मूल रूप में बांग्ला में लिखी गई थी , पूरी हो गयी । इसका हिंदी अनुवाद प्रबोध कुमार ने किया जिसका प्रकाशन 2002 में किया गया . सीधी सधी भाषा में लिखी होने के कारण इसका पहला संस्करण हाथो हाथ बिक गया . ‘आलो-आंधारि किताब को 2006 का बेस्ट सेलर का ख़िताब दिया गया था . आज यह किताब 21भारतीय भाषाओ और 13 विदेशी भाषाओ में छप चुकी है . एक गुमनाम लड़की जिसके जीने मरने से किसी को कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं था वो आज लोगो के लिए एक मिसाल है .

कई साहित्यिक समारोहों का बनी हिस्सा

लेखिका बनने के बाद बेबी ने पेरिस और फ्रैंकफर्ट जैसी जगहों का ना सिर्फ दौरा किया बल्कि कई साहित्यिक समारोहों का भी हिस्सा बनीं. इस समय उनका बड़ा बेटा जवान हो चुका है। वह पढ़ाई कर रहा है। हालदार ने किताबों की रॉयल्टी से अब तो अपना खुद का बसेरा भी बना लिया है, लेकिन प्रबोध कुमार की चौखट से उनका आज भी नाता टूटा नहीं है। वह कहती हैं – ‘मैं आज भी अपने आप को प्रबोध कुमार की मासी समझती हूँ। मैं उनका घर और अपने हाथों से झाड़ू कभी नहीं छोडूंगी। साथ ही लगातार लिखती रहूंगीं। प्रबोध कुमार की बदौलत ही तो मैंने खुद को पहचाना है।’

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